अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - वाजिनीवान् ऋषभः
छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा पुरउपरिष्टाज्ज्योतिष्मती जगती
सूक्तम् - वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त
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अ॒न्तरि॑क्षेण स॒ह वा॑जिनीवन्क॒र्कीं व॒त्सामि॒ह र॑क्ष वाजिन्। अ॒यं घा॒सो अ॒यं व्र॒ज इ॒ह व॒त्सां नि ब॑ध्नीमः। य॑थाना॒म व॑ ईश्महे॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरि॑क्षेण । स॒ह । वा॒जि॒नी॒ऽव॒न् । क॒र्कीम् । व॒त्साम् । इ॒ह । र॒क्ष॒ । वा॒जि॒न् । अ॒यम् । घा॒स: । अ॒यम् । व्र॒ज: । इ॒ह । व॒त्साम् । नि । ब॒ध्नी॒म॒: । य॒था॒ऽना॒म् । व॒: । ई॒श्म॒हे॒ । स्वाहा॑ ॥३८.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरिक्षेण सह वाजिनीवन्कर्कीं वत्सामिह रक्ष वाजिन्। अयं घासो अयं व्रज इह वत्सां नि बध्नीमः। यथानाम व ईश्महे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिक्षेण । सह । वाजिनीऽवन् । कर्कीम् । वत्साम् । इह । रक्ष । वाजिन् । अयम् । घास: । अयम् । व्रज: । इह । वत्साम् । नि । बध्नीम: । यथाऽनाम् । व: । ईश्महे । स्वाहा ॥३८.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अन्तरिक्षेण सह) सब में दृश्यमान सामर्थ्य के साथ (वाजिनीवन्) हे अन्नवती वा बलवती क्रियावाले, (वाजिन्) हे बलवान् परमेश्वर (इह) यहाँ पर (कर्कीम्) अपनी बनानेवाली और (वत्साम्) निवास देनेवाली शक्ति की (रक्ष) रक्षा कर। (अयम्) यह (घासः) भोजन है, (अयम्) यह (व्रजः) आने-जाने का स्थान है, (इह) यहाँ पर [हृदय में] (वत्साम्) तेरी निवास देनेवाली शक्ति को (नि) निरन्तर (बध्नीमः) हम बाँधते हैं। (वः) तुम्हारा (यथानाम) जैसा नाम है, [वैसे ही] (ईश्महे) हम ऐश्वर्यवान् होवें। (स्वाहा) यह आशीर्वाद हो ॥७॥
भावार्थ
परमेश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से अन्न, शरीर, घर आदि पदार्थ हमें दिये हैं, हम उनका यथावत् उपयोग करके सदा ऐश्वर्यवान् होवें ॥७॥
टिप्पणी
७−(अन्तरिक्षेणेत्यादि) पूर्वोऽर्धर्चः पूर्ववद् योज्यः (अयम्) उपस्थितः (घासः) घञपोश्च। पा० २।४।३८। इति अदो घस्लृ आदेशो घञि। अदनीयः पदार्थः (अयम्) (व्रजः) गोचरसंचरवहव्रज०। पा० ३।३।११९। इति व्रज गतौ घ। गमनप्रदेशः (इह) अस्मिन् विषये (वत्साम्) म० ६। निवासयित्रीं शक्तिम् (नि) नितराम् (बध्नीमः) हृदये धारयामः (यथानाम) यादृशगुणविशिष्टं नामास्ति तथैव। (वः) आदरे बहुवचनम्। तव (ईश्महे) ऐश्वर्यवन्तो भवामः (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी। आशीर्वादः। सुदानम् ॥
विषय
उत्तम घर
पदार्थ
१. हे (वाजिनीवन्) = प्रशस्त उषाकालवाले! उषाकाल में प्रबुद्ध होनेवाले (वाजिन) = शक्तिशाली गृहपते! (अन्तरिक्षेण सह) = अन्तरिक्ष के साथ, अर्थात् सदा मध्यमार्ग में चलने के साथ (इह) = इस जीवन में (ककाम्) = क्रियाशील (वत्साम्) = प्रभु-स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाली प्रिय पत्नी की रक्ष-तू रक्षा करनेवाला हो। २. पति उत्तर देता हुआ कहता है कि (अयं घास:) = यह वानस्पतिक भोजन यहाँ घर में है। (अयं वज:) = यह क्रियाशील जीवन है [व्रज गतौ]। इह यहाँ (वत्साम्) = तुझ प्रभु भक्तिवाली प्रिय पत्नी को हम (निबध्नीम:) = बाँधते हैं। वस्तुतः पति का मुख्य कर्तव्य यही हो कि वह घर में पोषण के लिए आवश्यक पदार्थों की कमी न होने दे और आलसी जीवनवाला न हो। ये दो बातें ही पत्नी को घर में बाँधनेवाली होती हैं। पति विवाह-संस्कार के समय कहता है कि-('धूवैधि पोष्ये मयि')। ३. ये पति-पत्नी अपनी सन्तानों के साथ मिलकर प्रात:-सायं प्रभु का उपासन करते हैं और कहते हैं कि हे प्रभो! (वः यथानाम) = आपके नाम के अनुसार, अर्थात् जितना-जितना आपका नाम लेते हैं, उतना-उतना ही हम (ईश्महे) = ऐश्वर्यवाले होते हैं, अत: स्वाहा-हम आपके प्रति ही अपना [स्व] अर्पण करते हैं [हा]-आपकी शरण में आते
भावार्थ
पति प्रात: प्रबुद्ध होनेवाला हो, शक्तिशाली हो, घर में खान-पान की कमी न होने दे-क्रियाशील हो। घर में पति-पत्नी अपनी सन्तानों के साथ प्रभु का उपासन करनेवाले बनें।
विशेष
अपने जीवन को सुन्दर बनानेवाले पति-पत्नी 'अंगिरस्' बनते हैं। अगले सूक्त का ऋषि 'अंगिरा:' ही है-
