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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - सीता छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृषि
    1

    शु॒नं सु॑फा॒ला वि तु॑दन्तु॒ भूमिं॑ शु॒नं की॒नाशा॒ अनु॑ यन्तु वा॒हान्। शुना॑सीरा ह॒विषा॒ तोश॑माना सुपिप्प॒ला ओष॑धीः कर्तम॒स्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒नम् । सु॒ऽफा॒ला: । वि । तु॒द॒न्तु॒ । भूमि॑म् । शु॒नम् । की॒नाशा॑: । अनु॑ । य॒न्तु॒ । वा॒हान् । शुना॑सीरा । ह॒विषा॑ । तोश॑माना । सु॒ऽपि॒प्प॒ला: । ओष॑धी: । क॒र्त॒म् । अ॒स्मै ॥१७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्। शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुनम् । सुऽफाला: । वि । तुदन्तु । भूमिम् । शुनम् । कीनाशा: । अनु । यन्तु । वाहान् । शुनासीरा । हविषा । तोशमाना । सुऽपिप्पला: । ओषधी: । कर्तम् । अस्मै ॥१७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    खेती की विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुफालाः) सुन्दर फाले (शुनम्) सुख से (भूमिम्) भूमि को (वि तुदन्तु) जोतें। (कीनाशाः) क्लेश सहनेवाले किसान (वाहान् अनु) बैलादि वाहनों के पीछे-पीछे (शुनम्) सुख से (यन्तु) चलें। (हविषा) जल से (तोशमाना=तोषमानौ) सन्तुष्ट करनेवाले (शुनासीरा=०-रौ) हे पवन और सूर्य तुम दोनों ! (अस्मै) इस पुरुष के लिए (सुपिप्पलाः) सुन्दर फलवाली (ओषधीः) जौ, चावल आदि औषधियाँ (कर्तम्) करो ॥५॥

    भावार्थ

    चतुर किसान लोग उत्तम कृषिशस्त्रों, उत्तम बैल आदिकों और पानी आदि की सुधि रखने से उत्तम अन्नादि पदार्थ उत्पन्न करते हैं, इसी प्रकार विद्वान् लोग विद्याबल से अनेक शिल्पों का आविष्कार करके संसार को सुख पहुँचाते और आप सुख भोगते हैं ॥५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० ४।५७।८ और य० १२।६९ में है ॥ यजुर्वेद अ० २२ म० २२ में वर्णन है−निका॒मे निका॑मे नः प॒र्जन्यो वर्षतु॒ फल॑वत्यो न॒ ओषधयः पच्यन्ताम् ॥ कामना के अनुसार ही हमारे लिए मेह बरसे, हमारे लिए उत्तम फलवाली जो आदि ओषधियाँ पकें ॥

    टिप्पणी

    ५−(शुनम्) सुखेन। (सुफालाः) फल भेदने-घञ्। फल्यते विदार्यते भूमिरनेन। शोभनाः फला लाङ्गस्थलौहभेदाः। (वि तुदन्तु) तुद व्यथने। विद्गारयन्तु। विकृषयन्तु। (भूमिम्) पृथिवीम्। (कीनाशाः) क्लिशेरीच्चोपधायाः कन् लोपश्च लो नाम् च। उ० ५।५६। इति क्लिशू विबाधने, बधे वा-कन्, उपधाया ईत्वं ललोपो नामागमश्च। क्लेशसहनशीलाः। कर्षकाः। (अनु) अनुसृत्य। (यन्तु) गच्छन्तु। (वाहान्) वहनशीलान् बलीवर्दादीन्। (शुनासीरा) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति शुन गतौ-क। कॄशॄपॄकटिपटि०। उ० ४।३०। इति सृ गतौ-ईरन्, टि लोपः। शुनश्च सीरश्च। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। इति पूर्वपददीर्घः। शुनासीरौ शुनो वायुः शु एत्यन्तरिक्षे सीर आदित्यः सरणात्। निरु० ९।४०। हे वाय्वादित्यौ। (हविषा) अ० १।४।३। उदकेन, निघ० १।१२। (तोशमाना) षस्य शः। तोषमाणौ। सन्तोषकौ। (सुपिप्पलाः) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति पॄ पालनपूरणयोः-कलप्रत्ययः। पृषोदरादित्वात् साधुः। पिप्पलम्, उदकम्-निघ० १।१२। पिप्पलं पालकं फलम्-इति सायणः-ऋग्वेदभाष्ये म० १।१६४।२२। शोभनफलोपेताः। (ओषधीः) अ० १।२३।१। व्रीहियवाद्याः। (कर्तम्) युवां कुरुतम् (अस्मै) उद्योगिने पुरुषाय ॥

