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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
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    पुण्यं॒ पूर्वा॒ फल्गु॑न्यौ॒ चात्र॒ हस्त॑श्चि॒त्रा शि॒वा स्वा॒ति सु॒खो मे॑ अस्तु। राधे॑ वि॒शाखे॑ सु॒हवा॑नुरा॒धा ज्येष्ठा॑ सु॒नक्ष॑त्र॒मरि॑ष्ट॒ मूल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुण्य॑म्। पूर्वा॑। फल्गु॑न्यौ। च॒। अत्र॑। हस्तः॑। चि॒त्रा। शि॒वा। स्वा॒ति। सु॒ऽखः। मे॒। अ॒स्तु॒। राधे॑। वि॒ऽशाखे॑। सु॒ऽहवा॑। अ॒नु॒ऽरा॒धा। ज्येष्ठा॑। सु॒ऽनक्ष॑त्रम्। अरि॑ष्ट। मूल॑म् ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु। राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुण्यम्। पूर्वा। फल्गुन्यौ। च। अत्र। हस्तः। चित्रा। शिवा। स्वाति। सुऽखः। मे। अस्तु। राधे। विऽशाखे। सुऽहवा। अनुऽराधा। ज्येष्ठा। सुऽनक्षत्रम्। अरिष्ट। मूलम् ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ज्योतिष विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अत्र) यहाँ (पूर्वा) पूर्वा [पहिली] (च) और [उत्तरा वा पिछली] (फल्गुन्यौ) दोनों फल्गुनी (पुण्यम्) पवित्र [नक्षत्र], (हस्तः) हस्त (सुखः) सुख देनेवाला और (चित्रा) चित्रा तथा (स्वाति) स्वाति (शिवा) मङ्गलकारक (मे) मेरे लिये (अस्तु) होवे। (राधे) हे सिद्धि करनेवाली ! (विशाखे) विशाखा तू (सुहवा) सुख से बुलाने योग्य [हो], (अनुराधा) अनुराधा और (ज्येष्ठा) ज्येष्ठा [सुख से बुलाने योग्य होवे] और (सुनक्षत्रम्) सुन्दर नक्षत्र (मूलम्) मूल (अरिष्ट) हानिरहित [होवे] ॥३॥

    भावार्थ

    मन्त्र २ के समान है ॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र में इन नक्षत्रों का वर्णन है। ९−पूर्वाफल्गुनी [पहिली फल्गुनी वा फल उत्पन्न करनेवाली, खाट की आकृति, दो तारापुञ्ज, ग्यारहवाँ नक्षत्र], १०−उत्तराफल्गुनी [पिछली फल्गुनी फल उत्पन्न करनेवाली, खाट की आकृति, दो तारापुञ्ज बारहवाँ नक्षत्र], ११−हस्त [हाथ की आकृति, पाँच तारापुञ्ज, तेरहवाँ नक्षत्र], १२−चित्रा [विचित्र वा अद्भुत, मोती समान उज्ज्वल, एक तारा, चौदहवाँ नक्षत्र], १३−स्वाति [अपने आप चलनेवाली कुंकुम समान लाल, एक तारा, पन्द्रहवाँ नक्षत्र], १४−विशाखा [विशेष शाखाओंवाली, इसका नाम (राधा) सिद्धि करनेवाली भी है, तोरण वा बड़े द्वार समान आकृति, चार तारापुञ्ज, सोलहवाँ नक्षत्र], १५−अनुराधा [राधा अर्थात् विशाखा के पीछे चलनेवाली, सर्प−आकृति, सात तारापुञ्ज, सत्तरहवाँ नक्षत्र], १६−ज्येष्ठा [सब से बड़ी वा श्रेष्ठ, सूअर के दाँत की आकृति, तीन तारापुञ्ज, अठारहवाँ नक्षत्र], १७−मूल [वा मूला अर्थात् जड़ समान दृढ़, सिंह पूछ-आकृति वा शंख मूर्ति, नव तारापुञ्ज, उन्नीसवाँ नक्षत्र] ॥ ३−(पुण्यम्) शुद्धं नक्षत्रम् (पूर्वा) पूर्वभवा (फल्गुन्यौ) अ० १४।१।१३। फलेर्गुक् च। उ० ३।५६। फल निष्पत्तौ−उनन्, गुक्-च, ङीप्। फलन्ति वृक्षा यत्र। पूर्वाफल्गुनी उत्तराफल्गुनी च द्वे। फल्गुनी प्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे। पा० १।२।६०। इति द्विवचनं वा। खट्वाकृति तारकाद्वयात्मकमेकादशनक्षत्रम् (च) उत्तराफल्गुनी, पूर्ववत्, द्वादशनक्षत्रम् (अत्र) अस्मिन् नक्षत्रगणे (हस्तः) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। हस विकाशे-तन्। हस्ता। हस्ताकृति पञ्चतारात्मकं त्रयोदशनक्षत्रम् (चित्रा) चित्र लेख्ये अद्भुते च-अच्, टाप्। मुक्तावदुज्ज्वलमेकतारात्मकं चतुर्दशनक्षत्रम् (शिवा) मङ्गलकारिणी (स्वाति) स्व+अत सातत्यगमने-इन्, सोर्लुक्। स्वातिः। स्वेनैवाततीति कुङ्कुमसदृशारुणैकतारात्मकं पञ्चदशनक्षत्रम् (सुखः) सुखप्रदः (मे) मह्यम् (अस्तु) राधे राध्नोति साधयति कार्याणि, राध संसिद्धौ-अच्, टाप्। हे सिद्धिकारिके। एतद् विशाखा नक्षत्रस्य नामापि (विशाखे) वि+शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। विशिष्टाः शाखाः प्रकारा यस्याः सा तत्सम्बुद्धौ। तोरणाकारचतुस्तारामयं षोडशनक्षत्रम् (सुहवा) सुष्ठु आह्वातव्या (अनुराधा) राधां विशाखामनुगता। सर्पाकृति सप्ततारामयं सप्तदशनक्षत्रम् (ज्येष्ठा) सर्ववृद्धा सर्वश्रेष्ठा वा। शूकरदन्ताकृति तारात्रयात्मकम्, अष्टादशनक्षत्रम् (सुनक्षत्रम्) णक्ष गतौ-अत्रन्। शोभनं गमनशीलं नक्षत्रम् (अरिष्ट) रिष हिंसायाम्-क्त। विभक्तेर्लुक्। अरिष्टम्। अहिंसितम्। शुभम् (मूलम्) मूल प्रतिष्ठायाम्-क, यद्वा। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। मूङ् बन्धने−क्ल, सिंहपुच्छाकारं शंखमूर्ति वा नवतारामयम्, ऊनविंशनक्षत्रम् ॥

