अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
इन्द्र॑ स्थातर्हरीणां॒ नकि॑ष्टे पू॒र्व्यस्तु॑तिम्। उदा॑नंश॒ शव॑सा॒ न भ॒न्दना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । स्था॒त॒: । ह॒री॒णा॒म् । नकि॑: । ते॒ । पू॒र्व्यऽस्तु॑तिम् ॥ उत् । आ॒नं॒श॒ । शव॑सा । न । भ॒न्दना॑ ॥६४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां नकिष्टे पूर्व्यस्तुतिम्। उदानंश शवसा न भन्दना ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । स्थात: । हरीणाम् । नकि: । ते । पूर्व्यऽस्तुतिम् ॥ उत् । आनंश । शवसा । न । भन्दना ॥६४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(हरीणाम्) दुःख हरनेवाले मनुष्यों में (स्थातः) ठहरनेवाले (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (ते) तेरी (पूर्व्यस्तुतिम्) प्राचीन बड़ाई को (नकिः) न किसी ने (शवसा) अपने बल से और (न) न (भन्दना) शुभ कर्म से (उत् आनंश) पाया है ॥॥
भावार्थ
संसार के बीच एक परमात्मा ही सर्वशक्तिमान् और सर्वदुःखनाशक है, उसीकी उपासना से मनुष्य उपकार शक्ति बढ़ावे ॥॥
टिप्पणी
−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (स्थातः) हे स्थितिशील (हरीणाम्) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। दुःखहर्तॄणां मनुष्याणां मध्ये (नकिः) न कश्चिदपि (ते) तव (पूर्व्यस्तुतिम्) पूर्व्यं पुराणनाम-घि० ३।२७। प्राचीनप्रशंसाम् (उत्) (आनंश) अशू व्याप्तौ-लिट्। प्राप्तवान् (शवसा) स्वबलेन (न) निषेधे (भन्दना) भदि कल्याणे सुखे च-युच्, विभक्तेराकारः। शुभकर्मणा ॥
विषय
न शवसा, न भन्दना
पदार्थ
१. हे (हरीणां स्थात:) = इन्द्रियाश्वों के अधिष्ठातृभूत (इन्द्र) -=परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ते आपकी (पूर्व्यस्तुतिम्) = पालन व पूरण करनेवाली बातों में सर्वोत्तम इस स्तुति को (नकिः उदानंश) = कोई भी अतिव्याप्त नहीं कर पाता–कोई भी व्यक्ति आपकी स्तुति का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं होता। २. (न शवसा) = कोई भी बल से आपको अतिक्रान्त नहीं कर सकता। (न भन्दना) = कोई भी कल्याण व सुख से आपका उल्लंघन करनेवाला नहीं है। आप अनन्तशक्ति-सम्पन्न व आनन्दस्वरूप हैं। आपके उपासक में भी इस शक्ति व आनन्द की संक्रान्ति होती है।
भावार्थ
हम प्रभु का स्तवन करते हैं। यह स्तवन हमारी न्यूनताओं को दूर करता है। स्तवन से हमारे अन्दर शक्ति व आनन्द का संचार होता है।
भाषार्थ
(हरीणाम्) विषयों में हरण करनेवाली या प्रत्याहार-साधन सम्पन्न इन्द्रियों के (स्थातः) अधिष्ठाता (इन्द्र) हे परमेश्वर! (ते) आप द्वारा दी गई (पूर्व्यस्तुतिम्) पूर्वकालीन वैदिक स्तुतियों तक (नकिः) कोई कवि नहीं (उदानंश) पहुंच पाया, (न) न (शवसा) बल की दृष्टि से और न (भन्दना) कल्याण करने और सुखप्रदान करने की दृष्टि से। अर्थात् किसी भी कवि की ऐसी रचना नहीं हो सकती जो कि वैदिक रचनाओं से बढ़कर शक्ति प्रदान कर सके और कल्याण तथा सुख के मार्ग का उपदेश दे सके।
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, glorious lord president of the moving worlds of existence, no one ever by might or by commanding adoration has been able to equal, much less excel, the prime worship offered to you.
Translation
O supporter of moving worlds and creature none either by his power or by his goodness can attain your pre-eminence.
Translation
O supporter of moving worlds and creature none either by his power or by his goodness can attain your pre-eminence.
Translation
O Mighty God or king, the Sustainer of moving forces of the universe, or ores, none else has achieved or excelled Thy full praise of qualities by his power or beneficial acts.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् परमात्मन् (स्थातः) हे स्थितिशील (हरीणाम्) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। दुःखहर्तॄणां मनुष्याणां मध्ये (नकिः) न कश्चिदपि (ते) तव (पूर्व्यस्तुतिम्) पूर्व्यं पुराणनाम-घि० ३।२७। प्राचीनप्रशंसाम् (उत्) (आनंश) अशू व्याप्तौ-लिट्। प्राप्तवान् (शवसा) स्वबलेन (न) निषेधे (भन्दना) भदि कल्याणे सुखे च-युच्, विभक्तेराकारः। शुभकर्मणा ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমাত্মগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(হরীণাম্) দুঃখ হরণকারী মনুষ্যের মধ্যে (স্থাতঃ) স্থিত/বিরাজমান (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মন্] (তে) আপনার (পূর্ব্যস্তুতিম্) পূর্ব প্রশংসা (নকিঃ) না কেউ (শবসা) নিজের বল দ্বারা এবং (ন) না (ভন্দনা) শুভ কর্ম দ্বারা (উৎ আনংশ) পেয়েছে/প্রাপ্ত হয়েছে ॥৫॥
भावार्थ
সংসারের মধ্যে এক অদ্বিতীয় পরমাত্মাই সর্বশক্তিমান্ এবং সর্বদুঃখনাশক রূপে বিরাজমান, সেই সর্বদুঃখ নাশক পরমাত্মার উপাসনা দ্বারা মনুষ্য উপকার শক্তি বৃদ্ধি করুক ॥৫॥
भाषार्थ
(হরীণাম্) বিষয়ের মধ্যে হরণকারী বা প্রত্যাহার-সাধন সম্পন্ন ইন্দ্রিয়-সমূহের (স্থাতঃ) অধিষ্ঠাতা (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (তে) আপনার দ্বারা প্রদত্ত (পূর্ব্যস্তুতিম্) পূর্বকালীন বৈদিক স্তুতি পর্যন্ত (নকিঃ) কোনো কবি না (উদানংশ) পৌঁছোতে পেরেছে, (ন) না (শবসা) বলের দৃষ্টিতে এবং না (ভন্দনা) কল্যাণ করার এবং সুখপ্রদান করার দৃষ্টিতে। অর্থাৎ কোনো কবির এমন রচনা হতে পারে না যা বৈদিক রচনা থেকে অধিক শক্তি প্রদান করতে সক্ষম এবং কল্যাণ তথা সুখের মার্গের উপদেশ দিতে পারে/সক্ষম।
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