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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - वाजिनीवान् ऋषभः छन्दः - भुरिगत्यष्टिः सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त
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    सूर्य॑स्य र॒श्मीननु॒ याः स॒ञ्चर॑न्ति॒ मरी॑चीर्वा॒ या अ॑नुस॒ञ्चर॑न्ति। यासा॑मृष॒भो दू॑र॒तो वा॒जिनी॑वान्त्स॒द्यः सर्वा॑न्लो॒कान्प॒र्येति॒ रक्ष॑न्। स न॒ ऐतु॒ होम॑मि॒मं जु॑षाणो॑३ऽन्तरि॑क्षेण स॒ह वा॒जिनी॑वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑स्य । र॒श्मीन् । अनु॑ । या: । स॒म्ऽचर॑न्ति । मरी॑ची: । वा॒ । या: । अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ति । यासा॑म् । ऋ॒ष॒भ: । दू॒र॒त: । वा॒जिनी॑ऽवान् । स॒द्य: । सर्वा॑न् । लो॒कान् । प॒रि॒ऽएति॑ । रक्ष॑न् । स: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । होम॑म् । इ॒मम् । जु॒षा॒ण: । अ॒न्तरि॑क्षेण । स॒ह । वा॒जिनी॑ऽवान् ॥३८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यस्य रश्मीननु याः सञ्चरन्ति मरीचीर्वा या अनुसञ्चरन्ति। यासामृषभो दूरतो वाजिनीवान्त्सद्यः सर्वान्लोकान्पर्येति रक्षन्। स न ऐतु होममिमं जुषाणो३ऽन्तरिक्षेण सह वाजिनीवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यस्य । रश्मीन् । अनु । या: । सम्ऽचरन्ति । मरीची: । वा । या: । अनुऽसंचरन्ति । यासाम् । ऋषभ: । दूरत: । वाजिनीऽवान् । सद्य: । सर्वान् । लोकान् । परिऽएति । रक्षन् । स: । न: । आ । एतु । होमम् । इमम् । जुषाण: । अन्तरिक्षेण । सह । वाजिनीऽवान् ॥३८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (याः) जो [शक्तियाँ] (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मीन् अनु) व्यापक किरणों के साथ-साथ (संचरन्ति) चलती रहती हैं, (वा) और (याः) जो (मरीचीः) सब प्रकाशों के (अनुसंचरन्ति) साथ-साथ फिरती हैं। (यासाम्=तासाम्) उनका (ऋषभः) दर्शक परमेश्वर (वाजीनीवान्) अन्नवती क्रिया धारण करता हुआ (दूरतः) दूर से (सद्यः) तुरन्त ही (सर्वान् लोकान्) सब लोकों को (रक्षन्) पालता हुआ (पर्यैति) घेरकर आता है। (अन्तरिक्षेण सह) सब में दृश्यमान सामर्थ्य के साथ (वाजिनीवान्) बलवती क्रियावाला (सः) वह परमेश्वर (नः) हमारे (इमम्) इस (होमम्) आत्मदान को (जुषाणः) स्वीकार करता हुआ (ऐतु) आवे ॥५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर अपनी शक्ति से सब दूर और निकट के पदार्थों में व्यापक होकर रक्षा करता है। मनुष्य उसमें पूर्ण श्रद्धा करके पुरुषार्थपूर्वक अपनी उन्नति करें ॥५॥ पं० सेवकलाल कृष्णदास की संहिता में (पर्यैति) के स्थान पर [पर्येति] और पदपाठ में [परि-एति] पद है ॥

