अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
ऋषिः - अथर्वा
देवता - ध्रुवा दिक्, विष्णुः, कल्माषग्रीवः, वीरुधः
छन्दः - पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा भुरिगत्यष्टिः
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
ध्रु॒वा दिग्विष्णु॒रधि॑पतिः क॒ल्माष॑ग्रीवो रक्षि॒ता वी॒रुध॒ इष॑वः। तेभ्यो॒ नमो॑ऽधिपतिभ्यो॒ नमो॑ रक्षि॒तृभ्यो॒ नम॒ इषु॑भ्यो॒ नम॑ एभ्यो अस्तु। यो॒स्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मस्तं वो॒ जम्भे॑ दध्मः ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वा । दिक् । विष्णु॑: । अधि॑ऽपति: । क॒ल्माष॑ऽग्रीव: । र॒क्षि॒ता । वी॒रुध॑: । इष॑व: । तेभ्य॑: । नम॑: । अधि॑पतिऽभ्य: । नम॑: । र॒क्षि॒तृऽभ्य॑: । नम॑: । इषु॑ऽभ्य: । नम॑: । ए॒भ्य॒: । अ॒स्तु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । तम् । व॒: । जम्भे॑ । द॒ध्म: ॥२७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। योस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवा । दिक् । विष्णु: । अधिऽपति: । कल्माषऽग्रीव: । रक्षिता । वीरुध: । इषव: । तेभ्य: । नम: । अधिपतिऽभ्य: । नम: । रक्षितृऽभ्य: । नम: । इषुऽभ्य: । नम: । एभ्य: । अस्तु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । तम् । व: । जम्भे । दध्म: ॥२७.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
सेना व्यूह का उपदेश।
पदार्थ
(ध्रुवा=ध्रुवायाः) स्थिर (दिक्=दिशः) दिशा का (विष्णुः) कामों में व्यापक [सद्वैद्य] (अधिपतिः) अधिष्ठाता होवे, (कल्माषग्रीवः) चितकबरे वा काले गलेवाले साँप [के समान सेना व्यूह] (रक्षिता) रक्षक होवे, और (वीरुधः) जड़ी बूटी औषधें (इषवः) बाण होवें। (तेभ्यः अधिपतिभ्यः) उन अधिष्ठाताओं और.... [म० १] ॥५॥
भावार्थ
सद्वैद्य दृढ़ वा निश्चित स्थान में औषधालय से सैनिकों को स्वस्थ रक्खे और उसके साथ सेना ‘कल्माषग्रीवा’ नाम व्यूह बनाकर रहे, और सब मिलकर शत्रुओं को जीतकर... [म० १] ॥५॥
टिप्पणी
५−(ध्रुवा) अ० २।२६।४। ध्रुवायाः। स्थिरायाः (दिक्) दिशः। (विष्णुः) अ० ३।२०।४। वेवेष्टि कार्याणि स विष्णुः सद्वैद्यः (कल्माषग्रीवः) कल गतौ-क्विप्, मष वधे-अण्। शेवायह्वजिह्वाग्रीवा०। उ० १।१५४। इति गॄ निगलने-वन्। कल्माषः कृष्णवर्णः ग्रीवासु यस्य स कल्माषग्रीवः, एतदाख्यः सर्पः-इति सायणः। चित्रग्रीवायुक्तः कृष्णग्रीवायुक्तो वा सर्प इव सेनाव्यूहः (वीरुधः) अ० १।३२।१। विरोहणशीला ओषधयः। शिष्टं स्पष्टम् ॥
विषय
ध्रुवा दिशा
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः ध्रुवा में रमण करना। ध्रुवा कहते हैं, नीचे आभा कृतियों में, जहाँ मानव आसन पर विद्यमान होता है। साधक कहता है, हे प्रभु! हे ध्रुवा दिग् विष्णु! हे विष्णु! मेरे निचले स्थान में, भी तू ही विद्यमान है। तू कैसा पवित्र देवता है? वह कहता है ध्रुवा दिग् विष्णुः अधिपतिः दिग् विष्णु कह रहा है। वह दिग् विष्णुः की याचना कर रहा है। मैं जब चारों भुजाओं को जान लेता हूँ तो उस समय इस प्रकृति में दिग्विष्णु, दिग्विजय बन जाता हूँ। विष्णु के स्वरूप को जानने में कुछ कुछ सफलता को प्राप्त करने लगता हैं। यह साधक याचना करता है।
