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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७७
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    अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन्नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑। शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्याय॒ मन्म॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्य॒ । शू॒र॒ । अध्व॑न: । न । अन्ते॑ । अ॒स्मिन् । न॒: । अ॒द्य । सव॑ने । म॒न्दध्यै॑ ॥ शंसा॑ति । उ॒क्थम् । उ॒शना॑ऽइव । वे॒धा: । चि॒कि॒तुषे॑ । अ॒सु॒र्या॑य । मन्म॑ ॥७७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्य शूराध्वनो नान्तेऽस्मिन्नो अद्य सवने मन्दध्यै। शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । स्य । शूर । अध्वन: । न । अन्ते । अस्मिन् । न: । अद्य । सवने । मन्दध्यै ॥ शंसाति । उक्थम् । उशनाऽइव । वेधा: । चिकितुषे । असुर्याय । मन्म ॥७७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (शूर) हे शूर ! (अद्य) अब (अस्मिन्) इस (अन्ते) पासवाले (सवने) ऐश्वर्य में (मन्दध्यै) आनन्द करने के लिये (नः) हमारे (अध्वनः) मार्गों को (न) मत (अव स्य) विनष्ट कर। (उशना इव) चाहने योग्य पुरुष के समान (वेधाः) बुद्धिमान् पुरुष (चिकितुषे) ज्ञानवान् (असुर्याय) प्राणियों के हितकारी के लिये (उक्थम्) कहने योग्य कर्म और (मन्म) मननयोग्य ज्ञान को (शंसाति) कहे ॥२॥

    भावार्थ

    राजा ऐसा उपाय करे कि सब लोग बे-रोक स्वतन्त्र होकर संसार के पदार्थों से उन्नति करें और विद्वान् लोग मिलकर प्राणियों के हित के लिये विचार करते रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अव स्य) षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय (शूर) हे निर्भय राजन् (अध्वनः) मार्गान् (न) निषेधे (अन्ते) समीपस्थे (अस्मिन्) (नः) अस्माकम् (अद्य) इदानीम् (सवने) ऐश्वर्ये (मन्दध्यै) तुमर्थे सेसेनसे-असेन्०। पा० ३।४।९। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-अध्यैप्रत्ययः मन्दितुमानन्दितुम् (शंसाति) कथयेत् (उक्थम्) वक्तव्यं प्रशंसनीयं कर्म (उशनाः) अ० २०।२।। कमनीयः पुरुषः (इव) यथा (वेधाः) मेधावी (चिकितुषे) अ० ४।३०।२। कित ज्ञाने-क्वसु। ज्ञानिने (असुर्याय) अ० २०।८।४। प्राणिभ्यो हितकराय (मन्म) मननीयं ज्ञानम् ॥

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    विषय

    अश्व-मोचन

    पदार्थ

    १. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (अध्वनः अन्ते न) = जिस प्रकार मार्ग की समाप्ति पर अश्वों को खोलते हैं, उसी प्रकार आप (न:) = हमारे (अस्मिन् सवने) = इस जीवन-यज्ञ में (अद्य) = आज (मन्दध्यै) = आनन्द की प्राप्ति के लिए (अव स्य) = इन्द्रियाश्वों को विषयों के बन्धन से मुक्त कीजिए। २. (उशना इव) = सर्वहित की कामना करते हुए उपासक के समान यह भक्त (उवथम्) = स्तोत्रों का शंसन करता है। (वेधा) = ज्ञानी बनकर (चिकितुषे) = उस सर्वज्ञ (असुर्याय) = प्राणशक्ति का संचार करनेवालों में उत्तम प्रभु के लिए (मन्म) = मननीय ज्ञान को प्रास करता है। जितना जितना ज्ञान प्राप्त करता चलता है, उतना-उतना प्रभु के समीप होता जाता है।

    भावार्थ

    हम यही चाहते हैं कि प्रभु हमारी इन्द्रियों को विषयबन्धन से मुक्त करें, जिससे हम जीवन-यात्रा को ठीक से पूर्ण करते हुए तथा ज्ञान को बढ़ाते हुए प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (शूर) हे विक्रमशील! (अद्य) आज, (अस्मिन् सवने) इस भक्तियज्ञ में (नः मन्दध्यै) हमारी प्रसन्नता के निमित्त, (न) मानो (अध्वनः) आज के भक्तिमार्ग के (अन्ते) अन्त में, (अव स्य) आप हमारी अविद्याग्रन्थि को ढीला कर दीजिए। (वेधाः) जिसने कामादि शत्रुओं को बींध डाला है ऐसा उपासक, (इव) मानो, (उशना) आपकी प्राप्ति की उग्र अभिलाषावाला है, वह (चिकितुषे) सर्वज्ञ और (असुर्याय) प्राणियों के प्राणस्वरूप आप के लिए, (मन्म) मननयी (उक्थम्) उक्तियों का (शंसति) कथन कर रहा है। [उशना=वष्टेः कान्तिकर्मणः।]

