अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - दक्षिणदिक्, इन्द्रः, तिरश्चिराजी, पितरगणः
छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मत्यष्टिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
2
दक्षि॑णा॒ दिगिन्द्रो॑ऽधिपति॒स्तिर॑श्चिराजी रक्षि॒ता पि॒तर॒ इष॑वः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽधिपतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥
स्वर सहित पद पाठदक्षि॑णा । दिक् । इन्द्र॑: । अधि॑ऽपति: । तिर॑श्चिऽराजि: । र॒क्षि॒ता । पि॒तर॑: । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ ।य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म: ॥२७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठदक्षिणा । दिक् । इन्द्र: । अधिऽपति: । तिरश्चिऽराजि: । रक्षिता । पितर: । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु ।य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । व: । जम्भे । दध्म: ॥२७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
सेना व्यूह का उपदेश।
पदार्थ
(दक्षिणा-०-णायाः) दक्षिण वा दाहिनी ओर वाली (दिक्=दिशः) दिशा का (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला इन्द्र [अधिकारी सेनापति] (अधिपतिः) अधिष्ठाता हो, (तिरश्चिराजिः) तिरछी धारीवाले साँप यद्वा पशु पक्षी आदि की पङ्क्ति [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक हो, (पितरः) रक्षा करने हारे (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः) उन (अधिपतिभ्यः) अधिष्ठाताओं और.... [म० १] ॥२॥
भावार्थ
उक्त दिशा में [इन्द्र पदधारी सेनापति] (तिरश्चिराजिः) नाम सेना व्यूह करके शत्रुओं को जीतकर.... [म० १] ॥२॥
टिप्पणी
२−(दक्षिणा) दक्षिणायाः (दिक्) दिशः। दिशायाः। उभयत्र विभक्तेर्लुप् (तिरश्चिराजिः) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति तिरस्+अञ्चू गतिपूजनयोः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। उगितश्च। पा० ४।१।६। अत्र वार्त्तिकम्। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। इति ङीप्। छान्दसो ह्रस्वः। वसिवपियजिराजि०। उ० ४।१२।५। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये च-इञ्। तिरश्च्यः तिर्यग् अवस्थिता राजयः, आवलयः, यस्य तथाविधः सर्पः-इति सायणः। तथाविधसर्पवत् सेनाव्यूहः। यद्वा तिरश्चीनां तिर्यग्जातीनां पशुपक्ष्यादीनां पङ्क्तिवत् पङ्क्तिर्यस्य तथाविधः सेनाव्यूहः (पितरः) अ० १।२।१। रक्षकाः। इषवः, इत्यस्य विशेषणम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
प्राची दिशा
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
सबसे प्रथम प्राची दिक्, दक्षिणी दिक्, प्रतीची दिक्, उदीची दिक् ध्रुवा, दिक ऊर्ध्वा दिक् ईशान कोणें और दक्षिणाय कृति कहलाती है ये अष्ट भुजाएं कहलाती हैं। यह जो प्रकृति का सर्वत्र ब्रह्माण्ड, प्रकृति की जो रचना हो रही है वह सबसे प्रथम पूर्व दिशा से प्रकाश आता है। वह प्रातःकाल में अदिति, सूर्य उदय होता है इसीलिए उस मां का सबसे प्रथम भुज प्राची दिक्, हमारे यहाँ पूर्व दिशा में आता है जिसमें अदिति उत्पन्न होते हैं।
वह प्रकाश का भण्डार है। प्रातः काल होते ही प्रत्येक मानव पूर्व मुख हो करके वह याग करता है। क्योंकि पूर्वाभिमुख होकर के याग इसीलिए, क्योंकि वह प्रकाश का भण्डार हैं वह मां इस प्रकृति का एक भुज कहलाता है। उसके एक भुज में प्रकाश है।
वह प्रकाश कैसा है? पूर्व दिशा से ही सूर्य उदय होता है। वह ऊषा और कान्ति के सहित आता है। प्रातःकालीन जब सूर्य उदय होती है, तो ऊषा और कान्ति प्रसाद रूप में मानव को प्राप्त होती है। हे मानव! तू उस प्रसाद को प्राप्त करने वाला बन। जब ऊषाकाल होता है उस ऊषाकाल में, अन्तरिक्ष में लालिमा होती है, वह लालिमा मानव के नेत्र का प्रकाश बन करके मानव को अमृत बिखेरती रहती है। प्रत्येक मानव अमृत को पान करता रहता है।
हमारे ऋषि मुनियों ने कहा कि जो साधना करने वाले पुरुष हैं, जो गृह में रहने वाले पुरुष हैं, वे सदैव जागरूक हो जाएं और वे पूर्वाभिमुख हो करके, अपना ध्यान अथवा साधना करने में सदैव रत्त रहें। क्योंकि वह प्रकाश का भण्डार है। क्योंकि प्रकाश ही तो मानव का जीवन है। प्रकाश के आने पर कांति बन करके आती है, अन्धकार समाप्त हो जाता है। क्योंकि अन्धकार अज्ञान का प्रतीक है और प्रकाश ज्ञान का प्रतीक माना गया है।
