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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - कालः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - काल सूक्त
    1

    का॒लो य॒ज्ञं समै॑रयद्दे॒वेभ्यो॑ भा॒गमक्षि॑तम्। का॒ले ग॑न्धर्वाप्स॒रसः॑ का॒ले लो॒काः प्रति॑ष्ठिताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    का॒लः। य॒ज्ञम्। सम्। ऐ॒र॒य॒त्। दे॒वेभ्यः॑। भा॒गम्। अक्षि॑तम्। का॒ले। ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रसः॑। का॒ले। लो॒काः। प्रति॑ऽस्थिताः ॥५४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कालो यज्ञं समैरयद्देवेभ्यो भागमक्षितम्। काले गन्धर्वाप्सरसः काले लोकाः प्रतिष्ठिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कालः। यज्ञम्। सम्। ऐरयत्। देवेभ्यः। भागम्। अक्षितम्। काले। गन्धर्वऽअप्सरसः। काले। लोकाः। प्रतिऽस्थिताः ॥५४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    काल की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (कालः) काल ने (यज्ञम्) यज्ञ [सत्कर्म] को (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (अक्षितम्) अक्षय (भागम्) भाग (सम्) पूरा-पूरा (ऐरयत्) भेजा है। (काले) काल में (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्व [पृथिवी पर धरे हुए पदार्थ] और अप्सराएँ [आकाश में चलनेवाले पदार्थ], और (काले) काल में (लोकाः) सब लोक (प्रतिष्ठिताः) रक्खे हुए हैं ॥४॥

    भावार्थ

    समय के उपयोग से विद्वान् लोग सत्कर्म करके सद्गति पाते हैं और काल में ही संसार के सब पदार्थ ठहरे हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(कालः) (यज्ञम्) सद्व्यवहारम् (सम्) सम्यक् (ऐरयत्) प्रेरितवान् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (भागम्) अंशम् (अक्षितम्) अक्षीणम् (काले) (गन्धर्वाप्सरसः) अ० १९।३६।६। गवि पृथिव्यां धृताः पदार्थाः अप्सु आकाशे सरणशीलाश्च पदार्थाः (काले) (लोकाः) सूर्यादयः (प्रतिष्ठिताः) दृढं स्थिताः ॥

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    भाषार्थ

    (कालः) काल अर्थात् समय (देवेभ्यः) देवों के लिए, उन के (अक्षितम्) अनश्वर (भागम्) भागरूप (यज्ञम्) यज्ञ को (समैरयत्) प्रेरित करता है, अर्थात् उन्हें प्रदान करता है। (काले) काल अर्थात् समय में (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्व और अप्सराएँ, तथा (काले) काल अर्थात् समय में (लोकाः) तीनों लोक (प्रतिष्ठिताः) स्थित हैं।

    टिप्पणी

    [यज्ञम्= अग्निहोत्र चातुर्मास्य आदि यज्ञों का अपना-अपना काल अर्थात् समय नियत है। यज्ञ किये जाते हैं, देवों अर्थात् वायु जल वनस्पति आदि की विशुद्धि तथा परिपुष्टि के लिए। यज्ञों में दी गई आहुतियाँ विनष्ट नहीं होतीं, अपितु ये अग्नि द्वारा सूक्ष्मरूप होकर पदार्थों में दिव्यगुण स्थापित करती हैं। इसलिए देवों के यज्ञभाग को “अक्षितम्” कहा है, अर्थात् क्षीण न होनेवाला भाग। गन्धर्वाप्सरसः= यजुर्वेदोक्त गन्धर्वों और अप्सराओं के स्वरूप— (१) “अग्निर्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो नाम” (१८.३८), अर्थात्— गन्धर्वः=अग्नि; और अप्सरसः=ओषधियाँ। (२) “सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽप्सरस आयुवो नाम” (१८.३९), अर्थात्—गन्धर्वः= सूर्य; और अप्सरसः= मरीचयः=किरणें। (३) “चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकुरयो नाम” (१८.४०), अर्थात्— गन्धर्वः=चन्द्रमा; और अप्सरसः= नक्षत्राणि। (४) “वातो गन्धर्व-स्तस्यापोऽप्सरस ऊर्जो नाम” (१८.४१), अर्थात्=गन्धर्वः=वातः=वायु; और अप्सरसः=आपः=जल। ऊर्जः=बल और प्राणशक्तियों का प्रदाता अन्न। क्योंकि वायु द्वारा वर्षा होती, और वर्षा से अन्न होता है। (५) “यज्ञो गन्धर्वस्तस्य दक्षिणा अप्सरस स्तावा नाम” (१८.४२), अर्थात्— गन्धर्वः=यज्ञ; और अप्सरसः=दक्षिणाएँ। (६) “मनो गन्धर्वस्तस्य ऋक्सामान्यप्सरस एष्टयो नाम” (१८.४३); अर्थात्—गन्धर्वः=मन; और अप्सरसः=ऋक् और साम। इन सब गन्धर्वों और इनकी अप्सराओं अर्थात् शक्तियों का विकास काल द्वारा नियन्त्रित होता है। ओषधियों को “मुदः” कहा है, क्योंकि इनके होते ही जीवन में मोद-प्रमोद होते हैं। मरीचियों को “आयुवः” कहा है, क्योंकि ये वस्तुओं में परस्पर मिश्रण और अमिश्रण करती हैं। आयुवः= आ+यु (मिश्रणे, अमिश्रणे)। नक्षत्रों को “भेकुरयः” कहा है, क्योंकि ये द्युलोक में प्रभासम्पन्न हैं। आपः और ऊर्जः का सम्बन्ध स्पष्ट ही है। दक्षिणाओं को “स्तावाः” कहा है, क्योंकि दक्षिणा के आधार पर एक ऋत्विक् यज्ञ करते, और यज्ञ में स्तवन करते हैं। ऋक् और साम को “एष्टयः” कहा है, क्योंकि ये अभीष्टों को सिद्ध करते हैं, अभिलाषाओं को सिद्ध करते हैं।]

