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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६४
    1

    एदु॒ मध्वो॑ म॒दिन्त॑रं सि॒ञ्च वा॑ध्वर्यो॒ अन्ध॑सः। ए॒वा हि वी॒र स्तव॑ते स॒दावृ॑धः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊं॒ इति॑ । मध्व॑: । म॒दिन्ऽत॑रम् । सि॒ञ्च । वा॒ । अ॒ध्व॒र्यो॒ इति॑ । अन्ध॑स: ॥ ए॒व । हि । वी॒र: । स्तव॑ते । स॒दाऽवृ॑ध: ॥६४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एदु मध्वो मदिन्तरं सिञ्च वाध्वर्यो अन्धसः। एवा हि वीर स्तवते सदावृधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इत् । ऊं इति । मध्व: । मदिन्ऽतरम् । सिञ्च । वा । अध्वर्यो इति । अन्धस: ॥ एव । हि । वीर: । स्तवते । सदाऽवृध: ॥६४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अध्वर्यो) हे हिंसा न चाहनेवाले पुरुष ! (मध्वः) ज्ञान [मधुविद्या] के (वा) और (अन्धसः) अन्न के (मदिन्तरम्) अधिक आनन्द देनेवाले रस को (इत् उ) अवश्य ही (आ) सब ओर (सिञ्च) सींच, (सदावृधः) सदा बढ़ानेवाला (वीरः) वीर (एव) इस प्रकार (हि) ही (स्तवते) स्तुति किया जाता है ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष हिंसा कर्म छोड़कर विद्या और अन्न आदि की प्राप्ति के तत्त्वसिद्धान्तों का प्रकाश करके वीरों के समान कीर्ति पावे ॥४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-८।२४।१६-१८, कुछ भेद से सामवेद-उ० ८।२। तृच १०, मन्त्र ४-साम०-पू० ४।१०। ॥ ४−(आ) समन्तात् (इत्) अवश्यम् (उ) अवधारणे (मध्वः) मधुनः। निश्चितज्ञानस्य (मदिन्तरम्) नाद् घस्य। पा० ८।२।१७। इति तरपो नुडागमः। मादयितृतरं रसम् (सिञ्च) सिक्तं कुरु (वा) चार्थे (अध्वर्यो) अ० १८।४।१। हे अहिंसामिच्छुक (एव) एवम् (हि) निश्चयेन (वीरः) शूरः (स्तवते) स्तूयते (सदावृधः) सर्वदा वर्धयिता ॥

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    विषय

    'वीर सदावृध' प्रभु का कर्मठ उपासक

    पदार्थ

    १. हे (अध्वर्यों) = यज्ञशील पुरुष! तू (इत् उ) = निश्चय से (मध्वः अन्धसः) = माधुर्य का सञ्चार करनेवाले सोम से भी (मदिन्तरम्) = अधिक आनन्दित करनेवाले उस प्रभु को (आसिञ्च) = अपने में सिक्त कर। प्रभु की उपासना का भाव तेरी नस-नस में व्याप्त हो जाए। २. वह (वीरः) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करके दूर करनेवाला, (सदावृधः) = सदा से वृद्धि को प्राप्त हुआ-हुआ प्रभु (एवा हि) = गतिशीलता के द्वारा ही (स्तवते) = स्तुति किया जाता है, अर्थात् क्रियाशील पुरुष ही प्रभु का सच्चा उपासक है।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित सोम उल्लास का कारण होता है। प्रभु का हृदय में धारण उससे भी अधिक आनन्दित करनेवाला होता है। उस 'वीर, सदावृध' प्रभु का सच्चा उपासक वही है, जो क्रियाशील है।