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    विषय

    'पूर्वाफल्गुनी से मूल' तक

    पदार्थ

    १. अब (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (पूर्वाफगुन्यौ) = पूर्वाफलानी के दो नक्षत्र (पुण्यम्) = मुझे शुभ कर्मों में प्रवृत्त करनेवाले हों। इस जीवन में 'धन व यश' की असारता को समझता हुआ [फल्ग-Unsubstantial] इनके कारण पुण्यमार्ग से विचिलत न होऊँ। (हस्तः चित्रा) = हस्त और चित्रा नक्षत्र मुझे हाथों से यज्ञ आदि कर्मों के करने तथा ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्राप्ति में [चित्-र] लगे रहने की प्रेरणा देते हुए (शिवा) = मेरे लिए कल्याणकर हों। अब (स्वाति) = 'स्वाति नक्षत्र [स्वनैव अतति] मुझे किसी पर आश्रित न होते हुए गतिशील बनने की प्रेरणा देता हुआ (मे सुखः अस्तु) = मेरे लिए सुखकर हो। २. इस गतिशीलता [पुरुषार्थ] के होने पर (राधे विशाखे) = हे राधा और विशाखा नक्षत्र! तुम दोनों मुझे कार्यसिद्धि [राधा] व संसार-वृक्ष की विशिष्ट शाखा [उत्तम सात्विक ज्ञानप्रधान संन्यासी] बनने की प्रेरणा देते हुए (सुहवा) = उत्तम प्रार्थना करने योग्य होओ। मैं प्रभु से 'राधा व विशाखा' बन सकने की ही प्रार्थना करूं। (अनुराधा ज्येष्ठा) = 'अनुराधा' नक्षत्र मुझे [लक्ष्य] के अनुकूल सफलता की प्रेरणा दे। ज्येष्ठा' नक्षत्र से मैं ज्येष्ठ [प्रशस्यतम जीवनवाला] बनने की प्रेरणा लूँ और तब (सुनक्षत्रम् मूलम्) = यह 'मूल' नामक उत्तम नक्षत्र मुझे उस ब्रह्माण्ड के मूल [सर्वाधार] प्रभु को स्मरण कराता हुआ (अ-रिष्ट) = अहिंसित करनेवाला हो|

    भावार्थ

    मैं इस संसार में धन व यश की एषणा में फँसकर मार्ग-विचलित न हो जाऊँ। यज्ञादि कर्मों व ज्ञानप्राप्ति में लगा रहूँ। अपराधीन होते हुए गतिशील बना रहूँ। 'सफलता व संसार में सर्वोत्तम स्थिति में पहुँचना' मेरा लक्ष्य हो। धर्मानुकूल सफलता मेरे जीवन को प्रकाशमय बनाए। मैं ब्रह्माण्ड के मूल प्रभु को कभी न भूलें।

