अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 4
उ॑त्ता॒नायै॑ शया॒नायै॒ तिष्ठ॑न्ती॒ वाव॑ गूहसि। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ता॒नायै॑ । शया॒नायै॒ । तिष्ठ॑न्ती॒ । वा । अव॑ । गूहसि: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तानायै शयानायै तिष्ठन्ती वाव गूहसि। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठउत्तानायै । शयानायै । तिष्ठन्ती । वा । अव । गूहसि: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(उत्तानायै) बड़े उपकारवाली नीति के लिये (तिष्ठन्ती) ठहरती हुई (शयानायै) सोती हुई [आलस्यवाली] रीति को (वा) निश्चय करके (अव) निरादर करके (गूहसि) ढाँप देती है। (कुमारि) हे कुमारी ....... [म० १] ॥४॥
भावार्थ
स्त्री आदि अपनी चतुराई से कुरीतें छोड़कर सुरीतें चलावें, स्त्री आदि ................ [म० १] ॥४॥
टिप्पणी
४−(उत्तानायै) उत्+तनु विस्तारे श्रद्धोपकारादिषु च-घञ्। उत्तमोपकारायुक्तायै नीतये (शयानाय) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। शीङ् शयने-आनच्। टाप्। सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। द्वितीयार्थे चतुर्थी। प्राप्तनिद्राम्। आलस्ययुक्तां रीतिम् (तिष्ठन्ती) वर्तमाना त्वम् (वा) अवधारणे (अव) अनादरे। अनादृत्य (गूहसि) गुहू संवरणे। आच्छादयसि। अन्यत्-म० १ ॥
विषय
उत्ताना Vs शयाना' चित्तवृत्ति
पदार्थ
१. (उत्तानायै) = [Elevated, Candid] उत्कृष्ट-छल-छिद्र-शून्य चित्तवृत्ति के लिए (तिष्ठन्ती) = स्थित होती हुई तू (वा) = निश्चय से (शयानायै) = आलस्य में शयन करनेवाली चित्तवृत्ति के लिए (अवगूहसि) = अपने को संवृत कर लेती है-छिपा लेती है [Conceal] | शयाना चित्तवृत्ति का तू शिकार नहीं होती। २. हे कुमारि! यह त सदा ध्यान रखना कि (वै) = निश्चय से (तत् तथा न) = यह संसार वैसा नहीं, हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसा तू इसे मानती है।
भावार्थ
हम संसार में विलासों की चमक से बचकर उत्कृष्ट व छल-छिद्र-शून्य जीवन को अपनाएँ। आलस्यमयी भोगप्रवण चित्तवृत्ति को दूर रक्खें।
भाषार्थ
हे कुमारी! (उत्तानायै) पीठ पर लेटी हुई, (शयानायै) या निद्रावस्था के रूप में, (वा तिष्ठन्ती) या बैठी हुई या खड़ी हुई तू (अवगूहसि) चित्तवृत्तियों का निरोध करती है। (कुमारि) हे कुमारी (वै) निश्चय से (तत्) तेरा वह कथन या मानना (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि तू (कुमारि) हे कुमारी! (मन्यसे) मानती है।
टिप्पणी
[योगदर्शन में चित्त की स्थिरता के लिए कई मार्ग दर्शाए हैं। उन मार्गों में “स्वप्नज्ञान” और “निद्रा-ज्ञान” का अवलम्बन (योग १.३८); तथा “यथाभिमतध्यान” को भी साधन माना है (योग १.३९)। कुमारी का अभिप्राय इन साधनों से है। मन्त्र का अभिप्राय है कि यत्कचित् स्थिरता के लिए ये साधन उपकारी तो हो सकते हैं, परन्तु राजसिक तथा तामसिक वृत्तियों का पूर्ण निरोध तो विना ध्यान और वैराग्य के सम्भव नहीं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारण के पश्चात्, “ध्यान” की स्थिति सम्भव है। इसलिए कुमारी का कथन ठीक नहीं।]
इंग्लिश (4)
Subject
Kumari
Meaning
Abiding and stabilising yourself whether for the expansive as express. Release and freedom, innocent maiden, is not possible the way you think and believe.
Translation
O Divine Power. You standing as an intermediate agency cover or restore the matter for both the stages—the heterogenous (Uttanayai) and homogenous (Shayanayai) O maiden-fancy.
Translation
O Divine Power. You standing as an intermediate agency cover or restore the matter for both the stages—the heterogenous (Uttanayai) and homogenous (Shayanayai) O maiden-…fancy.
Translation
O Almighty God, Thou embraces (i.e., pervades) the Prakriti lying flat, upward, while standing erect thyself (i.e., God even in His stationary (unmoved) state is the pervader of the matter lying low at His feet. O virgin, .. .it. (as above).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(उत्तानायै) उत्+तनु विस्तारे श्रद्धोपकारादिषु च-घञ्। उत्तमोपकारायुक्तायै नीतये (शयानाय) सम्यानच् स्तुवः। उ० २।८९। शीङ् शयने-आनच्। टाप्। सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। द्वितीयार्थे चतुर्थी। प्राप्तनिद्राम्। आलस्ययुक्तां रीतिम् (तिष्ठन्ती) वर्तमाना त्वम् (वा) अवधारणे (अव) अनादरे। अनादृत्य (गूहसि) गुहू संवरणे। आच्छादयसि। अन्यत्-म० १ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
স্ত্রীণাং কর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(উত্তানায়ৈ) উত্তম উপকারী/কল্যাণকর নীতির জন্য (তিষ্ঠন্তী) বর্তমানে স্থিত (শয়ানায়ৈ) শায়িত [আলস্যযুক্ত] রীতিকে (বা) নিশ্চিতভাবে (অব) অনাদরে (গূহসি) আচ্ছাদিত করে। (কুমারি) হে কুমারী....... [ম০ ১] ॥৪॥
भावार्थ
স্ত্রী আদি নিজের চাতুর্য দ্বারা কুরীতি ত্যাগ করে উত্তম রীতিতে চলুক, স্ত্রী আদি ................ [ম০ ১] ॥৪॥
भाषार्थ
হে কুমারী! (উত্তানায়ৈ) পিঠের ওপর শায়িত, (শয়ানায়ৈ) বা নিদ্রাবস্থার রূপে, (বা তিষ্ঠন্তী) বা স্থিত/বর্তমান তুমি (অবগূহসি) চিত্তবৃত্তির নিরোধ করো। (কুমারি) হে কুমারী (বৈ) নিশ্চিতরূপে (তৎ) তোমার সেই কথন বা মান্যতা (ন তথা) তথ্য নয়, (যথা) যেমন/যেরূপ তুমি (কুমারি) হে কুমারী! (মন্যসে) মান্য করো।
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