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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७७
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    क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न्वृषा॒ यत्सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्। दि॒व इ॒त्था जी॑जनत्स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒वि: । न । नि॒ण्यम् । वि॒दथा॑नि । साध॑न् । वृषा॑ । यत् । सेक॑म् । वि॒ऽपि॒पा॒न: । अर्चा॑त् ॥ दि॒व: । इ॒त्था । जी॒ज॒न॒त् । स॒प्त । का॒रून् । अह्ना॑ । चि॒त् । च॒क्रु॒ । वयुना॑ । गृ॒णन्त॑: ॥७७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कविर्न निण्यं विदथानि साधन्वृषा यत्सेकं विपिपानो अर्चात्। दिव इत्था जीजनत्सप्त कारूनह्ना चिच्चक्रुर्वयुना गृणन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कवि: । न । निण्यम् । विदथानि । साधन् । वृषा । यत् । सेकम् । विऽपिपान: । अर्चात् ॥ दिव: । इत्था । जीजनत् । सप्त । कारून् । अह्ना । चित् । चक्रु । वयुना । गृणन्त: ॥७७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (कविः न) जैसे बुद्धिमान् पुरुष (विदथानि) जानने योग्य कर्मों को (साधन्) सिद्ध करता हुआ (निण्यम्) गूढ़ अर्थ को, [वैसे ही] (यत्) जो (वृषा) सुखों का बरसानेवाला बलवान् [राजा] (सेकम्) सिञ्चन [वृद्धि के प्रयत्न] को (विपिपानः) विशेष करके रक्षा करता हुआ (अर्चात्) सत्कार करे, वह (इत्था) इस प्रकार से (सप्त) सात (चारून्) काम करनेवालों [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान, दो नथने, दो आँख और एक मुख, इन सात] को (दिवः) व्यवहारकुशल (जीजनत्) उत्पन्न करे, (चित्) जैसे (गृणन्तः) उपदेश करते हुए पुरुषों ने (अह्ना) दिन के साथ (वयुनानि) जानने योग्य कर्मों को (चक्रुः) किया है ॥३॥

    भावार्थ

    जो राजा बुद्धिमानों के समान गूढ़ विचारवाला और वृद्धि करनेवाला होता है, वह सबके शरीर और बुद्धि को व्यवहारकुशल करके पहिले महात्माओं के सदृश अद्भुत कर्मों को दिन के प्रकाश के समान प्रकट करता है ॥३॥

    टिप्पणी

    मन्त्र में (कारु) पद ऋषि आदि वाचक है। यजुर्वेद ३०।। का वचन है (सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) शरीर में सात ऋषि रक्खे हुए हैं। [सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी] सात ऋषि छह इन्द्रियाँ और सातवीं विद्या [बुद्धि] है-निरु० १२।३७। (यः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्) कर्ता ने [मनुष्य के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दो कान, दोनों नथने, दोनों आँखें और एक मुख-अथ० १०।२।६ ॥ ३−(कविः) मेधावी (न) यथा (निण्यम्) अ० ९।१०।१। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। अन्तर्हितं गूढमर्थम् (विदथानि) ज्ञातव्यानि कर्माणि (साधन्) साधयन् (वृषा) सुखानां वर्षकः। बलिष्ठः (यत्) यः (सेकम्) सिञ्चनम्। वृद्धिप्रयत्नम् (विपिपानः) पा रक्षणे कानच्। विशेषे रक्षन् (अर्चात्) सत्कुर्यात् (दिवः) दिवु व्यवहारे-क्विप्। व्यवहारकुशलान् (इत्था) अनेन प्रकारेण (जीजनत्) लडर्थे लुङ्। अजीजनत्। जनयेत् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (कारून्) कृवापा०। उ० १।१। करोतेः-उण्। कार्यकर्तॄन् सप्त ऋषीन्। अ० ४।११।९। सप्त होतॄन्। अ० ४।२४।३। (अह्ना) दिवसेन (चित्) यथा (चक्रुः) कृतवन्तः (वयुनानि) अ० २।२८।२। ज्ञातव्यानि कर्माणि (गृणन्तः) उपदिशन्तः ॥