सबसे प्रथम ये पूर्व कहलाता है। यह देवी कि एक भुजा कहलाती है, मां काली की एक भुजा कहलाती है।
विषय
दक्षिणा दिक्
पदार्थ
१. (दक्षिणा दिक्) = दाक्षिण्य की दिशा है। जो भी व्यक्ति 'प्राची' का पाठ पढ़कर निरन्तर आगे बढ़ता चलेगा, वह उस-उस कार्य में अवश्य निपुण बनेगा ही। इस नैपुण्य के कारण इसका ऐश्वर्य वृद्धि को प्राप्त होगा, अत: इस दिशा का (अधिपतिः) = स्वामी (इन्द्रः) = परमैश्वर्याशाली है। २. इस नैपुण्य की (रक्षिता) = रक्षक (तिरश्चिराजी) = पशु-पक्षियों की पंक्ति हैं। प्रभु ने इनमें वासनात्मकरूप [instinct] से दाक्षिण्य रक्खा है। मधुमक्षिका किस अद्भुत कुशलता से फूलों से रस लेती है और शहद का निर्माण करती है। चील किस कुशलता से आकाश में पंख हिलाये बिना ही उड़ती जाती है। सिंह का नदी को सीधा तैरना कितना विस्मयकारक है। ३. इस नैपुण्य के लिए (इषव:) = प्रेरणा देनेवाले (पितरः) = माता-पिता हैं। ये अपने सन्तानों को निरन्तर निपुण बनने की प्रेरणा देते रहते हैं। [शेष पूर्ववत्]।
भावार्थ
हम दक्षिण दिशा से नैपुण्य प्राप्त करने का संकेत ग्रहण करें। नैपण्य हमें ऐश्वर्यशाली बनाएगा। प्रभु ने इस नैपुण्य को पशु-पक्षियों में रक्खा है। माता-पिता सदा इस नैपुण्य के लिए सन्तानों को प्रेरणा देते रहते हैं।
भाषार्थ
(दक्षिणा दिक्) दक्षिण दिशा है, (तिरश्चिराजी) टेढ़ी रेखा वाला (इन्द्रः) इन्द्र१ [विद्युत्] (रक्षिता) रक्षा करता है, (पितरः) पालक वायुएँ (इषवः) इषु है। (तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो, (अधिपतिभ्यः नमः) उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (रक्षितृभ्यः नमः ) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (इषुभ्यः नमः) इषुरुप उनके प्रति प्रह्णीभाव हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु) हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे (व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी
[दक्षिण समुद्र से जब मानसून वायु चलती है, तब यह मेघ भरी होती है और इसमें इन्द्र अर्थात् विद्युत टेढ़ी रेखा में चलती हुई चलती है, जोकि मेघ को ताड़ित कर वर्षा करती है।२] [१. इन्द्र मध्यस्थानी देवता है। २. वर्षा प्रथम पश्चिम दिशा से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् प्रधानवर्षा दक्षिण समुद्र से मानसून वायुओं में प्रकट होती है। इन्हें पितरः कहा है, ये पितृवत् हमारी रक्षा करती हैं। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रथम वर्षा का प्रारम्भ पश्चिम से, और तत्पश्चात् प्रधान वर्षा का दक्षिण समुद्र से आगमन होना।]
विषय
शक्तिधारी देव के छः रूप ।
भावार्थ
(दक्षिणा दिक्) दक्षिण दिशा का (इन्द्रः अधिपतिः) इन्द्र अधिपति और (तिरश्चिराजी रक्षिता) टेढ़ों पर राज्य करने वाला, उन्हें अपनी दण्ड शक्ति का प्रभुत्व दिखलाने वाला तिर्यग् जन्तुओं में भी विविध रूप से चमत्कारकारी प्रभु रक्षक है। (पितरः) पालक पितृगण उसके इषु = बाण रूप हैं। (तेभ्यः नमः इत्यादि पूर्व मंत्रमें देखो)
टिप्पणी
‘तिरश्चीनराजी रक्षिता’ इति मै० सं०। ‘बसव इषवः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रा अग्न्यादयश्च बहवो देवताः। १-६ पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा अष्टिः। २ अत्यष्टिः। ५ भुरिक्। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Protective ircle of Divine Powers
Meaning
On the right in the southern quarter, Indra, mighty controller of all crooked forces of the world, is the ruling lord and guardian spirit, his arrows being Pitr pranas and the light of knowledge and senior wisdom. Honour and adoration to all of them! Homage and worship to the ruling lord, homage and service to the protectors, honour and reverence to the arrows, homage and reverence to all these. O lord, whoever bears hate and jealousy toward us, and whoever or whatever we hate to suffer, all that we deliver unto your divine justice.