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    विषय

    यज्ञ-देवों के लिए अक्षित भाग

    पदार्थ

    १. (काल:) = उस काल प्रभु ने ही (यज्ञम्) = यज्ञ को (सम् ऐरयत्) = सम्यक् प्रेरित किया है जोकि (देवभ्यः) = देवों के लिए (अक्षितम् भागम्) = क्षयरहित-क्षीण न होने देनेवाला भाग है-भजनीय कर्म है। देव यज्ञ करते हैं, अतः क्षीणशक्तिवाले नहीं होते। यज्ञशेष का सेवन करते हुए ये देव अमृत का ही सेवन कर रहे होते हैं। २. (काले) = उस काल नामक प्रभु में ही (गन्धर्वाप्सरस:) = [गां वेदवाचं धारयन्ति, अप्सु कर्मसु सरन्ति] ज्ञान की वाणियों को धारण करनेवाले ज्ञानी पुरुष तथा यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त कर्मकाण्डी लोग (प्रतिष्ठिता:) = प्रतिष्ठित होते हैं। वस्तुतः काले-उस प्रभु में ही लोकाः [प्रतिष्ठिताः] सब लोक प्रतिष्ठित [आधारित] हैं।

    भावार्थ

    काल नामक प्रभु देवों के लिए यज्ञ का विधान करते हैं। इस यज्ञ के द्वारा ही ये देव अक्षीणशक्ति बने रहते हैं। सब ज्ञानी व कर्मकण्डी तथा अन्य भी सब लोक इस काल नामक प्रभु में ही प्रतिष्ठित हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kala

    Meaning

    Kala sets in motion the cosmic yajna, dynamics of creative evolution, and the creative parts of cosmic dynamics for the divine forces of nature and humanity in the process of evolution and development. In Kala abide the Gandharvas, sustainers of stars and planets, and the Apsaras, fluent forces of the universe. And in Kala abide all regions of the worlds in the universe for created beings.

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    Translation

    Time has set in motion the sacrifice unexhausting share of the enlightened ones. Protectors of earth and the energies of water (are set) in Time: in Time are set the words.

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    Translation

    Kala inspires the sense of Yajna or Kala initiates Samvatsar in which the oblatory portions for the Devas are fixed or in which the abode of physical forces is fixed. The clouds, lightning’s are in Kala and the worlds and creatures rest on Kala.

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    Translation

    The mighty Father mobilized this huge sacrifice, providing ever-lasting share to the divine beings or natural forces well-stationed are in the Kala, all the creatures on earth or moving in the atmosphere.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(कालः) (यज्ञम्) सद्व्यवहारम् (सम्) सम्यक् (ऐरयत्) प्रेरितवान् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (भागम्) अंशम् (अक्षितम्) अक्षीणम् (काले) (गन्धर्वाप्सरसः) अ० १९।३६।६। गवि पृथिव्यां धृताः पदार्थाः अप्सु आकाशे सरणशीलाश्च पदार्थाः (काले) (लोकाः) सूर्यादयः (प्रतिष्ठिताः) दृढं स्थिताः ॥

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