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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - सीता छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - कृषि
    1

    इन्द्रः॒ सीतां॒ नि गृ॑ह्णातु॒ तां पू॒षाभि र॑क्षतु। सा नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । सीता॑म् । नि । गृ॒ह्णा॒तु॒ । ताम् । पू॒षा । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ । सा । न॒: । पय॑स्वती । दु॒हा॒म् । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥१७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभि रक्षतु। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । सीताम् । नि । गृह्णातु । ताम् । पूषा । अभि । रक्षतु । सा । न: । पयस्वती । दुहाम् । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥१७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    खेती की विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) भूमि जोतनेवाला (सीताम्) हल की रेखा [जुती धरती] को (नि) नीचे (गृह्णातु) दबावे, (पूषा) पोषण करनेवाला [किसान] (ताम्) उस [जुती धरती] की (अभिरक्षतु) सब ओर से रखवाली करे। (सा) वह (पयस्वती) पानी से भरी [जुती धरती] (नः) हमको (उत्तराम्-उत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) अनुकूल क्रिया से (दुहाम्) भरती रहे ॥४॥

    भावार्थ

    किसान बीज बोने के पीछे जुती धरती को पटेले से चौरस करके रक्षा करे और यथासमय पानी देता रहे जिससे खेतों में ठीक-ठीक उपज होवे ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० ४।५७।७ में है और इसका उत्तरार्ध अ० ३।१०।१। में आ चुका है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(इन्द्रः) ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति इरा+दॄ विदारणे रक्। इन्द्र इरां दृणातीति वा०-निरु० १०।८। इराया भूमेर्विदारकः कर्षकः। (सीताम्) दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। इति षिज् बन्धे-क्त। क्षेत्रे हलेन कृता रेखा। कर्षितभूमिरित्यर्थः। (नि) नीचैः। (गृह्णातु) सम्पादयतु। (पूषा) पोषकः कृषीवलः। (अभि) सर्वतः। (रक्षतु) पालयतु। (पयस्वती) उदकवती सती। (नः) अस्मान्। (दुहाम्) द्विकर्मकः। दुग्धाम्। प्रपूरयतु। (उत्तराम्-उत्तराम्) अतिशयेनोत्कृष्टाम्। (समाम्) अ० ३।१०।१। समक्रियाम्। अनुकूलक्रियाम् ॥

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    विषय

    पयस्वती सीता

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = [इरां दुणाति-निरु०१०.८] हल के द्वारा पृथिवी का विदारण करनेवाला यह (कृषक सीताम्) = लाङ्गलपद्धिति को (निगृहातु) = [नीचीनं गृहातु] अधिक-से-अधिक नीचे तक ग्रहण करे। (तम्) = उस लागलपद्धति को (पूषा) = अन्न आदि के द्वारा सबका पोषण करनेवाला यह किसान (अभिरक्षतु) = रक्षित करे। २. (सा) = वह लाङ्गलपद्धति (पयस्वती) = जलवाली होती हुई (न:) = हमारे लिए (उत्तराम् उत्तराम् समाम्) = अगले-अगले वर्षों में (दुहाम्) = जो-चावल आदि अन्नों का दोहन करनेवाली हो।

    भावार्थ

    हल कुछ गहराई तक भूमि को खोदनेवाला हो | हल-जनित सीताएँ ठीक से सुरक्षित हों। ये पानी से सींची जाकर अनों को उत्पन्न करनेवाली हों।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) सम्राट् (सीताम्) कृष्टभूमि में हल की लकीर का (निगृह्णातु) निग्रह करे, नियन्त्रण करे, (पूषा) पोषण का अधिकार (ताम्) उस सीता की (अभी रक्षतु) सर्वतः रक्षा करे। (सा) वह कृष्टभूमि अर्थात् हल की पद्धतिवाली भूमि (उत्तराम्, उत्तराम्) उत्तरोत्तर (समाम्) वर्षों में (पयस्वती) दुग्ध तथा जलवाली हुई (नः) हमें (दुहाम्) दुग्धादि देती रहे।

    टिप्पणी

    [इन्द्र: अर्थात् सम्राट्, निज साम्राज्य में, नियम निर्माण करे कि जिसकी भूमि है, और जिसने उसमें बीजावाप किया है, उसपर अधिकार उसी का रहे यह है "नि गृह्णातु"। पूषा है सीता से प्राप्त पुष्टान्न का अधिकारी, वह उस भूमि की रक्षा करता रहे। पयः के दो अर्थ हैं जल तथा दुग्ध। कृष्टभूमि में बीजवाप हो जाने पर उसके सींचने का भी अधिकारी पूषा है। वह जलप्रबन्ध कर अन्नवती भूमि में जलसेचन का भी प्रबन्ध करे। "उत्तराम् उत्तराम् समाम्" उत्तरोत्तर वर्षों में भी भूमि के पूर्व स्वामी का स्थायित्व बना रहना चाहिए।]

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    विषय

    कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।

    भावार्थ

    अध्यात्म-कृषि का उपदेश करते हैं। (इन्द्रः) राजा जिस प्रकार (सीतां) कृषि से उत्पन्न हुए कर को स्वयं अपने लिये ग्रहण करता है और (तां पूषां अभिरक्षतु) और ‘पूषा-भांगदुह्’ नामक अधिकारी उसकी रक्षा करता है उसी प्रकार यह (इन्द्रः) आत्मा (सीतां) शरीर, मन, आत्मा तीनों को एक सूत्र में बांधने वाली प्राण शक्ति चेतना को (नि गृह्णातु) व्यवस्थित करे। (पूषा) पोषण स्वभाव वाला प्राण (तां रक्षतु) उसकी रक्षा करे। (सा) वह (पयस्वती) आनन्द रस की वर्षा करने हारी, ऋतम्भरा कामधेनु (उत्तरां उत्तराम् समाम्) प्रति वर्ष, उत्तरोत्तर अधिक फल देने वाली कृषि के समान (दुहाम्) ब्रह्मानन्द, योग-समाधिजन्य समता-रस को अधिकाधिक उत्पन्न करे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘पूषा अनुयच्छतु’ इति ऋ०। ‘पूषा मह्यं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Farming

    Meaning

    Let Indra, the farmer, take over and look after the furrow with seed. Let the sun shine over the seed and protect and promote the growth. Let Pusha, fertility of nature, feed, energise and promote the crop. And let the earth mother, full of the milk of life, produce more and more of pure foods year by year for us.