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    भाषार्थ

    (वा) अथवा (अध्वर्यो) हिंसारहित उपासनायज्ञ को जुटानेवाले हे उपासक! तू (मध्वः अन्धसः) मधुर अन्न से भी (मदिन्तरम्) अधिक प्रसन्नता दायक भक्तिरस को (इत् उ) ही (आसिञ्च) परमेश्वर पर न्यौछावर किया कर। (एवा हि) इस प्रकार ही (वीरः) प्रेरणाप्रद परमेश्वर (स्तवते) मार्गोंपदेश करता है, और (सदावृधः) सदा बढाता है।

    टिप्पणी

    [वीर=वि+ईर (प्रेरणा)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    And O high priest of the creative yajna of love and non-violence, offer the most delightful and ever exhilarating of honey sweets of the soma of faith and devotion to Indra, since thus is how the mighty hero is served and worshipped.

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    Translation

    O Adhvaryu priest, you moisten the Yajna fire with hilarious sweet cerial preparations as in this way you praise a ever prospering God.

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    Translation

    O Adhvaryu priest, you moisten the Yajna fire with hilarious sweet cerial preparations as in this way you praise a ever prospering God.

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    Translation

    O Sacrificer, pour down the sweet essence of herbs and foodgrains, capable of affording excellent joy and pleasure. For it is thus alone that the ever-progressive, brave person is praised and honoured.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-८।२४।१६-१८, कुछ भेद से सामवेद-उ० ८।२। तृच १०, मन्त्र ४-साम०-पू० ४।१०। ॥ ४−(आ) समन्तात् (इत्) अवश्यम् (उ) अवधारणे (मध्वः) मधुनः। निश्चितज्ञानस्य (मदिन्तरम्) नाद् घस्य। पा० ८।२।१७। इति तरपो नुडागमः। मादयितृतरं रसम् (सिञ्च) सिक्तं कुरु (वा) चार्थे (अध्वर्यो) अ० १८।४।१। हे अहिंसामिच्छुक (एव) एवम् (हि) निश्चयेन (वीरः) शूरः (स्तवते) स्तूयते (सदावृधः) सर्वदा वर्धयिता ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অধ্বর্যো) হে অহিংসক পুরুষ ! (মধ্বঃ) জ্ঞান [মধুবিদ্যা] (বা) এবং (অন্ধসঃ) অন্নের (মদিন্তরম্) অধিক আনন্দ দানকারী তত্ত্বরস (ইৎ উ) অবশ্যই (আ) সমস্ত দিকে (সিঞ্চ) সীঞ্চন করো-প্রকাশ করো, (সদাবৃধঃ) সদা বর্ধয়িতা (বীরঃ) বীর (এব) এভাবে (হি)(স্তবতে) স্তুতি প্রাপ্ত হয় ॥৪॥

    भावार्थ

    বিদ্বান্ পুরুষ হিংসা কর্ম পরিত্যাগ করে বিদ্যা এবং অন্নাদি প্রাপ্তির তত্ত্ব-সিদ্ধান্ত প্রকাশ করে বীরের ন্যায় কীর্তি অর্জন করে/করুক ॥৪॥মন্ত্র ৪-৬ ঋগ্বেদে খছে-৮।২৪।১৬-১৮, কিছু ভেদপূর্বক সামবেদ-উ০ ৮।২। তৃচ ১০, মন্ত্র ৪-সাম০-পূ০ ৪।১০।৫॥

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    भाषार्थ

    (বা) অথবা (অধ্বর্যো) হিংসারহিত উপাসনাযজ্ঞকারী হে উপাসক! তুমি (মধ্বঃ অন্ধসঃ) মধুর অন্ন থেকেও (মদিন্তরম্) অধিক প্রসন্নতা দায়ক ভক্তিরসকে (ইৎ উ)(আসিঞ্চ) পরমেশ্বরের প্রতি অর্পণ করো। (এবা হি) এভাবেই (বীরঃ) প্রেরণাপ্রদ পরমেশ্বর (স্তবতে) মার্গ উপদেশ করেন, এবং (সদাবৃধঃ) সদা বর্ধিত করেন।

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