    टिप्पणी

    ५−(सूर्यस्य) आदित्यस्य (रश्मीन्) अ० २।३२।१। व्यापकान् किरणान् (अनु) अनुसृत्य (याः) अप्सराः। ईश्वरशक्त्यः। (संचरन्ति) सम्यग् गच्छन्ति (मरीचीः) म्रियन्ते तमांसि यया। मृकणिभ्यामीचिः। उ० ४।७०। इति मृङ्-ईचि। दीप्तीः। प्रकाशान् (वा) वेति विचारणार्थे.... अथापि समुच्चयार्थे भवति-निरु० १।४। (अनुसंचरन्ति) अनुलक्ष्य व्याप्नुवन्ति (यासाम्)=तासाम् अप्सराणाम् (ऋषभः) अ० ३।६।४। द्रष्टा सर्वश्रेष्ठः परमेश्वरः (दूरतः) दूरदेशात्। अगम्यस्थानात् (वाजिनीवान्) अन्नवतीक्रियावान् (सद्यः) अ० २।१।४। तत्क्षणम् (सर्वान्) (लोकान्) दृश्यमानानि भुवनानि (पर्यैति) परित आ-गच्छति (रक्षन्) पालयन् (सः) (नः) अस्माकम् (ऐतु) आगच्छतु (होमम्) अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति हु दानादानादनेषु-मन्। आत्मदानम् (इमम्) (जुषाणः) सेवमानः (अन्तरिक्षेण) सर्वमध्यदृश्यमानेन सामर्थ्येन (सह) (वाजिनीनाम्) बलवतीक्रियायुक्तः ॥

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    विषय

    उत्तम पति-पत्नी

    पदार्थ

     

    १. गृहिणियाँ वे ही उत्तम हैं (याः) = जो (सूर्यस्य रश्मीननु सञ्चरन्ति) = सूर्य की रश्मियों के अनुसार सञ्चरण करती है, अर्थात् सूर्योदय से सूर्यास्त तक कार्यों में लगी रहती हैं, (वा) = तथा (या:) = जो (मरीची:) = सूर्यप्रकाश में (अनुसञ्चरन्ति) = अनुकूलता से सञ्चरण करती है-अंधरे कमरों में नहीं बैठी रहतीं। २. (यासाम्) = जिनका (ऋषभ:) = सेचन-समर्थ-सन्तान को जन्म देने की सामर्थ्यवाला श्रेष्ठ पति (दूरत: वाजिनीवान) = [वाजिनी-उषा] दूर से उषावाला है, अर्थात् उषाकाल से भी पहले ही [Early in the morning] प्रबुद्ध होनेवाला है। यह ऋषभ (सद्यः) = शीघ्र ही (सर्वान् लोकान्) = सब लोगों का (रक्षन्) = रक्षण करता हुआ (परिएति) = चारों ओर गति करता है-अपने सब कर्त्तव्यकों का सम्यक् पालन करता है। ३. पत्नी कामना करती है कि (सः) = वह गृहपति (न:) = हम गृहिणियों को (आ एत) = सर्वथा प्रास हो, जो (इमं होम जुषाण:) = इस यज्ञ को प्रतिदिन प्रीतिपूर्वक करनेवाला हो [पत्युनों यज्ञसंयोगे], जोकि (अन्तरिक्षण सह) = अन्तरिक्ष के साथ, अर्थात् सदा मध्यमार्ग में चलता हुआ (वाजिनीवान) = प्रशस्त उषावाला है। पति का कर्तव्य है कि अति में न जाता हुआ-कायों को मर्यादा में करता हुआ-उषाकाल में प्रबुद्ध हो।

    भावार्थ

    वही घर स्वर्ग बनता है जहाँ पत्नी [क] सूर्योदय से सूर्यास्त तक क्रियाशील हो, [ख] अँधेरे कमरे में न बैठी रहकर सूर्यप्रकाश में अपने कार्य को करती हुई स्वस्थ हो। इस स्वर्गतुल्य गृह में पति शक्तिशाली होता है, रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है, यज्ञशील बनता है, मध्यमार्ग में चलता हुआ उषा में प्रबुद्ध होनेवाला यह गृहपति मर्यादित जीवनवाला होता है।

     

