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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१
    7

    उ॒त स्म॒ सद्म॑ हर्य॒तस्य॑ प॒स्त्योरत्यो॒ न वाजं॒ हरि॑वाँ अचिक्रदत्। म॒ही चि॒द्धि धि॒षणाह॑र्य॒दोज॑सा बृ॒हद्वयो॑ दधिषे हर्य॒तश्चि॒दा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्म॒ । सद्म॑ । ह॒र्य । त॒स्य॑ । प॒स्त्यो॑: । न । वाज॑म् । हरि॑ऽवान् । अ॒चि॒क्र॒दत् ॥ म॒ही । चि॒त् । हि । धि॒ष्णा॑ । अह॑र्यत् । ओज॑सा । बृ॒हत् । वय॑: । द॒धि॒षे॒ । ह॒र्य॒त: । चि॒त् । आ ॥३१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्म सद्म हर्यतस्य पस्त्योरत्यो न वाजं हरिवाँ अचिक्रदत्। मही चिद्धि धिषणाहर्यदोजसा बृहद्वयो दधिषे हर्यतश्चिदा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । स्म । सद्म । हर्य । तस्य । पस्त्यो: । न । वाजम् । हरिऽवान् । अचिक्रदत् ॥ मही । चित् । हि । धिष्णा । अहर्यत् । ओजसा । बृहत् । वय: । दधिषे । हर्यत: । चित् । आ ॥३१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (हर्यतस्य) कामनायोग्य [उस पूर्वोक्त पुरुष] का (सद्म) घर (उत स्म) अवश्य ही (पस्त्योः) आकाश और पृथिवी में [हुआ है] और (हरिवान्) उत्तम पुरुषोंवाले [उस पुरुष] ने (अत्यः न) घोड़े के समान (वाजम्) अन्न को (अचिक्रदत्) पुकारा है−(मही) पूजनीय (धिषणा) वेदवाणी ने (चित्) अवश्य (हि) ही (ओजसा) बल के साथ [यह] (अहर्यत्) कामना की है। [इसी से] (हर्यतः) कामनायोग्य तूने (चित्) भी (बृहत्) बड़े (वयः) जीवन को (आ) सब ओर से (दधिषे) धारण किया है ॥॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पूर्वोक्त प्रकार से वेदवाणी को मानकर बलवान् और पराक्रमी होता है, वही आकाश और भूमि पर राज्य करके बहुत अन्न प्राप्त करता है, वैसा ही प्रत्येक मनुष्य को अपना जीवन बनाना चाहिये ॥॥

    टिप्पणी

    −(उत) अवश्यम् (स्म) एव (सद्म) गृहम् (हर्यतस्य) कमनीयस्य (पस्त्योः) जनेर्यक्। उ०४।१११। पस बाधे ग्रन्थे च-यक्, तुगागमः। पस्त्यं गृहनाम-निघ–०३।४। द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अत्यः) अ०२०।११।९। अश्वः (न) यथा (वाजम्) अन्नम् (हरिवान्) हरयो मनुष्यनाम-निघ०२।३। उत्तममनुष्योपेतः (अचिक्रदत्) अ०३।३।१। क्रदि आह्वाने-ण्यन्ताल् लुङ्, नुमभावः। आहूतवान् (मही) पूजनीया (चित्) अवश्यम् (हि) (धिषणा) धृषेर्धिष च सञ्ज्ञायाम्। उ०२।८२। इति ञिधृषा प्रागल्भे-क्यु, धिषादेश्च। यद्वा, धिष शब्दे-क्यु, टाप्, धिषणा वाङ्नाम-निघ०१।११। वेदवाणी (अहर्यत्) अकामयत (ओजसा) बलेन (बृहत्) महत् (वयः) जीवनम् (दधिषे) दधातेः लिट्। त्वं धारितवानसि (हर्यतः) कमनीयः (चित्) अपि (आ) समन्तात् ॥

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    विषय

    पूजा-प्रकाश-ओज

    पदार्थ

    १. (उत) = और (हरिवान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोवाला पुरुष (हर्यतस्य) = गति देनेवाले कान्त सोम के (पस्त्योः) = द्यावापृथिवी में-मस्तिष्क व शरीर में सब-गृह को-निवासस्थान को (अचिक्रदत् स्म) = प्रार्थित करता है। उसी प्रकार प्रार्थित करता है (न) = जैसेकि अत्यः सतत गमनशील (अश्व वाजम्) = संग्राम को चाहता है। २. सोम का मस्तिष्क व शरीर में निवास स्थान बनानेवाले इस पुरुष की मही चित्-निश्चय से उपासना की मनोवृत्तिवाली (धिषणा) = बुद्धि (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (आहर्यत्) = उस प्रभु की ओर गतिवाली होती है। हदय को उपासनावाला, मस्तिष्क को ज्ञान के प्रकाशवाला व शरीर को ओजस्वी बनाकर यह प्रभु की ओर चलता है। इस हर्यतः गतिमय कान्त जीवनवाले पुरुष के (बृहद् वयः) = उत्कृष्ट जीवन को हे प्रभो! आप ही (चित्) = निश्चय से (दधिषे) = धारण करते हैं।

    भावार्थ

    हम सोम को शरीर में सुरक्षित करके उत्तम मस्तिष्क व शरीर को प्राप्त करें। उपासना, ज्ञान व ओज को धारण करते हुए प्रभु की ओर चलें। प्रभु हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराएंगे। अगले सूक्त के ऋषि-देवता पूर्ववत् ही हैं -