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    विषय

    ज्ञान के सात दीपक

    पदार्थ

    १. (कविः न निण्यम्) = जैसे एक कान्तदर्शी पुरुष अन्तर्हित-गूढ तत्त्वार्थ को जान लेता है,इसी प्रकार (विदथानि) = ज्ञानों को (साधन्) = सिद्ध करता हुआ (वृषा) = शक्तिशाली पुरुष (यत्) = जब (सेकम्) = शरीर में सेचनीय सोम को (विपिपान:) = विशेषरूप से पीता हुआ-शरीर में ही वीर्य को सुरक्षित करता हुआ (अर्चात्) = प्रभु की उपासना करता है। प्रभु से दी गई इस सर्वोत्तम धातु का रक्षण प्रभु का अर्चन ही हो जाता है। २. (इत्था) = इसप्रकार वीर्यरक्षण के द्वारा सप्त-'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व जिला' इन सातों को (दिवः कारून्) = प्रकाश [ज्ञान] का उत्पन्न करनेवाला (जीजनत्) = बनाता है और (अह्ना चित्) = एक ही दिन में, अर्थात् अति शीघ्र ही (गृणन्त:) = स्तुति करते हुए ये लोग (वयुना चक्रुः) = अपने में प्रज्ञानों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं। सुरक्षित वीर्य ज्ञानाग्नि का इंधन बन ज्ञान को दीस करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    स्वाध्याय में प्रवृत्त होने से वीर्य का रक्षण सम्भव होता है। वीर्यरक्षण ही प्रभु का सच्चा समादर है। यह सुरक्षित वीर्य सब ज्ञानेन्द्रियों को शक्तिशाली बनाता है और शीघ्र ही हमारी ज्ञानाग्नि की दीप्ति का कारण बनता है।

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    भाषार्थ

    (कविः न) वेद-काव्यों का कवि परमेश्वर जिस प्रकार (निण्यम्) निर्णीत गुप्त रहस्यों का (साधन्) परिज्ञान साधता है, देता है, उसी प्रकार (विदथानि) वेदों के गुप्त रहस्यों का परिज्ञान (साधन्) देता हुआ उपासक, (वृषा) भक्तिरस की वर्षा करता हुआ, (यत्) जब, (सेकम्) परमेश्वरीय आनन्दरस की वर्षा का (विपिपानः) तृष्णापूर्वक पान करता है, तब वह (अर्चात्) वास्तव में अर्चना कर रहा होता है। (इत्था) इसी प्रकार परमेश्वर ने (दिवः) द्युलोक की (सप्त) सात (कारून्) क्रियाशील सौर-रश्मियों को (जीजनत्) जन्म दिया है, जो सौर-रश्मियाँ कि (अह्ना) दिनों को (चक्रुः) पैदा करती हैं, (चित्) और जो मानो (वयुना) ज्ञानों का भी (गृणन्तः) उपदेश दे रही होती हैं।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर ने वैदिक ज्ञान भी दिया है, और सौर-प्रकाश भी। सौर-प्रकाश से दिनों का निर्माण होता है, और वह हमारे ज्ञानों का भी साधन है।]

