अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
तमु॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरो॒ नव॑ग्वाः स॒प्त विप्रा॑सो अ॒भि वा॒जय॑न्तः। न॑क्षद्दा॒भं ततु॑रिं पर्वते॒ष्ठामद्रो॑घवाचं म॒तिभिः॒ शवि॑ष्ठम् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊं॒ इति॑ । न॒: । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । नव॑ऽग्वा: । स॒प्त । विप्रा॑स: । अ॒नि । वा॒जय॑न्त: ॥ न॒क्ष॒त्ऽदा॒भम् । ततु॑रिम् । प॒र्व॒ते॒ऽस्थाम् । अद्रो॑घऽवाचम् । म॒तिऽभि॑: । शवि॑ष्ठम् ॥३६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु नः पूर्वे पितरो नवग्वाः सप्त विप्रासो अभि वाजयन्तः। नक्षद्दाभं ततुरिं पर्वतेष्ठामद्रोघवाचं मतिभिः शविष्ठम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ऊं इति । न: । पूर्वे । पितर: । नवऽग्वा: । सप्त । विप्रास: । अनि । वाजयन्त: ॥ नक्षत्ऽदाभम् । ततुरिम् । पर्वतेऽस्थाम् । अद्रोघऽवाचम् । मतिऽभि: । शविष्ठम् ॥३६.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(नवग्वाः) स्तुतियोग्य चरित्रवाले, (सप्त) सात (विप्रासः) [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन, और बुद्धि] व्यापनशील इन्द्रियों के समान (नः) हमारे (पूर्वे) पहिले (पितरः) पितृजन (तम्) उस (उ) ही (नक्षद्दाभम्) व्याप्त दोषों के नाश करनेवाले, (ततुरिम्) दुःखों से तारनेवाले, (पर्वतेष्ठाम्) मेघ में वर्तमान [बिजुली के समान शुद्ध स्वरूप], (अद्रोघवाचम्) द्रोहरहित वाणीवाले, (मतिभिः) बुद्धियों के साथ (शविष्ठम्) अत्यन्त बली [परमात्मा] को (अभि) सब ओर से (वाजयन्तः) जताते हुए हैं ॥॥२॥
भावार्थ
जिस अनादि अनन्त परमात्मा की उपासना योगी जन सदा करते हैं, उसका ध्यान करके सब मनुष्य आनन्द पावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(तम्) प्रसिद्धम् (उ) एव (पूर्व) प्राचीनाः (पितरः) पालकजनाः विद्वांसः (नवग्वाः) अ०१४।१।६। णु स्तुतौ-अप्+गम्लृ गतौ ड्वप्रत्ययः। स्तोतव्यचरित्राः (सप्त) सप्तसंख्याकाः (विप्रासः) विप्राणां व्यापनकर्मणामिन्द्रियाणाम्-निरु०१४।१३। व्यापनकर्माणीन्द्रियाणि यथा। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। सप्त ऋषयः-अ०४।११।९। (अभि) सर्वतः (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः सन्ति (नक्षद्दाभम्) नक्षतिर्व्याप्तिकर्मा-निघ०२।१८-शतृ, दभ्नोतीति वधकर्मा-निघ०२।१९। नक्षत्+दम्भु दम्भे हनने-अण्, नलोपश्छान्दसः। व्याप्नुवतां दोषाणां नाशकम् (ततुरिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा०३।२।१७१। तॄ प्लवनतरणयोः, अन्तर्गतण्यर्थः। किन्। बहुलं छन्दसि। पा०७।१।१०३। इत्युत्वम्। दुःखेभ्यस्तारयितारम् (पर्वतेष्ठाम्) पर्वते मेघे स्थितां विद्युतमिव शुद्धस्वरूपम्-इति दयानन्दभाष्ये (अद्रोघवाचम्) अ०६।१।२। द्रोहरहितवाग्युक्तम्। कल्याणवाणीम् (मतिभिः) बुद्धिभिः (शविष्ठम्) अतिशयेन बलवन्तम् ॥
विषय
कौन प्रभु को प्राप्त करते हैं?