साधक यह विवेचना कर रहा है। तो वह कौन सा साधक है? जो दिग् विष्णु है? जो ध्रुवा में गति करने वाला है। जो प्रकृति की भी यह ध्रुवा गति में वह ज्ञानी गति करता है। वैज्ञानिक इसमें रमण करने लगता है। साधक ध्रुवा में प्रभु को दृष्टिपात करता है और उसे ध्रुवा में भी ऊर्ध्वा में भी, प्राची में भी, दक्षिणी में भी, प्रतीची में भी, उदीची में भी। मां ही मां दृष्टिपात होने लगती है।
हे ममतामयी मां! तू कैसी भोली है? तू कैसी महान् है? तू अन्धकार को समाप्त करके, तू प्रकाश में लाने वाली है। तू प्रत्येक मानव को प्रकाश में ला रही है और वह प्रकाश ही मानव को प्रतिष्ठित बनाता है। तेरा ममतामयी जो महत्व है वह मानव के हृदय में ओत प्रोत हो जाता है।
तो दिग् विष्णुरधिः पतिः वह दिग्विष्णुः है। विष्णु की हम याचना करते हैं। तो दिग्विष्णु माता के एक भुज में रहता है। वह ध्रुवा में भी रहने वाली है। तो इसीलिए यह मां का पांचवां भुज कहलाता है और छठा जो भुज है वह उर्ध्वा में रहता है।
विषय
ध्रुवा दिक्
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार हमें ऊपर-और-ऊपर उठना है। ऊपर उठने के लिए आधार का ध्रुव [स्थिर] होना आवश्यक है, अतः (धुवा दिक्) = स्थितरता की दिशा ध्रुवता का संकेत करती है। अपने आधार को हम बड़ा दृढ़ बनाएँ। नींव जीतनी विशाल होगी उतना ही ठीक, अत: इस दिशा का (अधिपति:) = स्वामी (विष्णु:) = [विष् व्यासौ] व्यापक उन्नतिवाला है। यह 'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों को खूब विकसित करने का प्रयत्न करता है। २. इस ध्रुवा दिक् का (अधिपति:) = स्वामी (कल्माषग्रीव:) = चित्रित कण्ठवाला है। विविध विद्याओं से सुभूषित कण्ठवाला व्यक्ति ही उन्नति की ध्रुव नींव की स्थापना करता है। (वीरुधः) = प्रतानिनी लताएँ-फैली हुई बेलें (इषवः) = प्रेरणा दे रही हैं, मानो ये कह रही हैं कि तुम भी हमारी भाँति अपने को फैलाओ। जितना अपने को फैलाओगे, उतनी ही तुम्हारी नीव दृढ़ बनेगी और तुम अधिक उन्नत हो सकोगे। [शेष पूर्ववत्]|
भावार्थ
हम अपनी उन्नति के आधार को दृढ़ बनाएँ। शरीर, मन, मस्तिष्क-तीनों को उन्नत करें। विविध विद्याओं से सुभूषित कण्ठवाले हों तथा फैली हुई बेलों से व्यापकता की प्रेरणा लें।
भाषार्थ