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    विषय

    परमेश्वर आचार्य राजा।

    भावार्थ

    (यत्) जब (विदथानि) नाना ज्ञानों को और भीतर ज्ञान विभूतियों को (साधन्) साधता हुआ (वृषा) ज्ञानी, बलवान् एवं हृदय में आनन्द-रस का वर्षण करने हारा आत्मा (निण्यम्) गुप्त रूप से विद्यमान भीतर छुपे (सेकम्) आनन्दरस-प्रवाह को (विपिपानः) विशेष रूप से पान करता हुआ, (कविः) क्रान्तदर्शी, ज्ञानवान् होकर (अर्चात्) स्तुति करना या उस परमब्रह्म की उपासना करता है तब (दिवः) सूर्य के समान परम प्रकाशमय परमेश्वर के अनुग्रह से (सप्त कारून्) सात क्रियाशील प्राणों को (इत्था) सत्य रूप से (अ जीजनत्) प्रकट करता है। और (अह्ना) दिनके समय जिस प्रकार सूर्य की सात रश्मियें समस्त पदार्थों का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार भीतरी ज्ञानवान् प्रबुद्ध आत्मा के वे सात मुख्य प्राण या सात ज्वाला (वयुना गृणन्तः) नाना ज्ञानों का वर्णन करते हुए (अह्ना चित्) दिनके समान प्रकाश ही प्रकाश (चक्रुः) कर देते हैं। काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा। स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ ये सात जिह्वाएं ही सात कारू अथवा शीर्षगत सात प्राणं सात कारु हैं॥ वे ही सात ऋषियों के समान समस्त जगत् को नाना ज्ञानों का उपदेश करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    The generous man of might and vision accomplishing the performance of various yajnas of science, like a poet, receiving mysteriously but surely the shower of light from above, preserving it with reverence and advancing it, creates knowledge from the light above, and then the scholars, admiring and pursuing it further by day, create seven kinds of science and technology and raise seven orders of scientists and technologists. (The mantra suggests the science of spectrum and development of light technology.)

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    Translation

    When the soul strong enough accomplishing its diseriminating powers and drinking of the hidden pour of spiritual knowledge invokes the Almighty Divinity makes the seven vital breaths thus active from the light and grace of God and giving the clue of Various knowledge these seven illuminate everything like day-night.

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    Translation

    When the soul strong enough accomplishing its discriminating powers and drinking of the hidden pour of spiritual knowledge invokes the Almighty Divinity makes the seven vital breaths thus active from the light and Brace of God and giving the clue of various knowledge these seven illuminate everything like day-night.

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    Translation

    When developing the various sorts of Yogic powers, a devoter saturated with Dharm-megh Smadhi, drinking deep the secret dripping of highest bliss, like a seer, who has crossed all hurdles of ignorance and darkness, worships God, he generates seven kinds of lights, like those of the sun from his head in such a way, as to turn out floods of light like the day, while describing or explaining various acts of spiritual learning.

    Footnote

    Sapta Karu- seven-coloured lights, visualised by yogis internally on their way to salvation, when finally the flood-gates of perpetual Divine splendour are flung wide open,so much so that even the lights from crore§ of the suns of the universe are no match for it,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र में (कारु) पद ऋषि आदि वाचक है। यजुर्वेद ३०।। का वचन है (सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) शरीर में सात ऋषि रक्खे हुए हैं। [सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी] सात ऋषि छह इन्द्रियाँ और सातवीं विद्या [बुद्धि] है-निरु० १२।३७। (यः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि। कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्) कर्ता ने [मनुष्य के] मस्तक में सात गोलक खोदे, यह दो कान, दोनों नथने, दोनों आँखें और एक मुख-अथ० १०।२।६ ॥ ३−(कविः) मेधावी (न) यथा (निण्यम्) अ० ९।१०।१। निर्+णीञ् प्रापणे-यक्, टिलोपो रेफलोपश्च। अन्तर्हितं गूढमर्थम् (विदथानि) ज्ञातव्यानि कर्माणि (साधन्) साधयन् (वृषा) सुखानां वर्षकः। बलिष्ठः (यत्) यः (सेकम्) सिञ्चनम्। वृद्धिप्रयत्नम् (विपिपानः) पा रक्षणे कानच्। विशेषे रक्षन् (अर्चात्) सत्कुर्यात् (दिवः) दिवु व्यवहारे-क्विप्। व्यवहारकुशलान् (इत्था) अनेन प्रकारेण (जीजनत्) लडर्थे लुङ्। अजीजनत्। जनयेत् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (कारून्) कृवापा०। उ० १।१। करोतेः-उण्। कार्यकर्तॄन् सप्त ऋषीन्। अ० ४।११।९। सप्त होतॄन्। अ० ४।२४।३। (अह्ना) दिवसेन (चित्) यथा (चक्रुः) कृतवन्तः (वयुनानि) अ० २।२८।२। ज्ञातव्यानि कर्माणि (गृणन्तः) उपदिशन्तः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (কবিঃ ন) যেমন বুদ্ধিমান্ পুরুষ (বিদথানি) জ্ঞাতব্য কর্ম সমূহকে (সাধন্) সিদ্ধ করে (নিণ্যম্) গূঢ় অর্থকে, [তেমনই] (যৎ) যিনি (বৃষা) সুখ বর্ষণকারী বলবান্ [রাজা] (সেকম্) সীঞ্চনকে [বৃদ্ধির প্রয়াসকে] (বিপিপানঃ) বিশেষভাবে রক্ষা করে (অর্চাৎ) সৎকার করেন, তিনি (ইত্থা) এরূপ (সপ্ত) সপ্ত (চারূন্) কার্য সম্পাদনকারীকে [অর্থাৎ ত্বক, নেত্র, কান, জিহ্বা, নাক, মন এবং বুদ্ধি, অথবা দুই কান, দুই নাসারন্ধ্র, দুই চোখ এবং মুখ] (দিবঃ) ব্যবহারকুশল (জীজনৎ) উৎপন্ন করেন, (চিৎ) যেমন (গৃণন্তঃ) উপদেষ্টা পুরুষ (অহ্না) দিনের ন্যায় (বয়ুনানি) জ্ঞাতব্য কর্মসমূহ (চক্রুঃ) করেছেন ॥৩॥