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    विषय

    सुपिप्पला ओषधि:

    पदार्थ

    १. (सुफाला) = शोभन लाङ्गलमुख [फाल] (भूमिम्) = भूमि को (शुनम्) = सुखकररूप में (वितुदन्तु) = कृष्ट करें-जोतें। (कीनाशा:) = किसान (शुनम्) = सुखपूर्वक (वाहान् अनुयन्तु) = बैलों के पीछे चलें।

    २. (शुनासीरा) = [शुनो वायुः, सीर आदित्य-नि० ९.४०] वायु और सूर्य (हविषा) = अग्निहोत्र में आहुत हव्य पदार्थों से (तोशमाना) = [तोश to kill] सब कृमियों का नाश करते हुए (अस्मै) = इस कृषक के लिए (ओषधी:) =  जौ-चावल आदि अन्नों को (सुपिप्पलाः कर्तम्) = शोभन फलोंवाला करें।

    भावार्थ

    कृषि के लिए उत्तम फालोंवाले हल हों, उत्तम बैल हों, किसान समझदार हों, अग्निहोत्र द्वारा सूर्य व वायु कृमिनाशक हों। इसप्रकार सब ओषधियाँ उत्तम फलों से युक्त हों।

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    भाषार्थ

    (सुफाला:) शोभन फालोंवाले हल (शुनम्) सुखपूर्वक (भूमिम्) भूमि को (वितुदन्तु) काटें, (कीनाशाः) किसान (शुनम्) सुखपूर्वक (वाहान्) बैलों के (अनु) पीछे पीछे (यन्तु) चलें। (शुनासीरौ) वायु और आदित्य (हविषा) जल द्वारा (तोशमानौ) किसानों को सन्तुष्ट (कर्तम्) करें और (अस्मै) इसके लिए (औषधि:) औषधि रूप व्रीहि-यव आदि को (सुपिप्पलाः) उत्तम फलों से युक्त (कर्तम्) करें। "कर्तम्" का अन्वय दो बार हुआ है।

    टिप्पणी

    [हविषा=हविः उदकनाम (निघं० १।१२)। शुनासीरा=शुनो वायुः सीर आदित्यः (निरुक्त ९।४।४०; पदसंख्या ३४), मेघ वायु में भरे हुए, वर्षा करते हैं; आदित्य तीक्ष्ण रश्मियों द्वारा भूमिष्ठ उदक को वाष्पीभूत कर वायु में मेघ को स्थापित करता है। तुदन्तु=तुद व्यथने (तुदादिः) व्यथा है, काटना, भूमि को।]