भाषार्थ
(वाजिनीवन्) हे अनसम्मना पत्नीवाले पति! (वाजिन्) हे स्वयं भी अन्नवाले पति ! (अन्तरिक्षेण सह) अन्तरिक्षस्थ सूर्य के साथ; [अर्थात् अन्तरिक्ष में जब सूर्य का प्रकाश छा जाए, उस प्रात:काल के समय] (कर्कीम) क्रियाशीला (वत्साम्) बछड़ी की (इह) इस गोशाला में (रक्ष) रक्षा कर [अन्न प्रदान द्वारा]। (अयम् घासः) यह घास है, (अयं व्रज:) यह गोष्ठ है, गोशाला है, (इह) इस स्थान में (वत्साम्) प्रत्येक बछड़ी को (निबंधन:) हम बाँधते हैं, (यथानाम) जैसे तुम्हारे नाम हैं तदनुसार नाम ले-लेकर (व:) तुम्हारे हम (ईश्महे) अधीश्वर बनते हैं, स्वामी बनते हैं।
विषय
चितिशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
हे (वाजिनीवन्) चितिशक्ति के स्वामिन् आत्मन् ! तू (अन्तरिक्षेण सह) उस अन्तर्यामी प्रभु के साथ मिला रह। और हे (वाजिन्) योगिन् ! (इह) उसी में (कर्कीम् वत्साम् रक्ष) अपनी: ज्योतिष्मती प्रज्ञा रूप देहवासिनी गौ को लगाये रख। (अयं) यह आनन्दमय प्रभु इस विशेषकर प्रज्ञारूप गौ के लिये (घासः) घास या खाद्य, परम उपभोग्य पदार्थ है। (अयं व्रजः) यही इस गौ के लिये परम विश्रामस्थली है। (इह वत्साम् निबध्नीमः) यहां इस बछड़ी, गाय को बांधते हैं। (वः) तुम समस्त प्राणों पर (यथा-नाम) सुखपूर्वक वश करके (ईश्महे) तुम्हें वश करते हैं और अध्यात्म ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। (स्वाहा) यह आत्मा परमात्मा में आहुतिरूप में पड़कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणिर्ऋषिः। अप्सरो ग्लहाश्च देवताः। १, २ अनुष्टुभौ। ३ षट्पदा त्र्यवसाना जगती। ५ भुरिग् जगत्यष्टिः। ६ त्रिष्टुप्। ७ त्र्यवसाना पञ्चपदाऽनुष्टुव् गर्भा परोपरिष्टात् ज्योतिष्मती जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Shakti, Shaktivan
Meaning
O lord omnipresent, commander of nature’s universal omnipotence, be here in the heart and soul. Sustain the light and bliss of the celebrant, your darling child. This soul is dedicated to you as food for total absorption. This mind and intelligence with all the senses and pranas is dedicated to you for absolute dwelling. Herein we concentrate all our awareness, chitishakti, enveloped as your darling child in the mother’s lap. As your name, so do we adore your being and abide in your presence. This is our homage in truth of thought, word and deed. (This mantra may be read with refence to sukta 34 and 35 on the subject of Brahmaudana.)
Translation
Along with the air, O possessor of powerful rays, O mighty one, may you preserve this white she-calf here. Here is this fodder. Here is this cow-pen. Here we ‘bind this she-calf carefully. According to names, we are enriched by you. Svaha. (Hail !).
Translation
Let this powerful sun with air preserve the splendid power of it in the world. This is grass, this is the Place of the spreading rays and we confine the solar light to them. This is the sun which shines according to its name. Let us gain power and Prosperity. Whatever is uttered herein is true.
Translation
O strong, mighty man, guard here the handsome calf with heart-felt love. Here is the grass, here is the stall, here do we bind the calf. Name by name, we are their masters. For them we sacrifice everything.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अन्तरिक्षेणेत्यादि) पूर्वोऽर्धर्चः पूर्ववद् योज्यः (अयम्) उपस्थितः (घासः) घञपोश्च। पा० २।४।३८। इति अदो घस्लृ आदेशो घञि। अदनीयः पदार्थः (अयम्) (व्रजः) गोचरसंचरवहव्रज०। पा० ३।३।११९। इति व्रज गतौ घ। गमनप्रदेशः (इह) अस्मिन् विषये (वत्साम्) म० ६। निवासयित्रीं शक्तिम् (नि) नितराम् (बध्नीमः) हृदये धारयामः (यथानाम) यादृशगुणविशिष्टं नामास्ति तथैव। (वः) आदरे बहुवचनम्। तव (ईश्महे) ऐश्वर्यवन्तो भवामः (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी। आशीर्वादः। सुदानम् ॥
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