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    भाषार्थ

    (पूर्वा फल्गुन्यौ) पहिले दो फल्गुनी-नक्षत्र-तारे (च) और (अत्र) यहाँ अर्थात् पूर्वा फल्गुन्यौ के साथ वर्त्तमान उत्तरा फल्गुनी के दो नक्षत्र-तारे (पुण्यम्) पुण्यकर्मों के लिए हों। अर्थात् इन नक्षत्रकालों में हम पुण्यकर्म करें, या आरम्भ करें। (हस्तः) तथा हस्त-नक्षत्र-काल में भी पुण्यकर्म करें। (चित्रा) चित्रा-नक्षत्रकाल (शिवा) सुखदायक तथा कल्याणकारी हो। और (स्वाति) स्वाति-नक्षत्रकाल (मे) मेरे लिए (सुखः अस्तु) सुखदायक हो। (विशाखे) विशाखा नामक तारकाद्वय (राधे) हमारे अभीष्टसाधक हों। (अनुराधा) अनुराधा-नक्षत्रकाल (सुहवा) ऋत्वनुकूल उत्तम यज्ञों से युक्त हो। (ज्येष्ठा) ज्येष्ठा-नक्षत्रकाल (सुनक्षत्रम्) सुखदायी हो। (मूलम्) मूल या मूला-नक्षत्रकाल (अरिष्ट=अरिष्टम्) हमारे लिए रोगादि से रहित हो।

    टिप्पणी

    [पूर्वमन्त्र से इस मन्त्र में भी “सुहवम्” का सम्बन्ध जानना चाहिए, अर्थात् ऋत्वनुकूल यज्ञों के होते उत्तरोत्तर नक्षत्रकाल मङ्गल और सुखदायक हो जाएँ। इसी भावना को “सुहवा अनुराधा” द्वारा प्रकट किया गया है। सुहवा= सुहवना, सुयज्ञा। अनुराधा= इसका अर्थ है— राधा-नक्षत्र के पश्चात् का नक्षत्र। इसके द्वारा सूचित होता है कि “राधे विशाखे” में नक्षत्र का नाम “राधा” है। विशाखे द्वारा राधा-नक्षत्र के शाखामय दो ताराओं का निर्देश किया है। मन्त्रों में नक्षत्रवाची शब्दों के द्वारा उन-उनके काल अभिप्रेत हैं। यथा— “नक्षत्रेणः युक्तः कालः” (अष्टा० ४.२.३) द्वारा “अण्” होकर “लुबविशेषे” (अष्टा० ४.२.४) द्वारा अण् का लोप हुआ। “अरष्टिमूलम्” सम्भवतः समस्तपद हो, अरिष्टं च तत् मूलम् च”।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Nakshatras, Heavenly Bodies

    Meaning

    Let Purvaphalguni and Uttaraphalguni be auspicious. Let Hasta, Chitra and Svati be full of peace and joy for me. Let Vishakha be responsive to my attention and bring me success. Let Jyeshtha be auspicious, and Mula be free from trouble.

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    Translation

    May the two Pürvà Phalgunis be propitious to me; Hasta and Chitra be auspicious here; may Svati be joy-giving to me. May the two Radhas and the two Visakhas be easy to invoke; may Anuradha, Jyestha and Mula be unharming to me.

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    Translation

    May by Gods’ grace Puravaphalgunis be good in their function, let Hasta, and Chitra be favourable and Svati pleasant forme, Let the Radha, the plentiful Vishakha be easily caught in our grasp of knowledge. Let Anuradha and Jyestha be good stars and Mula be uninterrupted in its working.

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    Translation

    In this world, two groups of Purva-Phalguni may brityg good to me, and Hasta and Chitra may bring peace and Swati happiness to me. Both the Vishakha may give me success. May Anuradha be easy to communicate to me. May Jyeshtha be a good constellation for me. May Mula keep me free from evils and disease.