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    विषय

    कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।

    भावार्थ

    अध्यात्म-योग के तत्व को पुनः कृषि कर्म के दृष्टान्त से उपदेश करते हैं । (सुफालाः) उत्तम, तीक्ष्ण फालिएं, हल के नीचे लगीं लोहे की तीक्ष्ण हलिएं (शुनं) खूब तेजी से सुखपूर्वक (भूमिं) भूमि को (वि तुदन्तु) खोदें। और (कीनाशाः) किसान लोग (शुनं) सुखपूर्वक (वाहान्) अपने हल को वाहने वाले बैलों के पीछे २ (अनु-यन्तु) चलें । हे (शुनासीराः) हे शुन और सीर ! वायु और सूर्य तुम दोनों (हविषा) पृथिवीस्थ जल से (तोशमाना) पृथिवी को ही सेचन करते हुए (अस्मै) इस आत्मा के लिये या इस संसार के लिये या हमारे लिये (सुपिप्पलीः) उत्तम फलों से सम्पन्न (ओषधीः) अन्न आदि ओषधियों को (कर्तम्) उत्पन्न करो। अध्यात्म पक्ष में—उत्तम फालियां प्राण ही इस भूमि, क्षेत्र या अन्तः करण का या अविद्या रूप क्षेत्र का विनाश करें, (कीनाशाः) सब अज्ञानों का नाश करने हारे विद्वान् उन प्राणों का आयमन करें। या प्राणगण इन्द्रियों के द्वारों में ठीक रीति से गमन करें। शुन-प्राण वायु और सीर-अपान वायु दोनों ‘हविः’ अर्थात् कर्म योग से वशीभूत होकर इस आत्मा को उत्तम फलसम्पन्न और पापनाशक ज्ञान, ध्यान-वृत्तियों को उत्पन्न करे ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘शुनं नः फाला’ इति ऋ०। ‘वि कृषन्तु’ ऋ०, यजु०। (द्वि०) ‘कीनाशो अभ्येतु वाहैः’ इति मै० सं०। ‘कीनाशा अभियन्तु वाहेः’ इति ऋ०। हविषा जलेनेत्युव्वटमहीधरौ। ‘तोषमाणा’ इति सायणसम्मतः पाठः। ‘शुनं केनाशो अन्वेतु वाहं शुनंफालो विनदन्नयतु भूमिम्। शुनासीरा हविषा यो यजत्रै ! सुपिप्पला ओषधयः सन्तु तस्मै।’ इति पैप्प० सं० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Farming

    Meaning

    Let the ploughmen plough the land happily for our peace and nourishment. Let the farmers work with oxen and horses happily for peace. May the sun and air with the oblations of rich materials offered by us in yajna bless the herbs and plants with delicious fruit and nourishing grain.

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    Translation

    Successfully (Sunam), may the good ploughsharer (suphālā) insert or thrust apart the soil (earth, bhūmi); successfully,let the plough men(kīnāšah) follow the beasts of draft (vāhān), O šunāsira, do you both, furnishing the oblation (or giving the ceremonial āhuti) make the herbs (osadhi) rich in berries. (suphala) for this person. (also Rv. IV.47.8)

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    Translation

    Let the plough-shares turn up the plough-land in happiness and let hard-working ploughers go with oxen in happiness. Air and Sun nourishing the earth with water, cause our plants, bear abundant fruit.

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    Translation

    The Pranas alone happily remove ignorance. May the learned control their breaths. May in-going and out-going breaths, controlled through Karm Yoga, create for this soul, the nice fruitful, sin-killing knowledge.

    Footnote

    Pranas: Breaths. See Rig, 4-57-8 and Yajur, 12-69.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(शुनम्) सुखेन। (सुफालाः) फल भेदने-घञ्। फल्यते विदार्यते भूमिरनेन। शोभनाः फला लाङ्गस्थलौहभेदाः। (वि तुदन्तु) तुद व्यथने। विद्गारयन्तु। विकृषयन्तु। (भूमिम्) पृथिवीम्। (कीनाशाः) क्लिशेरीच्चोपधायाः कन् लोपश्च लो नाम् च। उ० ५।५६। इति क्लिशू विबाधने, बधे वा-कन्, उपधाया ईत्वं ललोपो नामागमश्च। क्लेशसहनशीलाः। कर्षकाः। (अनु) अनुसृत्य। (यन्तु) गच्छन्तु। (वाहान्) वहनशीलान् बलीवर्दादीन्। (शुनासीरा) इगुपधज्ञा०। पा० ३।१।१३५। इति शुन गतौ-क। कॄशॄपॄकटिपटि०। उ० ४।३०। इति सृ गतौ-ईरन्, टि लोपः। शुनश्च सीरश्च। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। इति पूर्वपददीर्घः। शुनासीरौ शुनो वायुः शु एत्यन्तरिक्षे सीर आदित्यः सरणात्। निरु० ९।४०। हे वाय्वादित्यौ। (हविषा) अ० १।४।३। उदकेन, निघ० १।१२। (तोशमाना) षस्य शः। तोषमाणौ। सन्तोषकौ। (सुपिप्पलाः) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति पॄ पालनपूरणयोः-कलप्रत्ययः। पृषोदरादित्वात् साधुः। पिप्पलम्, उदकम्-निघ० १।१२। पिप्पलं पालकं फलम्-इति सायणः-ऋग्वेदभाष्ये म० १।१६४।२२। शोभनफलोपेताः। (ओषधीः) अ० १।२३।१। व्रीहियवाद्याः। (कर्तम्) युवां कुरुतम् (अस्मै) उद्योगिने पुरुषाय ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (সুফলাঃ) শোভন ফালযুক্ত/ফলাযুক্ত লাঙ্গল (শুনম্) সুখপূর্বক (ভূমিম্) ভূমিকে (বিতুদন্তু) কাটুক/কর্তন করুক, (কীনাশাঃ) কৃষক (শুনম্) সুখপূর্বক (বাহান্) বলদদের (অনু) পেছনে-পেছনে (যন্তু) চলুক। (শুনাসীরৌ) বায়ু ও আদিত্য (হবিষা) জল দ্বারা (তোশমানৌ) কৃষকদের সন্তুষ্ট (কর্তম্) করুক এবং (অস্মৈ) এর জন্য (ওষধীঃ) ঔষধিরূপ ব্রীহি-যব আদিকে (সুপিপ্পলাঃ) উত্তম ফলযুক্ত (কর্তম্) করুক। "কর্তম্" এর অন্বয় দুবার হয়েছে।