(ध्रुवा दिक्) ध्रुवा अर्थात् स्थिरा, पूथिवीरूपा, दिशा है, (विष्णु:) रश्मियों से व्याप्त आदित्य (अधिपतिः) अधिपति है। (कल्माषग्रीवः) यह कृष्णवर्णवाली लताओं को मालारूप में ग्रीवा में धारण किये हुआ है, (रक्षिता) हमारा रक्षक है, (वीरुधः) विविधरूप में आरोहण करनेवाली लताएँ और वृक्ष आदि इसके (इषवः) इषु हैं। (तेभ्यः) उन के प्रति (नमः) हमारा प्रह्णीभाव हो, (अधिपतिभ्यः नमः) उन अधिपतियों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (रक्षितृभ्यः नमः ) उन रक्षकों के प्रति प्रह्णीभाव हो, (इषुभ्यः नमः) इषुरुप उनके प्रति प्रह्णीभाव हो, (एभ्यः) इन सबके प्रति (नमः) प्रह्णीभाव (अस्तु) हो। (यः) जो (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, (यम् वयम् द्विष्मः) और जिसके साथ प्रतिक्रियारूप हम द्वेष करते हैं (तम्) उसे (व: जम्भे) तुम्हारी दाढ़ में (दध्मः) हम स्थापित करते हैं।
टिप्पणी
[विष्णुः=व्यश्नोतेर्वा (निरुक्त १२।२।१८), विष्णु अर्थात् आदित्य रश्मियों द्वारा व्याप्त होता है। रश्मियों द्वारा व्याप्त आदित्य को "अवि" भी कहा है (अथर्व० १०।८।३१), अवि है रक्षक, इसके सम्बन्ध में कहा है कि "यस्या रूपेणेमे वृक्षा हरितम्रजः" विष्णु अर्थात् आदित्य के ताप और प्रकाश द्वारा वीरुधें प्राप्त होती हैं, ये इषुरूप हैं, रोगों की विनाशिका हैं। अवशिष्ट मन्त्र के अर्थों तथा भावार्थों के लिए देखो मन्त्र (१)।]
विषय
शक्तिधारी देव के छः रूप ।
भावार्थ
(ध्रुवा दिक्) ध्रुवा, नीचे की, पृथ्वीतल की दिशा में (विष्णुः अधिपतिः) व्यापक प्रभु अधिपति है और (कल्माषग्रीवः) हरे लाल नाना रंगों से सुशोभित वृक्ष लता आदि से चित्रित वनस्पति-संसार जिस के ग्रीवा के समान हैं ऐसा प्रभु रक्षक है और (वीरुधः इषवः) लताएं उस के बाण हैं (तेभ्यो नमः ०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
‘कुल्माषग्रीवो’ इति पैप्प० सं०। ‘यमोऽधिपतिः’ इति तै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रा अग्न्यादयश्च बहवो देवताः। १-६ पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा अष्टिः। २ अत्यष्टिः। ५ भुरिक्। षडृर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Protective ircle of Divine Powers
Meaning
Netherward in the lower quarters, Vishnu, all pervasive lord of yajna, is the ruling guardian spirit, controller of greenery, his arrows being herbs and trees. Homage to all of them. Worship to the ruling lord, homage to the protectors, to the arrows, to all of these. O lord, whoever hates us, whoever we hate to suffer, all that we deliver unto your divine justice.
Translation
Nadir region; Visnu (the sun) is its lord. Kalmasagriva (spotty-necked snake) is its defender. Creeper plants are the arrows. Our -homage be to them; homage -to the lords; homage to the defenders; homage to the arrows; homage to all of them. Him, who hates us and whom we do hate, we commit to your jaws.
Translation
The Omnipresent God is the Lord of the regions down below us; various gases are His protection for us; plants and trees are his arrows etc., etc.