Translation
‘Southern region; Lightening is its lord. Tirašcirājī (snake | with transverse streaks) is its defender. Pitarah (six seasons) ` are the arrows. Our homage be to them; homage to the lords; homage to defenders; homage to the arrows; homage to all of them. Him, who hates us and whom we do hate, we commit to your jaws. `
Translation
The Omnipotent God is Lord of the South, His rows of insects and moths are Protection for us; rays of the luminous bodies are His arrows etc., etc.
Translation
A foe-conquering hero is regent of the south, he who never transgresses the moral law is its warder, powers of procreation are its arrows. Worship to these the regents, these the warders, and to the arrows, yea to these all be worship. Within your jaws of justice, we lay the man who hateth us and whom we dislike.
Footnote
South is symbolic of दक्षता i.e., ability, fitness, strength of will, energy and resoluteness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(दक्षिणा) दक्षिणायाः (दिक्) दिशः। दिशायाः। उभयत्र विभक्तेर्लुप् (तिरश्चिराजिः) ऋत्विग्दधृक्०। पा० ३।२।५९। इति तिरस्+अञ्चू गतिपूजनयोः-क्विन्। अनिदितां हल उप०। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। उगितश्च। पा० ४।१।६। अत्र वार्त्तिकम्। अञ्चतेश्चोपसंख्यानम्। इति ङीप्। छान्दसो ह्रस्वः। वसिवपियजिराजि०। उ० ४।१२।५। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये च-इञ्। तिरश्च्यः तिर्यग् अवस्थिता राजयः, आवलयः, यस्य तथाविधः सर्पः-इति सायणः। तथाविधसर्पवत् सेनाव्यूहः। यद्वा तिरश्चीनां तिर्यग्जातीनां पशुपक्ष्यादीनां पङ्क्तिवत् पङ्क्तिर्यस्य तथाविधः सेनाव्यूहः (पितरः) अ० १।२।१। रक्षकाः। इषवः, इत्यस्य विशेषणम्। अन्यद् गतम् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
On our right hand side हमारे दक्षिण दिशा में
Word Meaning
दक्षिण – दाहने हाथ से कर्म प्रधान जीवन का संकल्प हमारे भीतर इन्द्र का दैवत्व स्थापित करता है. (परन्तु इन्द्र का आचरण भी तो स्वयं में निर्दोष नहीं था) अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मतान्ध बुद्धि भ्रष्ट हो कर हम भी जीवन में अपने लक्ष्य पाने के लिए , ग़लत रास्ते अपना कर , इन्द्र की तरह अपना संतुलन खो सकते हैं (तिरश्चिराजी) कुछ टेढ़े मेढ़े रास्ते भी अपना लेते हैं . ऐसे अवसरों पर हमारे पितरों का, पूर्व जनों का, शास्त्रों का मार्ग दर्शन हमारे लिए ठीक दिशा में कार्य करने लिए हमें बाण की तरह सही दिशा निर्देश करता है . इस इन्द्र देवत्व के प्रति हम प्रणाम करते हैं , इंद्र द्वारा जीवन में सुरक्षा प्रदान करने वाली उपलब्धियों को हम प्रणाम करते हैं . और जो हम से द्वेष करने वाले हमारे अभ्युदय मे बाधक शत्रु हैं उन्हें ईश्वरीय न्याय पर छोड़ते हैं. Right direction is symbolically and traditionally associated with performing of physical action by right hand and correct actions are perceived as right actions. In our right (hand) dwells the dexterity to perform actions in life as an entrepreneur to obtain our desired material objects in life. (Indra is the divine quality that provides the motivation of being the perfect entrepreneur in life in pursuit of material results. There is no insurmountable obstacle for Indra. He is always successfully victorious in his missions. ) In single minded pursuit of his object Indra the entrepreneur is apt to go astray and to achieve his objectives he is apt to employ unethical means also. At such times the wisdom of elders- Vedas, society- prides the course correction for the entrepreneur. This action oriented spirit in us provides us with life support. Those who follow the opposite life style of inaction are left to the wisdom of Nature’s justice to be dealt with.
