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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३२
    1

    अपाः॒ पूर्वे॑षां हरिवः सु॒ताना॒मथो॑ इ॒दं सव॑नं॒ केव॑लं ते। म॑म॒द्धि सोमं॒ मधु॑मन्तमिन्द्र स॒त्रा वृ॑षं ज॒ठर॒ आ वृ॑षस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपा॑: । पूर्वे॑षाम् । ह॒रि॒ऽव॒: । सु॒ताना॑म् । अथो॒ इति॑ । इ॒दम् । सव॑नम् । केव॑लम् । ते॒ ॥ म॒म॒ध्दि । सोम॑म् । मधु॑ऽमन्तम् । इ॒न्द्र॒ । स॒त्रा । वृ॒ष॒न् । ज॒ठरे॑ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥३२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाः पूर्वेषां हरिवः सुतानामथो इदं सवनं केवलं ते। ममद्धि सोमं मधुमन्तमिन्द्र सत्रा वृषं जठर आ वृषस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपा: । पूर्वेषाम् । हरिऽव: । सुतानाम् । अथो इति । इदम् । सवनम् । केवलम् । ते ॥ ममध्दि । सोमम् । मधुऽमन्तम् । इन्द्र । सत्रा । वृषन् । जठरे । आ । वृषस्व ॥३२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (हरिवः) हे उत्तम मनुष्योंवाले ! [राजन्] तूने (पूर्वेषाम्) पहिले महात्माओं के (सुतानाम्) निचोड़ों [सिद्धान्तों] का (अपाः) पान किया है, (अथो) इसीलिये (इदम्) यह (सवनम्) ऐश्वर्य (केवलम्) केवल (ते) तेरा है। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (मधुमन्तम्) ज्ञानयुक्त (सोमम्) ऐश्वर्य को (ममद्धि) तृप्त कर और (वृषन्) हे बलवान् ! (सत्रा) सत्य रीति से (जठरे) प्रसिद्ध हुए जगत् के बीच (आ) सब ओर से (वृषस्व) बरसा ॥३॥

    भावार्थ

    राजा पूर्व महात्माओं के सिद्धान्तों पर चलकर ऐश्वर्य प्राप्त करे और उसका सत्प्रयोग करके संसार को सुख देवे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अपाः) पीतवानसि (पूर्वेषाम्) पूर्वमहात्मनाम् (हरिवः) अ०२०।३१।। हे श्रेष्ठमनुष्ययुक्त (सुतानाम्) निष्पादितानां सिद्धान्तानाम् (अथो) अपि च (इदम्) दृश्यमानम् (सवनम्) ऐश्वर्यम् (केवलम्) असाधारणम्। विशेषम् (ते) तव (ममद्धि) मदी आमोदे-शपः श्लुः। हर्षय। तर्पय (सोमम्) ऐश्वर्यम् (मधुमन्तम्) ज्ञानयुक्तम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (सत्रा) निघ०३।१०। सत्येन (वृषन्) हे महाबलवन् (जठरे) अ०२०।२४।। प्रादुर्भूते जगति (आ) समन्तात् (वृषस्व) वर्षय ॥

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    विषय

    मधुर व शक्तिशाली जीवन

    पदार्थ

    १. हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले जीव! तूने (पूर्वेषाम्) = इन पालन व पूरण करनेवाले (सुतानाम्) = उत्पन्न हुए-हुए सोमकणों का (अपा:) = पान किया है। (अथ उ) = और निश्चय से (इदं सवनम्) = यह सोम का उत्पादन (केवलं ते) = शुद्ध तेरे ही उत्कर्ष के लिए है। २. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (मधुमन्तं सोमम्) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाले इस सोम को (ममद्धि) = [पिब सा०] पीनेवाला बन-इसे शरीर में ही व्याप्त कर। हे (वृषन्) = शक्तिशालिन्! तू (सत्रा) = सदा (जठरे) = अपने अन्दर (आवृषस्व) = इस सोम का सेचन करनेवाला बन।

    भावार्थ

    शरीर में उत्पन्न किये गये सोमकणों का शरीर में रक्षण होने पर ही जीवन मधुर व शक्तिशाली बनता है। सोम-रक्षण द्वारा शरीरस्थ 'पाँचों भूतों व मन, बुद्धि, अहंकार' इन आठों को ठीक रखनेवाला यह व्यक्ति 'अष्टक' बनता है। यह सोम-रक्षण के महत्त्व को इसप्रकार प्रकट करता है।

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    भाषार्थ

    (हरिवः) हे इन्द्रियाश्वों के स्वामी! आपने (पूर्वेषाम्) अनादिकाल से उपासकों के (सुतानाम्) भक्तिरसों का (अपाः) पान किया है। (अथो) अब (इदम्) यह (सवनम्) हमारा भक्तिरस भी (केवलं ते) केवल आपके लिए ही है। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (मधुमन्तम्) मधुर (सोमम्) भक्तिरस को (ममद्धि) प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कीजिए। और (सत्रा) वास्तव में (वृषम्) बलप्रद आनन्दरस को (जठरे) हम वृद्ध-उपासकों पर (आ वृषस्व) बरसाइए।

