अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
1
श॒तं च॑ न प्र॒हर॑न्तो नि॒घ्नन्तो॒ न त॑स्ति॒रे। तस्मि॒न्निन्द्रः॒ पर्य॑दत्त॒ चक्षुः॑ प्रा॒णमथो॒ बल॒मस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम्। च॒। न। प्र॒ऽहर॑न्तः। नि॒ऽघ्नन्तः॑। न। त॒स्ति॒रे। तस्मि॑न्। इन्द्रः॑। परि॑। अ॒द॒त्त॒। चक्षुः॑। प्रा॒णम्। अथो॒ इति॑। बल॑म्। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं च न प्रहरन्तो निघ्नन्तो न तस्तिरे। तस्मिन्निन्द्रः पर्यदत्त चक्षुः प्राणमथो बलमस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठशतम्। च। न। प्रऽहरन्तः। निऽघ्नन्तः। न। तस्तिरे। तस्मिन्। इन्द्रः। परि। अदत्त। चक्षुः। प्राणम्। अथो इति। बलम्। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विजय की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (न) न तो (शतम्) सौ (प्रहरन्तः) चोट चलानेवाले (च) और (न) न (निघ्नन्तः) मार गिरानेवाले शत्रु [उस नियम को] (तस्तिरे) तोड़ सके हैं। (तस्मिन्) उस [नियम] में (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा] ने (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्य, (प्राणम्) जीवनसामर्थ्य (अथो) और (बलम्) बल (परि अदत्त) दे रक्खा है, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥३॥
भावार्थ
उन लोगों को वैरी लोग कभी नहीं सता सकते जो देख-भाल कर नियम पर चलते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(शतम्) बहवः (च) (न) निषेधे (प्रहरन्तः) प्रहारं कुर्वन्तः। शस्त्रादिभिर्बाधमानाः (निघ्नन्तः) नितरां हिंसन्तो मारयन्तः (न) निषेधे (तस्तिरे) स्तृञ् हिंसायाम्−लिट्। जिहिंसुः (तस्मिन्) अस्तृते। नियमे (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (परि अदत्त) समर्पितवान् (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्यम् (प्राणम्) जीवनसामर्थ्यम् (अथो) अपि च (बलम्)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
भाषार्थ
हे माण्डलिक राजन्! (प्रहरन्तः) प्रहार करने वाले (शतम्) सैकड़ों सैनिक (न तस्तिरे) आपका वध नहीं कर सकते। (च) और (निघ्नन्तः) हनन करनेवाले सैकड़ों सैनिक (न) आपका वध नहीं कर सकते। (तस्मिन्) उस आप में (इन्द्रः) महाशासक सम्राट् ने (चक्षुः) नई दृष्टि, (प्राणम्) नई प्राणशक्ति, (अथो) और (बलम्) नया बल (पर्यदत्त) प्रदान किया है। (अस्तृतः) अपराजित महाशासक सम्राट् (त्वा) आपको (अभि) सब ओर से (रक्षतु) सुरक्षित करे।
टिप्पणी
[तस्तिरे=स्तृणाति वधकर्मा (निघं० २.१९), लिट् लकार।]
विषय
'चक्षु, प्राण व बल'
पदार्थ
१. (शतं च) = सैकड़ों भी शत्रु (प्रहरन्त:) = नानाप्रकार से प्रहार करते हुए, हे अस्तृतमणे! तुझे (न तस्तिरे) = आच्छादित नहीं कर सके [स्तृञ् आच्छादने]-हिंसित नहीं कर सके [स्तु to kill] | (निजन्त:) = प्राणों से वियुक्त करते हुए भयंकर रोगरूप शत्रु भी तुझे हिंसित करने में समर्थ नहीं हुए। इसी से तो तेरा 'अस्तृत' यह नाम हुआ है। २. हे जीव! (इन्द्र:) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु ने (तस्मिन्) = उस अस्तृतमणि में (चक्षुः पर्यदत्त) = चक्षु को-दृष्टिशक्ति को दिया है। (प्राणम् अथ उबलम्) = प्राणशक्ति और बल को भी इस अस्तृतमणि में स्थापित किया है। यह (अस्तृतः) = अस्तृतमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा रक्षण करे। वीर्यरक्षण करते हुए हम चक्षु, प्राण व बल को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
वीर्य को अस्तृतमणि कहा गया है, क्योंकि यह हमपर रोगरूप शत्रुओं का प्रहार नहीं होने देती और हमें वासनारूप शत्रुओं से हिंसित नहीं होने देती। सुरक्षित वीर्य हमारे लिए 'चक्षु, प्राण व बल' देता है।
इंग्लिश (4)
Subject
Astrta Mani
Meaning
Not a hundred attackers, not a hundred fatalities can dominate and subdue the man whom Astrta would protect. Into that, Indra, lord omnipotent, has vested far sighted vision, pranic energy, and immense strength. O man, may Astrta protect you all round.
Translation
Whom hundreds of assailants, attaching and smiting, have failed to subdue, to him the resplendent Lord has set the vision, life and also strength; may the unsubdued protect you all around.
Translation
Hundred ones assaulting and killing cannot harm it. In it Indra, the mighty electricity has provided with splendor, vitality and strength (for concerned one). Let. This invincible one guard you, O man.
Translation
The Lord of fortunes, the king fully entrusts the authority of vigilance, protection of life and property, sources of strength and energy to the man, whom hundreds of armies, attacking spilling blood-shed in. their wake, cannot subdue.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(शतम्) बहवः (च) (न) निषेधे (प्रहरन्तः) प्रहारं कुर्वन्तः। शस्त्रादिभिर्बाधमानाः (निघ्नन्तः) नितरां हिंसन्तो मारयन्तः (न) निषेधे (तस्तिरे) स्तृञ् हिंसायाम्−लिट्। जिहिंसुः (तस्मिन्) अस्तृते। नियमे (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (परि अदत्त) समर्पितवान् (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्यम् (प्राणम्) जीवनसामर्थ्यम् (अथो) अपि च (बलम्)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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