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    भाषार्थ

    (उत) सब (पस्त्यः) गृहवासी (न) जैसे (सद्म) अपने निवासगृह की (अचिक्रदत्) बार-बार प्रशंसा करता है, वैसे (हरिवान्) हरि का भक्त उपासक (अत्यः) अश्व के सदृश सक्रिय होकर (हर्यतस्य) काम्य परमेश्वर की (वाजम्) शक्तियों का (अचिक्रदत्) बार-बार कथन करता है। तब (धिषणा) उपासक की वाणी (ओजसा) ओजस्विनी होकर (अहः) दिन प्रतिदिन (मही चित् हि) पूजनीया होती जाती है। (यद्) जबकि हे उपासक! तू (हर्यतः) काम्य-परमेश्वर के (बृहद् वयः) महान् आनन्दरसरूपी अन्न को (चिदा) ज्ञान से (दधिषे) अपने में धारण कर लेता है।

    टिप्पणी

    [हर्यतः=हर्य+शतृ। पस्त्यः=पस्त्यम् (=गृह, निघं ३.४)। पस्त्यः, अशाद्यिच्=गृहस्वामी।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Potent and charming Indra pervades the regions of heaven and earth as his home and with his power and presence roars like a hero going to war. With his might he wields both the great earth and the refulgent heaven, loves them and bears abundant food, strength and joy for life there.

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    Translation

    The body of this soul which is the home of the organic and vital system calls for the grain as the horse carrying man which is for grain-food. The great intellectual power likes its objects with great vigour. This luminous soul acquires great power and maintenance.

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    Translation

    The body of this soul which is the home of the organic and vital system calls for the grain as the horse carrying man which is for grain-food. The great intellectual power likes its objects with great vigor. This luminous soul acquires great power and maintenance.

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    Translation

    The man, equipped with the two forces of attraction and repulsion gains speed like that of a horse and makes his abode on the beautiful earth and heavens alike. The vast earth likes to be owned by the high energy of such a person and bears plenteous food-grains for such an energetic person.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(उत) अवश्यम् (स्म) एव (सद्म) गृहम् (हर्यतस्य) कमनीयस्य (पस्त्योः) जनेर्यक्। उ०४।१११। पस बाधे ग्रन्थे च-यक्, तुगागमः। पस्त्यं गृहनाम-निघ–०३।४। द्यावापृथिव्योर्मध्ये (अत्यः) अ०२०।११।९। अश्वः (न) यथा (वाजम्) अन्नम् (हरिवान्) हरयो मनुष्यनाम-निघ०२।३। उत्तममनुष्योपेतः (अचिक्रदत्) अ०३।३।१। क्रदि आह्वाने-ण्यन्ताल् लुङ्, नुमभावः। आहूतवान् (मही) पूजनीया (चित्) अवश्यम् (हि) (धिषणा) धृषेर्धिष च सञ्ज्ञायाम्। उ०२।८२। इति ञिधृषा प्रागल्भे-क्यु, धिषादेश्च। यद्वा, धिष शब्दे-क्यु, टाप्, धिषणा वाङ्नाम-निघ०१।११। वेदवाणी (अहर्यत्) अकामयत (ओजसा) बलेन (बृहत्) महत् (वयः) जीवनम् (दधिषे) दधातेः लिट्। त्वं धारितवानसि (हर्यतः) कमनीयः (चित्) अपि (आ) समन्तात् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থকরণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (হর্যতস্য) কামনাযোগ্য [সেই পূর্বোক্ত পুরুষ] এর (সদ্ম) ঘর (উত স্ম) অবশ্যই (পস্ত্যোঃ) আকাশ ও পৃথিবীতে [হয়েছে] এবং (হরিবান্) উত্তম পুরুষযুক্ত [সেই পুরুষ] (অত্যঃ ন) ঘোড়ার ন্যায় (বাজম্) অন্নকে (অচিক্রদৎ) আহ্বান করেছে −(মহী) পূজনীয় (ধিষণা) বেদবাণী (চিৎ) অবশ্য (হি)(ওজসা) বলপূর্বক [এই] (অহর্যৎ) কামনা করেছে। (হর্যতঃ) কামনাযোগ্য তুমি (চিৎ)(বৃহৎ) বৃহৎ (বয়ঃ) জীবনকে (আ) সকল দিক থেকে (দধিষে) ধারণ করেছো॥৫॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য পূর্বোক্ত প্রকারে বেদবাণী মান্য করে বলবান ও পরাক্রমী হয়, সেই মনুষ্যই আকাশ ও ভূমিতে রাজ্য করে বহু অন্ন প্রাপ্ত করে, তেমনই প্রত্যেক মনুষ্যের উচিত, নিজের জীবন তৈরী করা ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (উত) সকল (পস্ত্যঃ) গৃহবাসী (ন) যেমন (সদ্ম) নিজের নিবাসগৃহের (অচিক্রদৎ) বার-বার প্রশংসা করে, তেমনই (হরিবান্) হরির ভক্ত উপাসক (অত্যঃ) অশ্বের সদৃশ সক্রিয় হয়ে (হর্যতস্য) কাম্য পরমেশ্বরের (বাজম্) শক্তির (অচিক্রদৎ) বার-বার কথন করে। তখন (ধিষণা) উপাসকের বাণী (ওজসা) ওজস্বিনী/তেজস্বিনী হয়ে (অহঃ) দিন প্রতিদিন (মহী চিৎ হি) পূজনীয়া হতে থাকে। (যদ্) যদ্যপি হে উপাসক! তুমি (হর্যতঃ) কাম্য-পরমেশ্বরের (বৃহদ্ বয়ঃ) মহান্ আনন্দরসরূপী অন্নকে (চিদা) জ্ঞান দ্বারা (দধিষে) নিজের মধ্যে ধারণ করে নাও।

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