अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वृषभः, स्वापनम्
छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वापन सूक्त
1
स्वप्न॑ स्वप्नाभि॒कर॑णेन॒ सर्वं॒ नि ष्वा॑पया॒ जन॑म्। ओ॑त्सू॒र्यम॒न्यान्त्स्वा॒पया॑व्यु॒षं जा॑गृताद॒हमिन्द्र॑ इ॒वारि॑ष्टो॒ अक्षि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वप्न॑ । स्व॒प्न॒ऽअ॒भि॒कर॑णेन । सर्व॑म् । नि । स्वा॒प॒य॒ । जन॑म् । आ॒ऽउ॒त्सू॒र्यम् । अ॒न्यान् । स्वा॒पय॑ । आ॒ऽव्यु॒षम् । जा॒गृ॒ता॒त् । अ॒हम् । इन्द्र॑:ऽइव । अरि॑ष्ट: । अक्षि॑त: ॥५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वप्न स्वप्नाभिकरणेन सर्वं नि ष्वापया जनम्। ओत्सूर्यमन्यान्त्स्वापयाव्युषं जागृतादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः ॥
स्वर रहित पद पाठस्वप्न । स्वप्नऽअभिकरणेन । सर्वम् । नि । स्वापय । जनम् । आऽउत्सूर्यम् । अन्यान् । स्वापय । आऽव्युषम् । जागृतात् । अहम् । इन्द्र:ऽइव । अरिष्ट: । अक्षित: ॥५.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बच्चों के सुलाने का गीत अर्थात् लोरी।
पदार्थ
(स्वप्न) हे निद्रा ! (स्वप्नाभिकरणेन) नींद के उपाय वा साधन से (सर्वं जनम्) सब जनों को (नि, स्वापय) सुलादे। (अन्यान्) दूसरे पुरुषों को (ओत्सूर्यम्) सूर्य उदय तक (स्वापय) सुला, (अहम्) मैं (इन्द्रः इव) प्रतापी मनुष्य के समान (अरिष्टः) नाशरहित और (अक्षितः) हानिरहित (आव्युषम्) प्रभात तक (जागृतात्=जागराणि) जागरण करूँ ॥७॥
भावार्थ
घर के अन्य सब स्त्री-पुरुष अपने-अपने स्थानों पर सो जावें और गृहपति यथावत् जाग कर सावधानी रक्खे ॥७॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
७−(स्वप्न) ञिष्वप् शये-नन्। हे निद्रे (स्वप्नाभिकरणेन) निद्राजनकेन साधनेन कर्मणा द्रव्येण वा (सर्वम्) सकलम् (नि स्वापय) सर्वथा निद्रापय (जनम्) मनुष्यसमूहम् (ओत्सूर्यम्) उद्यन् सूर्य्यो यस्मिन् काले स उत्सूर्यः कालः। सूर्योदयपर्यन्तम् (अन्यान्) इतरान् मनुष्यान्। (आव्युषम्) उष वधे दाहे च-क, वा टाप्। उषः, उषा वा रात्रिशेषः। उषः कालावधि। रात्र्यवसानपर्यन्तम् (जागृतात्) जागृ निद्राक्षये लोट्, उत्तमपुरुषस्य छन्दसि प्रथमपुरुषः। अहं जागराणि। जागृतो भवानि (अहम्) गृहपतिः (इन्द्रः इव) प्रतापी पुरुषो यथा (अरिष्टः) अहिंसितः (अक्षितः) क्षयरहितः ॥
विषय
राजा जागे, सब सोएं स्वप्न
पदार्थ
१. राजा स्वप्न को सम्बोधित करते हुए कहता है कि (स्वप्न) = निद्रा की देवते! (स्वप्राधिकरणेन) = नींद के सब साधनों से (सर्वं जनम्) = सब लोगों को (निष्वापय) = सुला दे। राजा राष्ट्र में इसप्रकार की व्यवस्थाएँ करता है कि लोग सूर्यास्त के साथ सोने की तैयारी करें। नित्य कर्मों से निवृत्त होकर सो जाएँ। २. (आ उत्सूर्यम्) = सूर्योदय तक (अन्यान् स्वापय) = हे निद्रे! औरों को तो सुला, बस (अहम्) = मैं (इन्द्रः इव) = एक जितेन्द्रिय पुरुष की भाँति (आव्यूषम्) = उषाकाल तक (जागृतात्) = जागता रहूँ। राजा ही सो गया तो राष्ट्र-रक्षा कैसे होगी? राष्ट्र-यज्ञ को चलानेवाला ब्रह्मा यह राजा ही तो है, इसके मन्त्री, कार्यकर्ता व सेवक ही ऋत्विज हैं। ये सो गये तो यज्ञ समाप्त हो जाएगा। राजा सोया तो राष्ट्र में सदा चोरी आदि के भय से लोग निश्चिन्त निद्रा प्राप्त न कर सकेंगे। राजा जागता है तो प्रजा निश्चिन्त हो निन्द्रा ले-पाती है। मैं (अक्षितः) = [न क्षितं यस्मात्] राष्ट्र को क्षीण न होने दें, (अरिष्ट:) = [न रिष्टं यस्मात्] राष्ट्र को हिंसित न होने दूं। जागता हुआ राजा ही 'अक्षित व अरिष्ट' होता है। प्रभु के अप्रिय 'काम' पर आक्रमण करके हम उसे पराभूत करें और आगे बढ़ें।
भावार्थ
राजा सदा जागरूक बनकर प्रजा को क्षीण व हिंसित होने से बचाए।
विशेष
राष्ट्र-रक्षा के महान् भार को उठाकर चलनेवाला 'गरुत्मान्' [गुरुं भारं उद्यम्य उड्डीय गतः] अगले सूक्त का ऋषि है। यह सब प्रकार के विर्षों के निवारण की व्यवस्था करता है।