    टिप्पणी

    [सत्रा=सत्यम् (निघं০ ३.१०)।]

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति।

    भावार्थ

    हे (हरिवः) हरणशील प्रलयकारिणी शक्तियों से सम्पन्न ! तू (पूर्वेषां सुतानाम्) पूर्व उत्पन्न किये समस्त जगतों को और पूर्व काल में ज्ञान सम्पन्न जीवात्माओं को भी (अपाः) अपनी शरण ले चुका है। अपने में प्रलीन कर चुका है। (इदं सवनं) यह इस प्रकार का (सवन) स्वीकार करना (ते केवलम्) केवल तुम्हें ही शोभा देता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (मधुमन्तं सोमम्) मधु, अमृत रस से युक्त (सोम) सोम जीव को अमृत ब्रह्मानन्द रस वाले ब्रह्मवित् जीव को (ममद्धि) तू स्वीकार कर। (सत्रा) एक साथ ही (वृध) उस सुख के वर्धक, धर्ममेघ रूप योगी आत्मा को (जठरे) अपने भीतर (आवृषस्व) जल के समान डाल ले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुः सर्वहरिवेन्द्रः। हरिस्तुतिः। १ जगती। २, ३ त्रिष्टुभौ। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Indra, lord of light divine and solar radiations, you have drunk of the soma of the ancients of earliest sessions. This yajna session and the soma extracted in here is only for you. O lord of generous showers in this session, pray, drink of the honey sweet soma of our love and faith and let the showers of bliss flow and fill the skies and space unto the depth of our heart.

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    Translation

    O possessor of all intellectual powers (Harivah), please guard previously acquired intellectual attainments and this constructive act is only yours. Yoy accept this sweet juice of herbacious plant and pour this strengthening juice in your belly.

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    Translation

    O possessor of all intellectual powers (Harivah), please guard previously acquired intellectual attainments and this constructive act is only yours. You accept this sweet juice of herbaceous plant and pour this strengthening juice in your belly.

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    Translation

    O Almighty Lord, fully equipped with powers of destruction, thou-hast already taken into Thy shelter the previous creations. This created universe is also Thine alone. Letst Thee cherish this immortal soul, engulfed in Thy bliss. Lets! Thee pour this Dharm-megh yogi into Thy belly of beatitude.

    Footnote

    God being formless has no belly or other organs. It is a figurative language to describe the enruptured state of a mukta yogi.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अपाः) पीतवानसि (पूर्वेषाम्) पूर्वमहात्मनाम् (हरिवः) अ०२०।३१।। हे श्रेष्ठमनुष्ययुक्त (सुतानाम्) निष्पादितानां सिद्धान्तानाम् (अथो) अपि च (इदम्) दृश्यमानम् (सवनम्) ऐश्वर्यम् (केवलम्) असाधारणम्। विशेषम् (ते) तव (ममद्धि) मदी आमोदे-शपः श्लुः। हर्षय। तर्पय (सोमम्) ऐश्वर्यम् (मधुमन्तम्) ज्ञानयुक्तम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (सत्रा) निघ०३।१०। सत्येन (वृषन्) हे महाबलवन् (जठरे) अ०२०।२४।। प्रादुर्भूते जगति (आ) समन्तात् (वृषस्व) वर्षय ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (হরিবঃ) হে উত্তম মনুষ্যযুক্ত ! [রাজন্] তুমি (পূর্বেষাম্) পূর্ব মহাত্মাদের (সুতানাম্) নিষ্পাদিত রস [সিদ্ধান্ত] (অপাঃ) পান করেছো, (অথো) এইজন্য (ইদম্) এই (সবনম্) ঐশ্বর্য (কেবলম্) কেবল (তে) তোমার। (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান রাজন্] (মধুমন্তম্) জ্ঞানযুক্ত (সোমম্) ঐশ্বর্য (মমদ্ধি) তৃপ্ত করো এবং (বৃষন্) হে বলবান্ ! (সত্রা) সত্য রীতি দ্বারা (জঠরে) প্রসিদ্ধ জগৎ মধ্যে (আ) সকল দিক হতে (বৃষস্ব) বর্ষন করো॥৩॥

    भावार्थ

    রাজা পূর্বমহাত্মাদের সিদ্ধান্তানুসারে ঐশ্বর্য প্রাপ্ত করে/করুক এবং সৎ প্রয়োগ করে সংসারকে সুখী করে/করুক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (হরিবঃ) হে ইন্দ্রিয়াশ্বের স্বামী! আপনি (পূর্বেষাম্) অনাদিকাল থেকে উপাসকদের (সুতানাম্) ভক্তিরস (অপাঃ) পান করেন। (অথো) এখন (ইদম্) এই (সবনম্) আমাদের ভক্তিরসও (কেবলং তে) কেবল আপনার জন্যই। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (মধুমন্তম্) মধুর (সোমম্) ভক্তিরস (মমদ্ধি) প্রসন্নতাপূর্বক স্বীকার করুন। এবং (সত্রা) বাস্তবে (বৃষম্) বলপ্রদ আনন্দরস (জঠরে) আমাদের বৃদ্ধ-উপাসকদের ওপর (আ বৃষস্ব) বর্ষণ করুন।

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