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    Translation

    May the resplendent Lord, Indra, hold down the furrow (sītā), let Pusan, the lord of protection defend it. Let it rich in milk, furnish us more and more every summer.(Also Re. IV.47.7)

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    Translation

    May Indra, the air with ain make furrow normal, may the Sun preserve its fertility. May it well-irrigated yield us good crop through each succeeding year.

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    Translation

    Just as a king realizes the land revenue, and the treasury officer preserves it, so should the soul determine the breath-force. The nourishing breath should sustain the soul. May God create more and more joy obtainable through yogic concentration, as agriculture produces more corn through each succeeding year.

    Footnote

    See Rig, 4-57-7, and Atharva, 3-10-1

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(इन्द्रः) ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति इरा+दॄ विदारणे रक्। इन्द्र इरां दृणातीति वा०-निरु० १०।८। इराया भूमेर्विदारकः कर्षकः। (सीताम्) दुतनिभ्यां दीर्घश्च। उ० ३।९०। इति षिज् बन्धे-क्त। क्षेत्रे हलेन कृता रेखा। कर्षितभूमिरित्यर्थः। (नि) नीचैः। (गृह्णातु) सम्पादयतु। (पूषा) पोषकः कृषीवलः। (अभि) सर्वतः। (रक्षतु) पालयतु। (पयस्वती) उदकवती सती। (नः) अस्मान्। (दुहाम्) द्विकर्मकः। दुग्धाम्। प्रपूरयतु। (उत्तराम्-उत्तराम्) अतिशयेनोत्कृष्टाम्। (समाम्) अ० ३।१०।१। समक्रियाम्। अनुकूलक्रियाम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) সম্রাট্ (সীতাম্) কৃষ্টভূমিতে/কর্ষিতভূমিতে লাঙ্গলের রেখার (নিগৃহ্ণাতু) নিগ্রহ করুক, নিয়ন্ত্রণ করুক, (পূষা) পোষণের অধিকারী (তাম্) সেই সীতা-এর (অভি রক্ষতু) সর্বতোভাবে রক্ষা করুক। (সা) সেই কৃষ্টভূমি অর্থাৎ লাঙ্গলের পদ্ধতিযুক্ত ভূমি (উত্তরাম্, উত্তরাম্) উত্তরোত্তর (সমাম্) বর্ষগুলোতে (পয়স্বতী) দুগ্ধ ও জলসমৃদ্ধ হয়ে (না) আমাদের (দুহাম্) দুগ্ধাদি দিতে থাকুক।

    टिप्पणी

    [ইন্দ্রঃ অর্থাৎ সম্রাট্, নিজ সাম্রাজ্যে, নিয়ম নির্মাণ করুক যে, যার ভূমি, এবং যে তার মধ্যে বীজ বপন করেছে, সেই ভূমিতে অধিকার তাঁরই থাকবে। এটাই হলো "নি গৃহ্ণাতু"। পূষা হলো সীতা-এর থেকে প্রাপ্ত পুষ্টান্নের অধিকারী, সে সেই ভূমির রক্ষা করতে থাকুক। পয়ঃ-এর দুটি অর্থ হলো জল এবং দুগ্ধ। কৃষ্টভূমিতে বীজবপন হয়ে যাওয়ার পর তার সিঞ্চনের অধিকারীও হলো পূষা। সে জলের ব্যবস্থা করে অন্নবতী জমিতে জল সেচনেরও ব্যবস্থা করুক। "উত্তরাম্ উত্তরাম্ সমাম্" উত্তরোত্তর বর্ষগুলোতেও ভূমির পূর্ব স্বামীর স্থায়িত্ব থাকা উচিত।]

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    मन्त्र विषय

    কৃষিবিদ্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ভূমি কর্ষণকারী (সীতাম্) হালের রেখা [কর্ষিতজমি]কে (নি) নীচে (গৃহ্ণাতু) অবনমিত করবে/করুক, (পূষা) পোষণকারী [কৃষক] (তাম্) সেই [কর্ষিতজমি] এর (অভিরক্ষতু) সব দিক থেকে রক্ষা করবে/করুক। (সা) সেই (পয়স্বতী), জলযুক্ত [কর্ষিতজমি] (নঃ) আমাদের (উত্তরাম্-উত্তরাম্) উত্তম উত্তম (সমাম্) অনুকূল ক্রিয়ার সহিত (দুহাম্) পূরণ করুক॥৪॥

    भावार्थ

    কৃষক বীজ বপনের পরে কর্ষিত জমি সমতল করে রক্ষা করুক এবং যথাসময় জল দিতে থাকুক যাতে জমিতে সঠিকভাবে শস্য হয় ॥৪॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে ঋ০ ৪।৫৭।৭ এ রয়েছে এবং এর উত্তরার্ধ অ০ ৩।১০।১। এ আছে ॥৪॥

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