अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
मा॒तुष्टे कि॑रणौ॒ द्वौ निवृ॑त्तः॒ पुरु॑षानृते। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठमा॒तु: । ते॒ । कि॑रणौ॒ । द्वौ । निवृ॑त्त॒: । पुरु॑षान् । ऋ॒ते । न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृत्तः पुरुषानृते। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठमातु: । ते । किरणौ । द्वौ । निवृत्त: । पुरुषान् । ऋते । न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मातुः ते) तुझ माता के (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (पुरुषान्) पुरुषों [शरीरधारी जीवों] को (ऋते) सत्य शास्त्र में (निवृत्तः) प्रकाशमान करते हैं। (कुमारि) हे कुमारी ! ........... [म० १] ॥२॥
भावार्थ
माता आदि से ही सुशिक्षा पाकर सब सन्तान पुरुषार्थी होते हैं। स्त्री आदि .......... [म० १] ॥२॥
टिप्पणी
२−(मातुः) जनन्याः (ते) तव, मातुः-इति पदेन समानाधिकरणम् (किरणौ) म० १। (द्वौ) (निवृत्तः) वृतु चुरादिः-भाषणे दीपने च+निवर्तयतः। नितरां दीपयतः (पुरुषान्) शरीरधारिणो जीवान् (ऋते) सत्यशास्त्रे। अन्यत् पूर्ववत्। म० १ ॥
विषय
माता के दो उपदेश
पदार्थ
१.हे जीव! (ते) = तेरी (मातुः) = इस वेदमाता की [स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पाबमानी द्विजानाम्] (द्वौ किरणौ) = प्रकाश की ये दो किरणें-प्रकृति-ज्ञान व जीव-कर्तव्यज्ञानरूप प्रकाश (पुरुषान्) = सब पुरुषों को (ऋते) = सत्य के विषय में-जो ठीक है उसके विषय में (निवृत्त:) = [वृतु भाषणे दीपने च] कहती हैं और दीस करती हैं, परन्तु तु माता के उस भाषण को सुनता नहीं, अतः तेरा जीवन दीप्त भी नहीं होता। २. हे (कुमारि) = विषयों में खेलनेवाले जीव! तू यह समझ ले कि (वै तत् तथा न) = निश्चय से यह विषयस्वरूप वैसा नहीं है, हे कुमारि। (यथा मन्यसे) = जैसा तू इसे समझ रही है।
भावार्थ
वेदमाता की प्रकाश की दो किरणें हमें अत के विषय में ज्ञान देकर दीस जीवनवाला बनाने के लिए यत्नशील हैं। संसार क्रीडारत होने पर हम उनकी ओर झुकते नहीं माता की बात को सुनते नहीं।
भाषार्थ
(किरणौ) विक्षेपक (द्वौ) दो अर्थात् रजस् और तमस्, जो कि (पुरुषानृते ते) पुरुष रहनेवाले अनृतरूप दो तत्त्व हैं वे, (मातुः) जगन्माता के दिये हुए हैं, (निवृत्तः) इसलिए उसी कि शक्ति द्वारा (निवृत्तः) ये दोनों विक्षेपक निवृत्त हो जाते हैं—(कुमारि) हे कुमारी! (वै) निश्चय है कि (तत्) वह तेरा कथन (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि (कुमारि मन्यसे) हे कुमारि! तू मानती है।
टिप्पणी
[मन्त्र २०.१३३.१ में कुमारी का यह अभिप्राय का यह अभिप्राय है कि परमपुरुष परमेश्वर हम सबका पिता है, रक्षक है। इसलिए रक्षक होने के कारण वह हमारे रजस् तमस् को पीस डालेगा, ताकि दुःखों से हमारी रक्षा हो सके। और मन्त्र २०.१३३.२ में कुमारी का यह अभिप्राय है कि परमेश्वर मातृरूप है। माता करुणामयी होती है, अतः करुणामयी जगन्माता निज स्वाभाविक करुणा द्वारा रजस् तमस् को निवृत्त कर देगी। अनृते=रजस् और तमस् अनृतरूप हैं, ऋत अर्थात् सत्यमार्ग के विरोधी हैं, तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा को ये प्रकट नहीं होने देते। ते=अनृते]
इंग्लिश (4)
Subject
Kumari
Meaning
Well, the two streams of fluctuation flow from your Mother Nature herself. And of those two tortuous, ultimately unreal and confusive streams, man is relieved by Mother Nature herself in the natural course. No, innocent maiden, it is not so as you think and believe. (Nature has no absolute will of her own. She gives you the field for play by a higher law, only that.)
Translation
The manifestation of the two observer and the observable in this world have come materialized from the All-pervading God (Purusha) who is your creator. O maiden it is not so as you. O maiden, fancy.
Translation
The manifestation of the two observer and the observable in this world have come materialized from the All-pervading God (Purusha) who is your creator. O maiden it is not so as you. O maiden, fancy.
Translation
All the above pairs;—the heaven and the earth, husband and wife, the matter and the soul, are moved into action by the ordaining and All-powerful God, but they are quite different from Him. O virgin, . ... . it.” (as above).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(मातुः) जनन्याः (ते) तव, मातुः-इति पदेन समानाधिकरणम् (किरणौ) म० १। (द्वौ) (निवृत्तः) वृतु चुरादिः-भाषणे दीपने च+निवर्तयतः। नितरां दीपयतः (पुरुषान्) शरीरधारिणो जीवान् (ऋते) सत्यशास्त्रे। अन्यत् पूर्ववत्। म० १ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
স্ত্রীণাং কর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(মাতুঃ তে) মাতা তোমার (দ্বৌ) উভয় (কিরণৌ) প্রকাশ রশ্মি [শারীরিক বল এবং আত্মিক পরাক্রম] (পুরুষান্) পুরুষদের [শরীরধারী জীবদের] (ঋতে) সত্য শাস্ত্র দ্বারা (নিবৃত্তঃ) প্রকাশমান করে। (কুমারি) হে কুমারী! ........... [ম০ ১] ॥২॥
भावार्थ
মাতা আদির কাছ থেকে সুশিক্ষা প্রাপ্ত করে সকল সন্তান পুরুষার্থী হয়। স্ত্রী আদি.......... [ম০ ১] ॥২॥
भाषार्थ
(কিরণৌ) বিক্ষেপক (দ্বৌ) দুই অর্থাৎ রজস্ এবং তমস্, যা (পুরুষানৃতে তে) পুরুষ অনৃতরূপ দুই তত্ত্ব তা, (মাতুঃ) জগন্মাতা দ্বারা প্রদত্ত, (নিবৃত্তঃ) এইজন্য উনার শক্তি দ্বারা (নিবৃত্তঃ) এই দুই বিক্ষেপক নিবৃত্ত হয়ে যায় —(কুমারি) হে কুমারী! (বৈ) নিশ্চিতরূপে (তৎ) সেই তোমার কথন (ন তথা) তথ্য নয়, (যথা) যেমন (কুমারি মন্যসে) হে কুমারি! তুমি মান্য করো।
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