    टिप्पणी

    [হবিষা= হবিঃ উদকনাম (নিঘং০ ১।১২)। শুনাসীরা= শুনো বায়ুঃ সীর আদিত্যঃ (নিরুক্ত ৯।৪।৪০; পদসংখ্যা ৩৪), মেঘ বায়ুতে আচ্ছন্ন হয়ে, বর্ষা করে; আদিত্য তীক্ষ্ণ রশ্মির দ্বারা ভূমিষ্ঠ উদককে বাষ্পীভূত করে বায়ুর মধ্যে মেঘকে স্থাপিত করে। তুদন্তু=তুদ ব্যথনে (তুদাদিঃ) ব্যথা হলো, কাটা/কর্তন করা, ভূমিকে।]

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    मन्त्र विषय

    কৃষিবিদ্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সুফালাঃ) সুন্দর ফাল (শুনম্) সুখপূর্বক (ভূমিম্) ভূমিকে (বি তুদন্তু) কর্ষণ করুক। (কীনাশাঃ) ক্লেশ সহ্যকারী কৃষক (বাহান্ অনু) বলদ আদি বাহনের পেছনে-পেছনে (শুনম্) সুখপূর্বক (যন্তু) চলুক। (হবিষা) জল দ্বারা (তোশমানা=তোষমানৌ) সন্তুষ্টকারী (শুনাসীরা=০-রৌ) হে পবন ও সূর্য তোমরা ! (অস্মৈ) এই পুরুষের জন্য (সুপিপ্পলাঃ) সুন্দর ফলযুক্ত (ঔষধীঃ) যব, চাল প্রভৃতি ঔষধি (কর্তম্) করো ॥৫॥

    भावार्थ

    চতুর কৃষকগণ উত্তম কৃষিশস্ত্র, উত্তম বলদ আদি এবং জল আদির যথাবৎ জ্ঞান রাখলে উত্তম অন্নাদি পদার্থ উৎপন্ন করে, এইভাবে বিদ্বানগণ বিদ্যাবল দ্বারা অনেক শিল্পের আবিষ্কার করে সংসারকে সুখ প্রদান করে এবং নিজে সুখ ভোগ করে ॥৫॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে ঋ০ ৪।৫৭।৮ এবং য০ ১২।৬৯ এ রয়েছে ॥ যজুর্বেদ অ০ ২২ ম০ ২২ এ বর্ণনা রয়েছে- নিকা॒মে নিকা॑মে নঃ প॒র্জন্যোং বর্ষতু॒ ফল॑বত্যো ন॒ ওষধয়ঃ পচ্যন্তাম্ ॥ কামনার অনুসারেই আমাদের জন্য মেঘ বর্ষিত হোক, আমাদের জন্য উত্তম ফলযুক্ত জোয়ার, বাজরা, ভুট্টা,বার্লি প্রভৃতি ঔষধি পক্ক হোক॥

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