Translation
An enterprising person is ruler of the firm-set region, a man of action is its warder, plants are the arrows. Worship to these the rulers, these the warders, and to the arrows.Yea to these all be worship. Within your jaws of justice, we lay the man who hateth us and whom we dislike.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(ध्रुवा) अ० २।२६।४। ध्रुवायाः। स्थिरायाः (दिक्) दिशः। (विष्णुः) अ० ३।२०।४। वेवेष्टि कार्याणि स विष्णुः सद्वैद्यः (कल्माषग्रीवः) कल गतौ-क्विप्, मष वधे-अण्। शेवायह्वजिह्वाग्रीवा०। उ० १।१५४। इति गॄ निगलने-वन्। कल्माषः कृष्णवर्णः ग्रीवासु यस्य स कल्माषग्रीवः, एतदाख्यः सर्पः-इति सायणः। चित्रग्रीवायुक्तः कृष्णग्रीवायुक्तो वा सर्प इव सेनाव्यूहः (वीरुधः) अ० १।३२।१। विरोहणशीला ओषधयः। शिष्टं स्पष्टम् ॥
हिंगलिश (1)
Subject
Above us ध्रुवा ऊपर की दिशा में
Word Meaning
ध्रुवा पृथ्वी पर हमारे भौतिक जीवन के विकास का आधार विष्णु है जिस की रक्षा नाना प्रकार की वनस्पति लताओं का उदाहरण है जिन का विकास और उन्नति पृथ्वी के स्वाभाविक गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध दिशा में कार्य करने से होती है. इन वनस्पतियों का पोषण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध पौधों की जड़ों से low surface tension के द्वारा होता है. इस प्रकार प्रकृति के साधारण स्वभाव के विरुद्ध कर्म से ही प्रगति मिलती है. इसी प्रकार समस्त विकास और उन्नति आराम आलस्य जैसी स्वभाविक वृत्तियों के विरुद्ध कर्मठता द्वारा ही होता है. इस व्यवस्था के द्वारा हमारे विकास और उन्नति की व्यवस्था के लिए हम नमन करते हैं , और जो हमारे अध्यवसायी कर्मठ आचरण के हमारा चित्त को विचलित कर के सुचारु कार्य करने में बाधा रूपीशत्रु हैं उन्हें हम ईश्ररीय न्याय व्यवस्था पर छोड़ते है.
Tika / Tippani
( सृष्टि के नियमानुसार हर मरणधर्मा जब तक प्रकृति के क्षय नियम के विरुद्ध सहज स्वभाव और सद्प्रेरणा से निज प्रयत्न द्वारा जन्मोपरांत वृद्धि और शारीरिक उन्नति द्वारा यौवन बल और उन्नति को प्राप्त करता है, वही काल के नियमानुसार भौतिक जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुंच कर भौतिक क्षय को जरावस्था से होते हुए मृत्यु को पाता है. परंतु अपने प्रयत्न द्वारा ‘मृत्युर्मामृतं गमय’ के लक्ष को प्राप्त करनेमें सदैव लगा रहता है ) . On the physical plain according to laws of nature Entropy tends to infinity. Progress and growth are products of negative Entropy. In case of plants they grow upwards by defying the natural force of transpiration pull, surface tension , Root pressure against Gravitation . Growth of plants is made possible by the rise of nutrients through the roots of the plants against the force of Gravity by the self sustained force of low Surface Tension. We are grateful for our growth and progress for being provided with the wisdom to operate by negative Entropy and negative natural tendencies of easy life and laziness. We want to protect ourselves by distractions that form obstacles by diverting us from the path of living a life of hard work to make progress by negative Entropy, and leave the superior forces of Nature and society to deal with these distractions. (All things born grow and make progress till they progress proceeds as programmed to peak out by negative entropy on physical plane. Inevitable march of time takes its toll by natural law of entropy tending to infinity and leads to result in extinction of the life born.)