    भावार्थ

    যে রাজা বুদ্ধিমানের ন্যায় গূঢ় বিচারযুক্ত এবং সুখ বর্ধনকারী, তিনি সবার শরীর ও বুদ্ধিকে সদ্ব্যবহার যুক্ত করে সর্বপ্রথম মহাত্মাদের সদৃশ অদ্ভুত কর্মসমূহকে দিবালোকের ন্যায় প্রকট করেন ॥৩।। মন্ত্রে (কারু) পদ ঋষি আদি বাচক। যজুর্বেদ ৩০।৫৫। মন্ত্রের উক্তি হল (সপ্ত ঋষয়ঃ প্রতিহিতাঃ শরীরে) শরীরে সপ্ত ঋষি বিরাজমান। [সপ্ত ঋষয়ঃ ষডিন্দ্রিয়াণি বিদ্যা সপ্তমী] সপ্ত ঋষি হল ৬ ইন্দ্রিয় এবং সাত নম্বর হল বিদ্যা [বুদ্ধি] -নিরু০ ১২।৩৭। (যঃ সপ্ত খানি বি ততর্দ শীর্ষণি। কর্ণাবিমৌ নাসিকে চক্ষণী মুখম্) কর্তা [মনুষ্যের] মস্তকে সাত গোলক নির্মাণ করেছেন, যথা দুই কর্ণ, উভয় নাসিকা, দুই চক্ষু এবং মুখ-অথ০ ১০।২।৬ ॥

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    भाषार्थ

    (কবিঃ ন) বেদ-কাব্যের কবি পরমেশ্বর যেমন (নিণ্যম্) নির্ণীত গুপ্ত রহস্যের (সাধন্) পরিজ্ঞান সিদ্ধ করেন, প্রদান করেন, তেমনই (বিদথানি) বেদের গুপ্ত রহস্যের পরিজ্ঞান (সাধন্) প্রদান করে উপাসক, (বৃষা) ভক্তিরসের বর্ষা করে, (যৎ) যখন, (সেকম্) পরমেশ্বরীয় আনন্দরসের বর্ষার (বিপিপানঃ) তৃষ্ণাপূর্বক পান করে, তখন সে (অর্চাৎ) বাস্তবে অর্চনা করে। (ইত্থা) এইভাবে পরমেশ্বর (দিবঃ) দ্যুলোকের (সপ্ত) সাত (কারূন্) ক্রিয়াশীল সৌর-রশ্মিকে (জীজনৎ) জন্ম দিয়েছেন, যে সৌর-রশ্মি (অহ্না) দিন (চক্রুঃ) উৎপন্ন/সৃষ্টি করে, (চিৎ) এবং যা মানো (বয়ুনা) জ্ঞানের (গৃণন্তঃ) উপদেশ দিচ্ছে।

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