अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 99/ मन्त्र 2
अ॒स्येदिन्द्रो॑ वावृधे॒ वृष्ण्यं॒ शवो॒ मदे॑ सु॒तस्य॒ विष्ण॑वि। अ॒द्या तम॑स्य महि॒मान॑मा॒यवोऽनु॑ ष्टुवन्ति पू॒र्वथा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । इत् । इन्द्र॑: । व॒वृ॒धे॒ । वृष्ण्य॑म् । शव॑: । मदे॑ । सु॒तस्य॑ । विष्ण॑वि ॥ अ॒द्य । तम् । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मान॑म् । आ॒यव॑: । अनु॑ । स्तु॒व॒न्ति॒ । पू॒र्वऽथा॑ ॥९९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदिन्द्रो वावृधे वृष्ण्यं शवो मदे सुतस्य विष्णवि। अद्या तमस्य महिमानमायवोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । इत् । इन्द्र: । ववृधे । वृष्ण्यम् । शव: । मदे । सुतस्य । विष्णवि ॥ अद्य । तम् । अस्य । महिमानम् । आयव: । अनु । स्तुवन्ति । पूर्वऽथा ॥९९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (इत्) ही (सुतस्य) उत्पन्न हुए (अस्य) इस [जीव] के (वृष्ण्यम्) पराक्रम और (शवः) बल को (विष्णवि) व्यापक (मदे) आनन्द में (वावृधे) बढ़ाया है, (अस्य) इस [परमात्मा] की (तम्) उस (महिमानम्) बड़ाई को (आयवः) मनुष्य (अद्य) अब (पूर्वथा) पहिले के समान (अनु स्तुवन्ति) सराहते रहते हैं ॥२॥
भावार्थ
अनादि निर्विकार परमात्मा इस प्राणी के आनन्द के लिये सदा सहाय करता है, उसी की उपासना सब मनुष्य सदा करते हैं ॥२॥
टिप्पणी
यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।९७ ॥ २−(अस्य) जीवस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (वावृधे) वर्धितवान् (वृष्ण्यम्) वृषत्वम्। पराक्रमम् (शवः)। बलम् (मदे) आनन्दे (सुतस्य) उत्पन्नस्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके (अद्य) (तम्) (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (आयवः) मनुष्याः (अनु) निरन्तरम् (स्तुवन्ति) प्रशंसन्ति (पूर्वथा) यथापूर्वम् ॥
विषय
वृष्ण्यं शवः
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सुतस्य अस्य) = उत्पन्न हुए-हुए इस सोम के (विष्णवि मदे) = शरीर में व्यात मद [उल्लास] के होने पर (इत्) = ही (वृष्ण्यं शवः) = शक्ति का सेचन करनेवाले अंग-प्रत्यंग को सशक्त बनानेवाले बल को (वावृधे) = अपने अन्दर बढ़ाता है। २. (आयवः) = गतिशील पुरुष (अस्य) = इस सोम की (तम्) = उस (महिमानम्) = महिमा को (पूर्वथा) = पहले की भाँति (अनुष्टुवन्ति) = स्तुत करते हैं। सोम का महत्त्व वेद में स्थान-स्थान पर उद्गीत हुआ है, सुरक्षित हुआ-हुआ सोम ही उत्कृष्ट जीवन का आधार बनता है।
भावार्थ
सुरक्षित सोम शरीर के सब अंगों को सशक्त बनाता है। सोम की महिमा सदा वेदवाणियों से गाई जाती रही है। यह सोमी पुरुष उन्नति-पथ पर चलता हुआ अन्य मनुष्यों के साथ मिलकर चलता है, अतः यह 'नृमेध' कहलाता है [मेध संगमे]। इसका जीवन स्वार्थमय नहीं होता। यह 'नृमेध' ही अगले सूक्त का ऋषि है-
भाषार्थ
(विष्णवि) व्यापक परमेश्वर के निमित्त, जिस उपासक पर (सुतस्य) निष्पादित भक्तिरस की (मदे) मस्ती चढ़ जाती है, (अस्य) इस उपासक के (इत्) ही (शवः) आध्यात्मिक-बल को (इन्द्रः) परमेश्वर (वावृधे) बढ़ाता है, जो आध्यात्मिक-बल कि (वृष्ण्यम्) सब पर सुखों की वर्षा करता है। (पूर्वथा) पूर्व अनादिकाल के सदृश (अद्य) आज भी (आयवः) उपासक-जन, (अस्य) इस परमेश्वर की (तं महिमानम्) उस महिमा का (अनुष्टुवन्ति) निरन्तर-स्तवन करते हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
In the ecstasy of this soma success of achievement through the yajnic programme, Indra augments the strength and enthusiasm of this host and master of the programme, while now as ever before, the people appropriately adore and exalt the greatness of this lord.
Translation
The Almighty God increases the strength, power etc of this soul born in His all-pervading bliss. The living men today even as of previous sing the praise of that majestic Power of Him.
Translation
The Almighty God! increases the strength, power etc of this soul born in His all-pervading bliss. The living men today even as of previous sing the praise of that majestic Power of Him.
Translation
O Adorable Lord, Worthy of Worship, now we may get fulfilled our great wishes through Thee, just the people get many benefits from the running waters, (like hydraulic electricity, irrigation, bathing, etc).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।९७ ॥ २−(अस्य) जीवस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (वावृधे) वर्धितवान् (वृष्ण्यम्) वृषत्वम्। पराक्रमम् (शवः)। बलम् (मदे) आनन्दे (सुतस्य) उत्पन्नस्य (विष्णवि) विष्णौ। व्यापके (अद्य) (तम्) (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (आयवः) मनुष्याः (अनु) निरन्तरम् (स्तुवन्ति) प्रशंसन्ति (पूर्वथा) यथापूर्वम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (ইত্) ই (সুতস্য) সৃষ্ট/উৎপন্ন (অস্য) এই [জীবের] (বৃষ্ণ্যম্) পরাক্রম এবং (শবঃ) শক্তিকে (বিষ্ণবি) ব্যাপক (মদে) আনন্দে (বাবৃধে) বর্ধিত করেছেন, (অস্য) এই [পরমাত্মার] (তম্) সেই (মহিমানম্) মহিমাকে (আয়বঃ) মানুষ (অদ্য) এখন (পূর্বথা) আগের মতোই/পূর্বের সদৃশ (অনু স্তুবন্তি) নিরন্তর প্রশংসা করে॥২॥
भावार्थ
অনাদি নির্বিকার পরমাত্মা এই জীবের সুখের জন্য সর্বদা সাহায্য করেন, সমস্ত মানুষ সর্বদা সেই পরমেশ্বরের উপাসনা করুক॥২॥
भाषार्थ
(বিষ্ণবি) ব্যাপক পরমেশ্বরের জন্য/নিমিত্ত, যে উপাসকের ওপর (সুতস্য) নিষ্পাদিত ভক্তিরসের (মদে) উন্মত্ততা আরোহিত হয়, (অস্য) এই উপাসকের (ইৎ) ই (শবঃ) আধ্যাত্মিক-বল (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (বাবৃধে) বৃদ্ধি করেন, যে আধ্যাত্মিক-বল (বৃষ্ণ্যম্) সকলের ওপর সুখ বর্ষণ করে। (পূর্বথা) পূর্ব অনাদিকালের সদৃশ (অদ্য) আজও (আয়বঃ) উপাসকগণ, (অস্য) এই পরমেশ্বরের (তং মহিমানম্) সেই মহিমার (অনুষ্টুবন্তি) নিরন্তর-স্তবন করে।
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