पदार्थ
१. (न:) = हममें (ते पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले, (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त [पा रक्षणे], (नवग्वाः) = स्तुत्यगतिवाले, (सप्तविप्रास:) = 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' इन स्तोता ऋषियों का अपने में पूर्ण करनेवाले लोग तम् उ-उस परमात्मा को ही (अभिवाजयन्तः) = अपने को [गमयन्तः] प्राप्त कराते हैं। इनका लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति ही होता है। प्रभु को प्राप्त करने के उद्देश्य से ही ये अपना पूरण करते हैं [पूर्वे], रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत होते हैं [पितरः], स्तुत्यगतिवाले बनते हैं [नवग्व] और शरीर में सप्त ऋषियों का पुरण करते हैं [ससविनासः] ३. उस प्रभु को पाना ये अपना ध्येय बनाते हैं जोकि '(नक्षहाभम्) = अभिगमन शत्रुओं का हिंसन करते हैं, (ततुरिम्) = दुस्तर भवसागर से तराते हैं, (पर्वतेष्ठम्) = अपना पूरण करनेवालों में स्थित होते हैं अथवा (अविद्या) = पर्वत को पाँव तले रौंद डालते हैं, (अद्रोषवाचम्) = द्रोहशुन्य ज्ञान की वाणियोंवाले हैं तथा (मतिभि:) = बुद्धियों के साथ (शविष्ठम्) = अतिशयेन बलवान् हैं। अपने उपासकों को भी प्रभु बुद्धि व बल प्राप्त कराते है।
भावार्थ
प्रभु-प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य बनाकर हम अपने जीवनों को प्रशस्त बनाएँ। प्रभु हमें बुद्धि व शक्ति प्राप्त कराएँगे। हम शत्रुओं का संहार करते हुए भवसागर को पार कर पाएंगे।
भाषार्थ
(नक्षद्-दाभम्) दम्भियों में भी व्याप्त, (ततुरिम्) शीघ्र फल-प्रदाता, (पर्वतेष्ठाम्) अपने व्रतों में पर्वत के सदृश सुदृढ़ उपासकों में स्थित पाये हुए, (अद्रोघवाचम्) जिसकी वेदवाणी किसी के साथ द्रोह करना नहीं सिखाती, (मतिभिः) ज्ञानों की दृष्टि से (शविष्ठम्) सर्वातिशायी (तम् उ) उसी ही परमेश्वर को, (नः) हमारे (पूर्वे पितरः) पूर्व पितर, (नवग्वाः) तथा नवीन-स्तोता, और (सप्त विप्रासः) सात छन्दोमयी वेद-वाणियों वाले मेधावी, (अभि) प्रत्यक्षरूप में, (वाजयन्तः) अपनी और प्रेरित करते रहते हैं।
टिप्पणी
[नवग्वाः=नव+गौः (स्तोता। नक्षत्=व्याप्तिकर्मा (निघं০ २.१८)। सप्तविप्रासः=सप्तभिः छन्दोभिः संस्कृताः विप्राः। अथवा ‘सप्त’=ईश्वर के साथ सदा सम्बद्ध ‘सपति समवैतीति’ (उणा০ कोष १.१५७)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Him our ancient forefathers and the seven sages, like our five senses, mind and intellect, alongwith their fellow men, have celebrated and glorified, the lord that is the tamer and controller of opposition, saviour from suffering, pervasive in clouds and over mountains, sweet of tongue and strongest in force and power.
Translation
Like the seven orangs of internal and external cognition our fore-fathers having perfect under standing and observing up to-date courtesies pray and praise that Almighty God who is the possessor of pervasive excellence, who makes the people cross over difficulties, who is as pure in his nature as the eletrcity having its place in the clouds who has unviolable command, and who is very strong in geneus and intelligence.
Translation
Like the seven orangs of internal and external cognition our fore-fathers having perfect understanding and observing up to-date courtesies pray and praise that Almighty God who is the possessor of pervasive excellence, who makes the people cross over difficulties, who is as pure in his nature as the electricity hauing its place in the clouds, who has inviolable command, and who is very strong in genius and intelligence.
Translation
Our fore-fathers as well as the new-singers of praise-songs, the most intelligent ones like the seven vital breaths serving the soul, extol him alone through thoughtful praises; deriving knowledge, power and wealth from Him, Who is the Destroyer of all evils and enemies, Remover of all difficulties and troubles, the Topmost and the most stable (i.g., sitting on the top of a mountain) the Invincible Ordainer, and the Almighty One.