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    भाषार्थ

    (याः) जो [अप्सराएँ, रूपवती महिलाएँ] (रश्मीन् अनु) रश्मियों के पश्चात् (सज्चरन्ति) गृहस्थ के कार्यों में सञ्चार करती हैं, (वा) तथा (याः) जो अप्सराएँ (मरीची: अनु) मृत हुईं रश्मियों के पश्चात् (सञ्चरन्ति) गृहस्थ के कार्यों में सञ्चार करती हैं, (यासाम्) जिन अप्सराओं में से प्रत्येक अप्सरा का (ऋषभ:) श्रेष्ठ (वाजिनीवान्) अन्नसम्पन्ना अप्सरावाला अर्थात् उसका पति (सद्यः) शीघ्र (सर्वान् लोकान्) सब लौकिक व्यवहारों को सम्पूर्ण कर, (रक्षन्१) परिवार की रक्षा के हेतु, (दूरतः) दूर से (पर्येति) वापस आ जाता है। (सः) वह (वाजिनीवान्) पति (जुषाणः) प्रीतिपूर्वक (न:) हमारे पारिवारिक जनों के (इमम् होमम्) इस अग्निहोत्र में (आ एतु) आया करे, शामिल हुआ करे, (अन्तरिक्षण सह) अन्तरिक्षस्थ सूर्य के साथ।

    टिप्पणी

    [मरीचि:= म्रियतेऽसौ; दीप्तिः (उणा० ४।७१ दयानन्द);"म्रियते इति मरीचि:" (दशपाद्युणादिवृत्तिः १।३८)। इन व्युत्पत्तीयों द्वारा यह ज्ञात होता है कि मरीचि है तो दीप्तिः अर्थात् रश्मिप्रभा, परन्तु है वह मृतावस्था की, अर्थात् सूर्य के अस्त होने के साथ अस्त हुई। यह अस्तगमन अवस्था मृतावस्था है। इस मृतावस्था के 'अनु' पश्चात् अप्सरा अर्थात् रूपवती गृहिणी पुनः गृहकार्यों में सञ्चार करती है। 'अनु' अर्थात् पश्चात्, न कि अनुलक्ष्य। 'पश्चात् ' इसलिए कि "प्रातः सन्ध्याकाल" और "सायं सन्ध्याकाल" में धार्मिक कर्तव्यों को करने के पश्चात्। अन्तरिक्षेण= अन्तरिक्षस्थ२ सूर्य के साथ, जबकि सूर्य की उज्ज्वल रश्मियाँ अन्तरिक्ष को प्रकाशित करें, तब, अतः यह होम प्रात:कालीन होम है। 'वा' समुच्चयार्थे (निरुक्त १।२।५)। वाजिनीवान्= वाजः अन्ननाम (निघं० २।७), वाजिनी= अन्नसम्पना पत्नी, तद्वान् अन्नसम्पन्नवान्= तस्या अन्नसम्पन्नायाः पति:=वाजिनीवान्।] [१. हेतौ शतृप्रत्ययः। पालनाद्धेतोः (सायण)। २. यथा "मञ्चा: क्रोशन्ति"=मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति तथा अन्तरिक्षेण= अन्तरिक्षस्थेन सुर्येण।]

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    विषय

    चितिशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    सूर्य के दृष्टान्त से आत्मा का वर्णन करते हैं। (याः) जो चित्तवृत्तियां (सूर्यस्य) अन्तरिक्ष में प्रकाशमान सूर्य के समान भीतरी हृदयाकाश में प्रकाशमान प्राणात्मा सूर्य की (रश्मीन्) किरणों के समान इन्द्रियों को बांधने वाली रश्मि = रस्सियों = आत्म-शक्तियों के (अनुसं-चरन्ति) अनुकूल वश होकर भोग्य पदार्थों में विचरती हैं, (याः) जो सूर्य के समान प्रकाशमान आत्मा के (मरीचीः) प्रभा और सात्विक शक्तियों के (अनु-संचरन्ति) वश होकर गति करती हैं। (यासाम्) जिनका (ऋषभः) आत्मा सूर्य, स्वामी (वाजिनीवान्) उनकी ज्ञान कर्ममय वाज=बल को भी रखने वाली शक्ति बुद्धि का भी स्वामी होकर उनसे (दूरतः) दूर अवाङ्-मनस-गोचर है वह (सद्यः) शीघ्र ही उनको (रक्षन्) अपने साथ रखता हुआ भी (सर्वान् लोकान्) समस्त काम्य लोकों को (परि-एति) भ्रमण करता है। वह (वाजिनी-वान्) बुद्धि का स्वामी हमारे (इमं होमम्) इस होम = जीवनमय या प्राणापानाहुति रूप अध्यात्म यज्ञ को (जुषाणः) स्वीकार करता हुआ (अन्तरिक्षेण सह) समस्त भीतरी हृदय-भूमि में व्यापक परमात्मा के सामर्थ्य के साथ (नः आ एतु) हमें (साक्षात्) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अप्सरो ग्लहाश्च देवताः। १, २ अनुष्टुभौ। ३ षट्पदा त्र्यवसाना जगती। ५ भुरिग् जगत्यष्टिः। ६ त्रिष्टुप्। ७ त्र्यवसाना पञ्चपदाऽनुष्टुव् गर्भा परोपरिष्टात् ज्योतिष्मती जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shakti, Shaktivan