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ধ্রুবা দিক্) ধ্রুবা অর্থাৎ স্থিতিশীল, পৃথিবীরূপা, দিকের, (বিষ্ণুঃ) রশ্মির মাধ্যমে ব্যাপ্ত আদিত্য হলো (অধিপতিঃ) অধিপতি। (কল্মাষগ্রীবঃ) এই কৃষ্ণবর্ণযুক্ত লতাকে মালারূপে গ্রীবা/গলায় ধারন করে রয়েছে, (রক্ষিতা) আমাদের রক্ষক, (বীরুধঃ) বিবিধরূপে আরোহণকারী লতা এবং বৃক্ষ আদি যার (ইষবঃ) বাণস্বরূপ। (তেভ্যঃ) তার প্রতি (নমঃ) আমাদের প্রহ্বীভাবঃ/নমস্কার হোক, (অধিপতিভ্যঃ নমঃ) সেই অধিপতিদের প্রতি নমস্কার, (রক্ষিতৃভ্যঃ নমঃ) সেই রক্ষকদের প্রতি নমস্কার, (ইষুভ্যঃ নমঃ) ইষুরূপ/বাণরূপ তার প্রতি নমস্কার, (এভ্যঃ) এই সকলের প্রতি (নমঃ) নমস্কার (অস্তু) হোক। (যঃ) যে/যারা (অস্মান্ দ্বেষ্টি) আমাদের সাথে দ্বেষ/হিংসা করে, (যম্ বয়ম্ দ্বিষ্মঃ) এবং যার সাথে প্রতিক্রিয়ারূপে আমরা দ্বেষ করি (তম্) তাকে/সেগুলোকে/তাদের (বঃ জম্ভে) তোমার চোয়ালে (দধ্মঃ) আমরা স্থাপিত করি।
टिप्पणी
[বিষ্ণুঃ= ব্যশ্নোতের্বা (নিরুক্ত ১২।২।১৮), বিষ্ণু অর্থাৎ আদিত্য রশ্মি দ্বারা ব্যপ্ত হয়। রশ্মির দ্বারা ব্যপ্ত আদিত্যকে "অবি"ও বলা হয়েছে (অথর্ব০ ১০।৮।৩১), অবি হলো রক্ষক, এর সম্পর্কে বলা হয়েছে যে, "যস্যা রুপেণেম বৃক্ষা হরিতম্রজঃ"। বিষ্ণু অর্থাৎ আদিত্যের তাপ এবং আলো দ্বারা বীরুৎ বা ঔষধির প্রাপ্তি হয়, ইহা রোগবিনাশক তীররূপ। অবশিষ্ট মন্ত্রের অর্থ ও ভাবার্থের জন্য মন্ত্র দেখুন (১)]
मन्त्र विषय
সেনাব্যূহোপদেশঃ
भाषार्थ
(ধ্রুবা=ধ্রুবায়াঃ) স্থির (দিক্=দিশঃ) দিশার (বিষ্ণুঃ) কার্যে ব্যাপক [সদ্বৈদ্য] (অধিপতিঃ) অধিষ্ঠাতা হোক, (কল্মাষগ্রীবঃ) চিত্রবিচিত্র রঙের গ্রীবাযুক্ত বা কালো গ্রীবাযুক্ত সাপ [এর সমান সেনা ব্যূহ] (রক্ষিতা) রক্ষক হোক, এবং (বীরুধঃ) ঔষধি (ইষবঃ) বাণ হোক। (তেভ্যঃ) সেই (অধিপতিভ্যঃ) অধিষ্ঠাতা ও (রক্ষিতৃভ্যঃ) রক্ষকদের জন্য (নমো নমঃ) অনেক অনেক সৎকার বা অন্ন এবং (এভ্যঃ) এই (ইষুভ্যঃ) বাণ [বাণধারী] রক্ষকদের জন্য (নমোনমঃ) অনেক-অনেক সৎকার বা অন্ন (অস্তু) হোক। (যঃ) যে [শত্রু] (অস্মান্) আমাদের সাথে (দ্বেষ্টি) শত্রুতা করে, [অথবা] (যম্) যে [শত্রুদের সাথে] (বয়ম্) আমরা (দ্বিষ্মঃ) শত্রুতা করি, [হে বীরগণ] (তম্) তাঁকে (বঃ) তোমাদের (জম্ভে) দৃঢ় বন্ধনে (দধ্মঃ) আমরা ধরি/স্থাপন করি॥৫॥
भावार्थ
সদ্বৈদ্য দৃঢ় বা নিশ্চিত স্থানে ঔষধালয় দ্বারা সৈনিকদের সুস্থ রাখুক এবং তাঁর সাথে সেনা ‘কল্মাষগ্রীবা’ নামক ব্যূহ তৈরি করে থাকুক, এবং সমবেতভাবে শত্রুদের জয় করে সৈনিকদের সহিত যশস্বী হয়ে ধর্মাত্মাদের রক্ষা করুক ॥৫॥
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