Footnote
The navgavas are not the clan of Rishis of specific name, as Sayana and Griffith would have it, but simply new singers of praises.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(तम्) प्रसिद्धम् (उ) एव (पूर्व) प्राचीनाः (पितरः) पालकजनाः विद्वांसः (नवग्वाः) अ०१४।१।६। णु स्तुतौ-अप्+गम्लृ गतौ ड्वप्रत्ययः। स्तोतव्यचरित्राः (सप्त) सप्तसंख्याकाः (विप्रासः) विप्राणां व्यापनकर्मणामिन्द्रियाणाम्-निरु०१४।१३। व्यापनकर्माणीन्द्रियाणि यथा। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। सप्त ऋषयः-अ०४।११।९। (अभि) सर्वतः (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः सन्ति (नक्षद्दाभम्) नक्षतिर्व्याप्तिकर्मा-निघ०२।१८-शतृ, दभ्नोतीति वधकर्मा-निघ०२।१९। नक्षत्+दम्भु दम्भे हनने-अण्, नलोपश्छान्दसः। व्याप्नुवतां दोषाणां नाशकम् (ततुरिम्) आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। पा०३।२।१७१। तॄ प्लवनतरणयोः, अन्तर्गतण्यर्थः। किन्। बहुलं छन्दसि। पा०७।१।१०३। इत्युत्वम्। दुःखेभ्यस्तारयितारम् (पर्वतेष्ठाम्) पर्वते मेघे स्थितां विद्युतमिव शुद्धस्वरूपम्-इति दयानन्दभाष्ये (अद्रोघवाचम्) अ०६।१।२। द्रोहरहितवाग्युक्तम्। कल्याणवाणीम् (मतिभिः) बुद्धिभिः (शविष्ठम्) अतिशयेन बलवन्तम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(নবগ্বাঃ) স্তুতিযোগ্য চরিত্রবান, (সপ্ত) সাত (বিপ্রাসঃ) [ত্বক, নেত্র, কান, জিহ্বা, নাক, মন, এবং বুদ্ধি] ব্যাপনশীল ইন্দ্রিয়-সমূহের ন্যায় (নঃ) আমাদের (পূর্বে) পূর্ব (পিতরঃ) পিতৃগণ (তম্) সেই (উ) ই (নক্ষদ্দাভম্) ব্যাপ্ত দোষ বিনাশকারী, (ততুরিম্) দুঃখ থেকে ত্রাণকারী, (পর্বতেষ্ঠাম্) মেঘ মধ্যে বর্তমান [বিদ্যুতের ন্যায় শুদ্ধস্বরূপ], (অদ্রোঘবাচম্) দ্রোহরহিত বাণীযুক্ত, (মতিভিঃ) বুদ্ধির সাথে (শবিষ্ঠম্) অত্যন্ত বলবান [পরমাত্মাকে] (অভি) সকল দিকে (বাজয়ন্তঃ) জানিয়েছেন ॥২॥
भावार्थ
যে অনাদি অনন্ত পরমাত্মার উপাসনা যোগীজন সদা করেন, সেই পরমেশ্বরের ধ্যান করে সকল মনুষ্য আনন্দ পান ॥২॥
भाषार्थ
(নক্ষদ্-দাভম্) দম্ভীদের মধ্যেও ব্যাপ্ত, (ততুরিম্) শীঘ্র ফল-প্রদাতা, (পর্বতেষ্ঠাম্) নিজের ব্রতে পর্বতের সদৃশ সুদৃঢ় উপাসকদের মধ্যে স্থিত, (অদ্রোঘবাচম্) যার বেদবাণী কারোর সাথে দ্রোহ করতে শেখায় না, (মতিভিঃ) জ্ঞানের দৃষ্টিতে (শবিষ্ঠম্) সর্বাতিশায়ী (তম্ উ) সেই পরমেশ্বরকে, (নঃ) আমাদের (পূর্বে পিতরঃ) পূর্ব পিতর, (নবগ্বাঃ) তথা নবীন-স্তোতা, এবং (সপ্ত বিপ্রাসঃ) সাত ছন্দোময়ী বেদ-বাণীযুক্ত মেধাবী, (অভি) প্রত্যক্ষরূপে, (বাজয়ন্তঃ) নিজের দিকে প্রেরিত করতে থাকে।
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