भाषार्थ
(स्वप्न) हे स्वप्न ! (स्वप्नाभिकरणेन) स्वप्न के साधन द्वारा (सर्वम् जनम्) सब जनसमुदाय को (निः स्वापय) गाढ़ निद्रा में सुला दे। तथा (अन्यान्) अन्यों को भी, (स्वापय) सुला दे; और (आ+उत्+सूर्यम्) सूर्य के उदय होने तक, (आव्युषम्) और उषा के विगत हो जाने तक (अहम) मैं [जागता रहूँ] (अक्षितः) शक्ति से न क्षीण हुआ, (इव) जैसेकि (अरिष्टः) शक्ति से न हिंसित हुआ, न क्षीण हुआ (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् सूर्य (जागृतात्) सदा जागता रहता है।
टिप्पणी
[सूक्त में योगाभ्यासी का वर्णन है जोकि गृहवासियों को स्वापन साधन द्वारा सुलाकर, रात्रि के मध्यकाल से लेकर प्रातःकाल तक ध्यानाभ्यास में रत रहने का अभिलाषी है। स्वापन का साधन है "हिप्नोटिज्म", तथा "हस्तस्पर्श विधि" (अथर्व ०४।१३।१५-७)। मन्त्र में "श्वा" है गृहरक्षक पालतू कुत्ता। "हिप्नोटिज्म" यह शब्द "स्वप्न" का विकृतरूप प्रतीत होता है। प्रथम उषा का विगमन होता है, तत्पश्चात् सूर्योदय होता है।]
विषय
निद्रा विज्ञान।
भावार्थ
कब तक सोवें ? हे (स्वप्न) हे निद्रावृत्ते ! (स्वप्नाभि-करणेन) निद्रा वृत्ति को अभिमुख करके (सर्वं जनम्) समस्त अन्य उत्पन्न होने वाले जनों या इन्द्रिय-वृत्तियों को (नि स्वापय) सर्वथा सुला दो। और (स्वापय) तब तक सुलाओ (आ उत् सूर्यम्) जब तक सूर्य उदित न होजाय और जब तक उषाकल फट न जाय और तब (अहं) मैं आत्मा (इन्द्रः इव) इन्द्र, ऐश्वर्यशील राजा के समान (अक्षितः) अविनाशी (अरिष्टः) किसी से भी पीड़ित न होकर (जागृताद्) जागूं। इति प्रथमोऽनुवाकः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। स्वपनः ऋषभो वा देवता। १, ३-६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ७ पुरुस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Sleep
Meaning
O sleep, with ideal conditions conducive to peace of rest amd security, let the people sleep until dawn and the day. Let others too sleep at rest until dawn and the day. And as I wake up, let me be fresh, unhurt, uninjured, stronger for the new day like Indra, the master spirit.
Translation
O slumber, with your paraphernalia of sleep put all the people to deep sleep. Make all the others to sleep till sun rise, till the break of dawn. May I alone keep awake like the resplendent one, unharmed and un-exhausted.
Translation
This sleep makes all the people rest and sleep by creating urgency of slumber and makes them sleep till the sun rise up. May I like a mighty King rise up from sleep unscathed and unharmed.
Translation
O sleep, with soporific charm, lull thou to slumber all the folk. Let the rest sleep till break of day. I will remain awake till dawn, like a majestic man, free from injury and harm.
Footnote
‘I’ refers to the master of the house, who sometimes has to keep awake the whole night to guard the house against thieves and dacoits.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(स्वप्न) ञिष्वप् शये-नन्। हे निद्रे (स्वप्नाभिकरणेन) निद्राजनकेन साधनेन कर्मणा द्रव्येण वा (सर्वम्) सकलम् (नि स्वापय) सर्वथा निद्रापय (जनम्) मनुष्यसमूहम् (ओत्सूर्यम्) उद्यन् सूर्य्यो यस्मिन् काले स उत्सूर्यः कालः। सूर्योदयपर्यन्तम् (अन्यान्) इतरान् मनुष्यान्। (आव्युषम्) उष वधे दाहे च-क, वा टाप्। उषः, उषा वा रात्रिशेषः। उषः कालावधि। रात्र्यवसानपर्यन्तम् (जागृतात्) जागृ निद्राक्षये लोट्, उत्तमपुरुषस्य छन्दसि प्रथमपुरुषः। अहं जागराणि। जागृतो भवानि (अहम्) गृहपतिः (इन्द्रः इव) प्रतापी पुरुषो यथा (अरिष्टः) अहिंसितः (अक्षितः) क्षयरहितः ॥
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