अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 57/ मन्त्र 14
व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः। प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न्परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । घ॒ । त्वा॒ । सु॒तऽव॑न्त: । आप॑: । न । वृ॒क्तऽब॑र्हिष: ॥ प॒वित्र॑स्य । प्र॒ऽस्रव॑णेषु । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । परि॑ । स्तो॒तार॑: । आ॒स॒ते॒ ॥५७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं घ त्वा सुतावन्त आपो न वृक्तबर्हिषः। पवित्रस्य प्रस्रवणेषु वृत्रहन्परि स्तोतार आसते ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । घ । त्वा । सुतऽवन्त: । आप: । न । वृक्तऽबर्हिष: ॥ पवित्रस्य । प्रऽस्रवणेषु । वृत्रऽहन् । परि । स्तोतार: । आसते ॥५७.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [परमात्मन्] (सुतवन्तः) तत्त्व के धारण करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले [अथवा बुद्धि पानेवाले विद्वान्], (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (वयम्) हम लोग (घ) निश्चय करके (त्वा) तुझको (परि आसते) सेवते हैं, (पवित्रस्य) शुद्ध स्थान के (प्रस्रवणेषु) झरना में (आपः न) जैसे जल [ठहरते हैं] ॥१४॥
भावार्थ
तत्त्वग्राही विद्वान् लोग उस परमात्मा के ही ध्यान में शान्ति पाते हैं, जैसे बहता हुआ पानी शुद्ध चौरस स्थान में आकर ठहर जाता है ॥१४॥
टिप्पणी
मन्त्र १४-१६ आचुके हैं-अ० २०।२।१-३ ॥ १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
विषय
देखो व्याख्या अथर्व० २०.५२.१-३
पदार्थ
ज्ञान और शक्ति को प्राप्त करके मानव हित में तत्पर 'न-मेध' अगले सूक्त के प्रथम दो मन्त्रों का ऋषि है। इसी उद्देश्य से स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान करनेवाला 'जमदग्नि' [जमत्
भावार्थ
अग्नि-जिसकी जाठराग्नि मन्द नहीं] तीसरे व चौथे मन्त्र का ऋषि है -
विषय
मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(वृत्रहन्) हे शत्रुनाशक ! [परमात्मन्] (सुतवन्तः) तत्त्व के धारण करनेवाले, (वृक्तबर्हिषः) हिंसा त्यागनेवाले [अथवा बुद्धि पानेवाले विद्वान्], (स्तोतारः) स्तुति करनेवाले (वयम्) हम लोग (घ) निश्चय करके (त्वा) तुझको (परि आसते) सेवते हैं, (पवित्रस्य) शुद्ध स्थान के (प्रस्रवणेषु) झरना में (आपः न) जैसे जल [ठहरते हैं] ॥१४॥
भावार्थ
तत्त्वग्राही विद्वान् लोग उस परमात्मा के ही ध्यान में शान्ति पाते हैं, जैसे बहता हुआ पानी शुद्ध चौरस स्थान में आकर ठहर जाता है ॥१४॥
टिप्पणी
मन्त्र १४-१६ आचुके हैं-अ० २०।५२।१-३ ॥ १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।५२।१-३ ॥
भाषार्थ
देखो—२०.५२.१।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, destroyer of evil, darkness and suffering, we, your celebrants, have distilled the soma, spread and occupied the holy grass, we sit and wait on the vedi for your presence in the flux of life as holy performers, while the flow of pure immortality continues all round in the dynamics of existence.
Translation
O dispeller of intellectual darkness, we blessed with children and free from nescience and violence sit in communoin of yours like the waters ın the streams of clear place.
Translation
O dispeller of intellectual darkness, we blessed with children and free from nescience and violence sit in communion of yours like the waters in the streams of clear place.
Translation
See Ath. 20.52.1
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र १४-१६ आचुके हैं-अ० २०।२।१-३ ॥ १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ ১৪-১৬ পরমাত্মোপাসনোপদেশঃ।
भाषार्थ
(বৃত্রহন্) হে শত্রুনাশক! [পরমাত্মন্] (সুতবন্তঃ) তত্ত্ব ধারক/ধারণকারী, (বৃক্তবর্হিষঃ) হিংসা ত্যাগকারী [অথবা বৃদ্ধি লাভকারী বিদ্বান], (স্তোতারঃ) স্তোতা (বয়ম্) আমরা (ঘ) নিশ্চিতরূপে (ত্বাম্) আপনাকে (পরি আসতে) সেবন-উপাসনা করি, (পবিত্রস্য) শুদ্ধ স্থানের (প্রস্রবণেষু) প্রস্রবণে/ঝরনায় (আপঃ ন) যেমন জল [স্থির হয়]।।১৪।।
भावार्थ
যেমন প্রবাহমান জল শুদ্ধ সমতল স্থানে এসে স্থির হয়, তেমনই তত্ত্বগ্রাহী বিদ্বানগণ পরমাত্মার ধ্যানে শান্তি লাভ করেন ॥১৪॥
भाषार्थ
দেখো—২০.৫২.১।
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