    Footnote

    (3-5) According to Maharshi Dayanand mere prayers don’t bring in anything, it is by active pursuits thereof that a man achieve his object. So these verses indicate the path by which men can obtain various things, while these constellations shine above them. It is not the heavenly bodies that shower gifts from above, but it is the serious efforts by men that may win them riches and prosperity. It is for the scientists and technicians to investigate the truths; revealed by the bombardment of cosmoramic rays or waves from the various constellations, e.g., the easy communications under the influence of cosmic rays from Krittika, Rohini and Anuradha. This clue may help safe sending of spaceships or radio messages. The increased production of food and energising articles may be facilitated by the cosmic influence of the radiation from Purva Ashadha and Uttara Ashadha, if agricultural engineers care to take up such researches. In fine, there is ample scope to carry on researches in many fields of science, taking clues from this sukta.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र में इन नक्षत्रों का वर्णन है। ९−पूर्वाफल्गुनी [पहिली फल्गुनी वा फल उत्पन्न करनेवाली, खाट की आकृति, दो तारापुञ्ज, ग्यारहवाँ नक्षत्र], १०−उत्तराफल्गुनी [पिछली फल्गुनी फल उत्पन्न करनेवाली, खाट की आकृति, दो तारापुञ्ज बारहवाँ नक्षत्र], ११−हस्त [हाथ की आकृति, पाँच तारापुञ्ज, तेरहवाँ नक्षत्र], १२−चित्रा [विचित्र वा अद्भुत, मोती समान उज्ज्वल, एक तारा, चौदहवाँ नक्षत्र], १३−स्वाति [अपने आप चलनेवाली कुंकुम समान लाल, एक तारा, पन्द्रहवाँ नक्षत्र], १४−विशाखा [विशेष शाखाओंवाली, इसका नाम (राधा) सिद्धि करनेवाली भी है, तोरण वा बड़े द्वार समान आकृति, चार तारापुञ्ज, सोलहवाँ नक्षत्र], १५−अनुराधा [राधा अर्थात् विशाखा के पीछे चलनेवाली, सर्प−आकृति, सात तारापुञ्ज, सत्तरहवाँ नक्षत्र], १६−ज्येष्ठा [सब से बड़ी वा श्रेष्ठ, सूअर के दाँत की आकृति, तीन तारापुञ्ज, अठारहवाँ नक्षत्र], १७−मूल [वा मूला अर्थात् जड़ समान दृढ़, सिंह पूछ-आकृति वा शंख मूर्ति, नव तारापुञ्ज, उन्नीसवाँ नक्षत्र] ॥ ३−(पुण्यम्) शुद्धं नक्षत्रम् (पूर्वा) पूर्वभवा (फल्गुन्यौ) अ० १४।१।१३। फलेर्गुक् च। उ० ३।५६। फल निष्पत्तौ−उनन्, गुक्-च, ङीप्। फलन्ति वृक्षा यत्र। पूर्वाफल्गुनी उत्तराफल्गुनी च द्वे। फल्गुनी प्रोष्ठपदानां च नक्षत्रे। पा० १।२।६०। इति द्विवचनं वा। खट्वाकृति तारकाद्वयात्मकमेकादशनक्षत्रम् (च) उत्तराफल्गुनी, पूर्ववत्, द्वादशनक्षत्रम् (अत्र) अस्मिन् नक्षत्रगणे (हस्तः) हसिमृग्रिण्०। उ० ३।८६। हस विकाशे-तन्। हस्ता। हस्ताकृति पञ्चतारात्मकं त्रयोदशनक्षत्रम् (चित्रा) चित्र लेख्ये अद्भुते च-अच्, टाप्। मुक्तावदुज्ज्वलमेकतारात्मकं चतुर्दशनक्षत्रम् (शिवा) मङ्गलकारिणी (स्वाति) स्व+अत सातत्यगमने-इन्, सोर्लुक्। स्वातिः। स्वेनैवाततीति कुङ्कुमसदृशारुणैकतारात्मकं पञ्चदशनक्षत्रम् (सुखः) सुखप्रदः (मे) मह्यम् (अस्तु) राधे राध्नोति साधयति कार्याणि, राध संसिद्धौ-अच्, टाप्। हे सिद्धिकारिके। एतद् विशाखा नक्षत्रस्य नामापि (विशाखे) वि+शाखृ व्याप्तौ-अच्, टाप्। विशिष्टाः शाखाः प्रकारा यस्याः सा तत्सम्बुद्धौ। तोरणाकारचतुस्तारामयं षोडशनक्षत्रम् (सुहवा) सुष्ठु आह्वातव्या (अनुराधा) राधां विशाखामनुगता। सर्पाकृति सप्ततारामयं सप्तदशनक्षत्रम् (ज्येष्ठा) सर्ववृद्धा सर्वश्रेष्ठा वा। शूकरदन्ताकृति तारात्रयात्मकम्, अष्टादशनक्षत्रम् (सुनक्षत्रम्) णक्ष गतौ-अत्रन्। शोभनं गमनशीलं नक्षत्रम् (अरिष्ट) रिष हिंसायाम्-क्त। विभक्तेर्लुक्। अरिष्टम्। अहिंसितम्। शुभम् (मूलम्) मूल प्रतिष्ठायाम्-क, यद्वा। मूशक्यविभ्यः क्लः। उ० ४।१०८। मूङ् बन्धने−क्ल, सिंहपुच्छाकारं शंखमूर्ति वा नवतारामयम्, ऊनविंशनक्षत्रम् ॥

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