    Meaning

    She who, in all her diversifications, radiating with the rays of the sun and vibrating with the particles of cosmic energy, goes about, and her omnipotent master who pervades far and near, commanding and superintending all the energies and protecting and sustaining all their regions of cosmic operation, may he too, lord commander and energiser of cosmic lights and energies, listen to this voice of thought, love this yajna of communion, come with his omnipresence in the time and space of divine bliss, and bless my spirit at the heart- core.

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    Translation

    They who move about following the rays of the sun, or who move about following the radiations from the sun; whose bull, possessor of powerful rays comes from far away instantly protecting people all around. May he, the possessor of powerful rays , come to us enjoying these oblations along with the air.

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    Translation

    These are the Apsarases which follow and travel the sun-beams, which travel the course of light-particles and whose main central power—the sun that is tremendously powerful from afar quickly encompasses al] the world Protecting them. Let this exceedingly powerful sun obtaining the essence of our oblation come to into our Knowledge with the atmospheric region,

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    Translation

    Women who walk in the rays of the Sun, and roam in Sun's light, whose powerful protector, from afar, quickly comes from every side, guarding all their relatives, may that powerful man, accepting this yajna of ours, gladly come unto us.

    Footnote

    Women, who generally live inside the house, should, for the sake of health, pass some of their time in the open, and enjoy the light of the Sun. Here repetition is made for the sake of emphasis. Strong noble preachers should protect woman, and attend now and then the yajna performed by the married couple. This hymn has been ascribed by Pt.Jaidev Vidyalankar to mental faculty, and by Pt. Khem Karan Das Trivedi to God. For a detailed explanation, the reader should consult their commentaries.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(सूर्यस्य) आदित्यस्य (रश्मीन्) अ० २।३२।१। व्यापकान् किरणान् (अनु) अनुसृत्य (याः) अप्सराः। ईश्वरशक्त्यः। (संचरन्ति) सम्यग् गच्छन्ति (मरीचीः) म्रियन्ते तमांसि यया। मृकणिभ्यामीचिः। उ० ४।७०। इति मृङ्-ईचि। दीप्तीः। प्रकाशान् (वा) वेति विचारणार्थे.... अथापि समुच्चयार्थे भवति-निरु० १।४। (अनुसंचरन्ति) अनुलक्ष्य व्याप्नुवन्ति (यासाम्)=तासाम् अप्सराणाम् (ऋषभः) अ० ३।६।४। द्रष्टा सर्वश्रेष्ठः परमेश्वरः (दूरतः) दूरदेशात्। अगम्यस्थानात् (वाजिनीवान्) अन्नवतीक्रियावान् (सद्यः) अ० २।१।४। तत्क्षणम् (सर्वान्) (लोकान्) दृश्यमानानि भुवनानि (पर्यैति) परित आ-गच्छति (रक्षन्) पालयन् (सः) (नः) अस्माकम् (ऐतु) आगच्छतु (होमम्) अर्त्तिस्तुसुहु०। उ० १।१४०। इति हु दानादानादनेषु-मन्। आत्मदानम् (इमम्) (जुषाणः) सेवमानः (अन्तरिक्षेण) सर्वमध्यदृश्यमानेन सामर्थ्येन (सह) (वाजिनीनाम्) बलवतीक्रियायुक्तः ॥

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