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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ऋभुः देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त
    1

    लोम॒ लोम्ना॒ सं क॑ल्पया त्व॒चा सं क॑ल्पया॒ त्वच॑म्। असृ॑क्ते॒ अस्थि॑ रोहतु छि॒न्नं सं धे॑ह्योषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    लोम॑ । लोम्ना॑ । सम् । क॒ल्प॒य॒ । त्व॒चा । सम् । क॒ल्प॒य॒ । त्वच॑म् । असृ॑क् । ते॒ । अस्थि॑ । रो॒ह॒तु॒ । छि॒न्नम् । सम् । धे॒हि॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥१२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    लोम लोम्ना सं कल्पया त्वचा सं कल्पया त्वचम्। असृक्ते अस्थि रोहतु छिन्नं सं धेह्योषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    लोम । लोम्ना । सम् । कल्पय । त्वचा । सम् । कल्पय । त्वचम् । असृक् । ते । अस्थि । रोहतु । छिन्नम् । सम् । धेहि । ओषधे ॥१२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अपने दोष मिटाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ओषधे) हे तापनाशक ओषधि [के समान मनुष्य !] (लोम) रोम को (लोम्ना) रोम के साथ (संकल्पय) जमा दे, (त्वचम्) त्वचा को (त्वचा) त्वचा के साथ (संकल्पय) जोड़ दे, (ते) तेरा (असृक्) रुधिर और (अस्थि) हाड (रोहतु) उगे, (छिन्नम्) टूटा अङ्ग भी (संधेहि) अच्छे प्रकार मिलादे ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य ईश्वरविचार से अपने दोषों की चिकत्सा करे जैसे वैद्य ओषधि से करते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(लोम) अ० ३।३३।७। देहजातं केशाकारं द्रव्यम्। रोम। (लोम्ना) रोम्णा (संकल्पय) संक्लृप्तं पुनः स्वस्थानगतं कुरु। संयोजय (त्वचा) चर्मणा (त्वचम्) चर्म (छिन्नम्) भिन्नमङ्गम् (सं धेहि) संहितं संश्लिष्टं व्यापारक्षमं कुरु। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    छिन्न अंगों का सन्धान

    पदार्थ

    १. हे (ओषधे) = ओषधे! तू शरीरस्थ (लोम) = बाल को जोकि प्रहार से विश्लिष्ट [पृथक] हो गया है (लोम्ना) = अन्य बालों से (संकल्पय) = संक्लुप्त, अर्थात् पुनः स्थानगत कर दे। उसी प्रकार (त्वचम्) = त्वचा को (त्वचा) = पृथक् हुई त्वचा से (संकल्पय) = संक्लृप्त व मिला हुआ कर दे। २. (ते) = तेरा (असृ॑क्)-रुधिर जोकि अस्थियों के समीप से पृथक् हो गया है वह फिर से (अस्थि रोहतु) = तेरी अस्थियों को प्राप्त हो जाए। इसीप्रकार और भी (छिन्नम्) = जो-जो अङ्ग छिन हुआ है, उन सबको (सन्धेहि) = संश्लिष्ट व कार्यक्षम कर दे।

    भावार्थ

    रोहणी के प्रयोग से आघात से उत्पन्न हुए-हुए लोमों व त्वचा के विकार दूर हो जाएँ तथा सब छिन्न अङ्ग फिर से ठीक होकर कार्यक्षम हो जाएँ।

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    भाषार्थ

    (लोम) लोम को (लोम्ना) लोम के साथ (संकल्पय) समर्थित कर दे, स्वस्थानगत कर दे [हे लाक्षा !] (त्वचम्) त्वचा को (त्वचया) त्वचा के साथ (संकल्पय) समर्थित कर दे। (ते) तेरा (असृक्) रक्त अर्थात् खून तथा तेरी (अस्थि) हड्डी (रोहतु) प्ररोहित हो जाय, (ओषधे) हे ओषधि ! (छिन्नम्) भग्न अङ्ग को (सं धेहि) सन्धियुक्त कर दे।

    टिप्पणी

    [कल्पय = कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)। 'कृपो रो लः'(अष्टा० ८।१।१८)]

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    विषय

    कटे फटे अंगों की चिकित्सा।

    भावार्थ

    हे वैद्य ! (लोम लोम्ना) लोमों को लोमों से (सं कल्पय) ठीक प्रकार से जोडकर मिला दो और (त्वचा त्वचम्) त्वचा, खाल से खाल को (सं कल्पय) मिला कर रखदो, इसी प्रकार हे रोगिन् ! (अस्थि) हड्डी और (ते असृक्) तेरा रुधिर (रोहतु) वृद्धि को प्राप्त हो। हे ओषधे ! तू इस प्रकार लोम, त्वचा, मांस आदि के ठीक ठीक बैठा देने पर ऊपर लग कर (छिन्नं) कटे फटे स्थान को (सं घेहि) मिलाकर एक करदे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋभुर्ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्रिपदा गायत्री। ६ त्रिपदा यवमध्या भुरिग्गायत्रीं। ७ भुरिक्। २, ५ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rohini Vanaspati

    Meaning

    Let the hair be planted with the hair, let the skin be joined with the skin, let the blood heal the bone and let it grow, let the broken bone be joined with the bone.

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    Translation

    May you join hair with hair properly. May you join skin properly with skin. May your sap make the broken bone grow strong. O plant, may you join what is severed.

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    Translation

    O physician! Let you join hair with hair and let you unite the skin with the skin, O patient! let your blood and bone grow and let this medicinal plant also heal the wounds.

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    Translation

    O physician, join thou together hair with hair, join thou together skin with skin. Let blood and bone grow strong in thee. Unite the broken part, O plant!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(लोम) अ० ३।३३।७। देहजातं केशाकारं द्रव्यम्। रोम। (लोम्ना) रोम्णा (संकल्पय) संक्लृप्तं पुनः स्वस्थानगतं कुरु। संयोजय (त्वचा) चर्मणा (त्वचम्) चर्म (छिन्नम्) भिन्नमङ्गम् (सं धेहि) संहितं संश्लिष्टं व्यापारक्षमं कुरु। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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