बंगाली (2)
भाषार्थ
(দক্ষিণা দিক্) দক্ষিণ দিকের, (তিরশ্চিরাজী) তির্যক রেখাযুক্ত (ইন্দ্র) ইন্দ্র১ [বিদ্যু্ৎ] (রক্ষিতা) রক্ষা করে, (পিতরঃ) পালক বায়ুসমূহ (ইষবঃ) ইষুরূপ।(তেভ্যঃ) তার প্রতি (নমঃ) আমাদের প্রহ্বীভাবঃ/নমস্কার হোক, (অধিপতিভ্যঃ নমঃ) সেই অধিপতিদের প্রতি নমস্কার, (রক্ষিতৃভ্যঃ নমঃ) সেই রক্ষকদের প্রতি নমস্কার, (ইষুভ্যঃ নমঃ) ইষুরূপ/বাণরূপ তার প্রতি নমস্কার, (এভ্যঃ) এই সকলের প্রতি (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) হোক। (যঃ) যে/যারা (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে দ্বেষ/হিংসা করে, (যম্ বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) এবং যার সাথে প্রতিক্রিয়ারূপে আমরা দ্বেষ করি (তম্) তাকে/সেগুলোকে/তাদের (বঃ জম্ভে) তোমার চোয়ালে (দধ্মঃ) আমরা স্থাপিত করি।
टिप्पणी
[যখন বর্ষার বায়ু দক্ষিণ সমুদ্র থেকে প্রবাহিত হয়, তখন তা মেঘপূর্ণ থাকে এবং এর মধ্যে ইন্দ্র অর্থাৎ বিদুৎ বাঁকা রেখায় চলতে থাকে, যা মেঘকে তাড়িত করে বর্ষণমুখর করে২।] [১. ইন্দ্র হলো মধ্যস্থানী দেবতা।] [২. প্রথম পশ্চিম দিক থেকে বৃষ্টি শুরু হয়। পরে, প্রধান বর্ষা মৌসুমি বায়ু থেকে প্রকট হয়। ইহাকে পিতরঃ বলা হয়েছে, ইহা পিতৃবৎ আমাদের রক্ষা করে। ইহা বৈজ্ঞানিক তথ্য যে, প্রথম বর্ষার প্রারম্ভ পশ্চিম দিক থেকে এবং পরে প্রধানবৃষ্টি দক্ষিণ সমুদ্র থেকে আগমন হয়।]
मन्त्र विषय
সেনাব্যূহোপদেশঃ
भाषार्थ
(দক্ষিণা-০-ণায়াঃ) দক্ষিণ বা ডানদিকের (দিক্=দিশঃ) দিশার (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যসম্পন্ন ইন্দ্র [অধিকারী সেনাপতি] (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা, (তিরশ্চিরাজিঃ) তির্যক ধারযুক্ত সাপ যদ্বা পশু পক্ষী আদির পংক্তি [এর সমান সেনা ব্যূহ] (রক্ষিতা) রক্ষক হোক, (পিতরঃ) রক্ষা করার জন্য (ইষবঃ) বাণ হোক। (তেভ্যঃ) সেই (অধিপতিভ্যঃ) অধিষ্ঠাতা ও (রক্ষিতৃভ্যঃ) রক্ষকদের জন্য (নমো নমঃ) অনেক অনেক সৎকার বা অন্ন এবং (এভ্যঃ) এই (ইষুভ্যঃ) বাণ [বাণধারী] রক্ষকদের জন্য (নমোনমঃ) অনেক-অনেক সৎকার বা অন্ন (অস্তু) হোক। (যঃ) যে [শত্রু] (অস্মান্) আমাদের সাথে (দ্বেষ্টি) শত্রুতা করে, [অথবা] (যম্) যে [শত্রুদের সাথে] (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) শত্রুতা করি, [হে বীরগণ] (তম্) তাঁকে (বঃ) তোমাদের (জম্ভে) দৃঢ় বন্ধনে (দধ্মঃ) আমরা ধরি/স্থাপন করি ॥২॥
भावार्थ
উক্ত দিশায় [ইন্দ্র পদধারী সেনাপতি] (তিরশ্চিরাজিঃ) নামক সেনা ব্যূহ করে শত্রুদের জয় করে সৈনিকদের সহিত যশস্বী হয়ে ধর্মাত্মাদের রক্ষা করুক ॥২॥
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