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    विषय

    परमेश्वर आचार्य राजा।

    भावार्थ

    हे (शूर) दुष्ट वासनाओं के दमन करने में शूरवीर के समान हे परमेश्वर ! तू (अध्वनः अन्तेन) मार्ग के समाप्त हो जाने पर जिस प्रकार रथ से घोड़ों को मुक्त कर दिया जाता है उसी प्रकार (नः) हमारे (अस्मिन्) इस (सवने) सवन, जन्म में ही (अध्वनः अन्ते) इस जीवन मार्ग के समाप्त हो जाने पर (मन्दध्यै) परम मोक्ष आनन्द को प्राप्त करने के लिये (नः) हमें (अव स्य) मुक्त कर इस प्रकार (वेधाः) विद्वान् पुरुष (उशनाः इव) कामनावान् पुरुष के समान होकर ही (चिकितुषे) सर्व भव व्याधि के निवारक एवं ज्ञानप्रद (असुर्याय) प्राणों में रमण करने वाले प्राणियों के हितकारी परमेश्वर की (मन्म) मनन योग्य (उक्थम्) स्तुति (शंसति) कहता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, such as you are, guard us in this yajnic programme of holy living so that we may enjoy life and you too be happy with us. Guard us, pray, O Ruler, as you would the boundaries of the path of progress. Forsake us not till the end. The wise celebrant like a poet and lover sings songs of adoration and speaks words of wisdom to enlighten the simple innocents eager to learn and pray.

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    Translation

    O teacher, you are hold enough. You, in this nearest Yajna place, do not hinder our entries for taking pleasure. In this Yajna the chief priest like the learned man pronounces the Mantra of praise for the All-knowledge God who is the well wisher of living creatures.

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    Translation

    O teacher, you are hold enough. You, in this nearest Yajna place, do not hinder our entries for taking pleasure. In this Yajna the chief priest like the learned man pronounces the Mantra of praise for the All-knowledge God who is the well-wisher of living creatures.

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    Translation

    “O Destroyer of evil propensities and thus the Breaker of the ties of Bondage, just as at the end of the path, the horses are unyoked from the chariot, similarly set us free from the bondage of body-chariot at the end of this journey of life for enjoying the bliss of salvation.” Thus prays the learned person, like a keenly desirous man, the praise-song, worthy of meditation, to the Evil-Destroyer God, Who revels in vital breaths and is the Benefactor of all creaters.

    Footnote

    Griffith s interpretation of ‘Ushana’ as a special sage of that name is incorrect.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अव स्य) षो अन्तकर्मणि-लोट्। विनाशय (शूर) हे निर्भय राजन् (अध्वनः) मार्गान् (न) निषेधे (अन्ते) समीपस्थे (अस्मिन्) (नः) अस्माकम् (अद्य) इदानीम् (सवने) ऐश्वर्ये (मन्दध्यै) तुमर्थे सेसेनसे-असेन्०। पा० ३।४।९। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-अध्यैप्रत्ययः मन्दितुमानन्दितुम् (शंसाति) कथयेत् (उक्थम्) वक्तव्यं प्रशंसनीयं कर्म (उशनाः) अ० २०।२।। कमनीयः पुरुषः (इव) यथा (वेधाः) मेधावी (चिकितुषे) अ० ४।३०।२। कित ज्ञाने-क्वसु। ज्ञानिने (असुर्याय) अ० २०।८।४। प्राणिभ्यो हितकराय (मन्म) मननीयं ज्ञानम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শূর) হে বীর ! (অদ্য) এখানে (অস্মিন্) এই (অন্তে) সমীপস্থ (সবনে) ঐশ্বর্যে (মন্দধ্যৈ) আনন্দ করার জন্য (নঃ) আমাদের (অধ্বনঃ) মার্গ সমূহকে (ন) না (অব স্য) বিনষ্ট করো। (উশনা ইব) প্রার্থিত পুরুষের সমান (বেধাঃ) বুদ্ধিমান্ পুরুষ (চিকিতুষে) জ্ঞানবান্ (অসুর্যায়) প্রাণীদের হিতের জন্য (উক্থম্) কথনযোগ্য কর্ম এবং (মন্ম) মননযোগ্য জ্ঞান (শংসাতি) বিবৃতি করুক॥২॥

    भावार्थ

    রাজা এমন উপায় করুক যাতে সকল মনুষ্য স্বতন্ত্র হয়ে সংসারের সকল পদার্থসমূহ দ্বারা উন্নতি করে এবং বিদ্বানগণ একত্রে প্রাণীসমূহের হিতের জন্য বিচার করে॥২॥

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    भाषार्थ

    (শূর) হে বিক্রমশীল! (অদ্য) আজ, (অস্মিন্ সবনে) এই ভক্তিযজ্ঞে (নঃ মন্দধ্যৈ) আমাদের প্রসন্নতার জন্য, (ন) মানো (অধ্বনঃ) আজকের ভক্তিমার্গে (অন্তে) অন্তে/পরিশেষে, (অব স্য) আপনি আমাদের অবিদ্যাগ্রন্থি আলগা/শিথিল করুন। (বেধাঃ) যে কামাদি শত্রুদের বিদ্ধ করেছে এমন উপাসক, (ইব) মানো, (উশনা) আপনার প্রাপ্তির উগ্র অভিলাষী, সে (চিকিতুষে) সর্বজ্ঞ এবং (অসুর্যায়) প্রাণীদের প্রাণস্বরূপ আপনার জন্য, (মন্ম) মননয়ী (উক্থম্) উক্তির (শংসতি) কথন/বিবৃতি করছে। [উশনা=বষ্টেঃ কান্তিকর্মণঃ।]

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