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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृता सूक्त
    0

    प्र यदे॒ते प्र॑त॒रं पू॒र्व्यं गुः सदः॑सद आ॒तिष्ठ॑न्तो अजु॒र्यम्। क॒विः शु॒षस्य॑ मा॒तरा॑ रिहा॒णे जा॒म्यै धुर्यं॒ पति॑मेरयेथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । ए॒ते । प्रऽत॒रम् । पू॒र्व्यम् । गु: । सद॑:ऽसद: । आ॒ऽतिष्ठ॑न्त: । अ॒जु॒र्यम् । क॒वि: । शु॒षस्य॑ । मा॒तरा॑ । रि॒हा॒णे इति॑ । जा॒म्यै । धुर्य॑म् । पति॑म् । आ । ई॒र॒ये॒था॒म् ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यदेते प्रतरं पूर्व्यं गुः सदःसद आतिष्ठन्तो अजुर्यम्। कविः शुषस्य मातरा रिहाणे जाम्यै धुर्यं पतिमेरयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यत् । एते । प्रऽतरम् । पूर्व्यम् । गु: । सद:ऽसद: । आऽतिष्ठन्त: । अजुर्यम् । कवि: । शुषस्य । मातरा । रिहाणे इति । जाम्यै । धुर्यम् । पतिम् । आ । ईरयेथाम् ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जिस कारण से कि (एते) इन [शुद्धस्वभाव बन्धुओं] ने (अजुर्यम्) जरारहित (सदःसदः) पाने योग्य पदार्थों में पाने योग्य मोक्ष पद पर (आतिष्ठन्तः) चढ़ कर (प्रतरम्) अति उत्तम (पूर्व्यम्) सब के हितकारक परमात्मा को (प्र गुः) प्राप्त किया है। (कविः=कवेः) बुद्धिमान् (शुषस्य) बलवान् पुरुष के (मातरा=०−रौ) माताओ, (धुर्यम्) धुरन्धर (पतिम्) जगत्पति परमात्मा की (रिहाणे) स्तुति करती हुई तुम दोनों [सूर्य और पृथिवी लोक] (जाम्यै) भगिनी के समान हितकारक प्रजा के लिये (आ ईरयेथाम्) प्राप्त कराओ ॥४॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार से पूर्वज महाशय अक्षय मोक्ष पद पाकर परमात्मा को प्राप्त हुए हैं, उसी प्रकार हम भी सूर्य पृथिवी आदि सब लोकों का ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा से मिलें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(प्र) प्रकर्षेण (यत्) यस्मात्कारणात् (एते) शुचयः स्वाः−म० ३। (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (पूर्व्यम्) अ० ४।१।६। पूर्व-यत्। पूर्वाय समस्ताय जगते हितं परमात्मानम् (गुः) अगुः। प्रापुः (सदःसदः) सदसां सदनीयानां सदः सदनीयम्। प्राप्तव्यानां मध्ये प्राप्तव्यं मोक्षपदम्। (आतिष्ठन्तः) आरुहन्तः (अजुर्यम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति जूरी हिंसावयोहान्योः−यक्। नञ्सुभ्याम्। पा० ६।२।१७२। इति उत्तरपदस्यान्तोदात्तत्वं बहुव्रीहौ। अजरं दृढं सर्वकार्यशक्तम् (कविः) सुपां सुलुक्० पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सुः। कवेः मेधाविनः (शुषस्य) शुष शोषणे−क। शुष्णम्, शुष्मम्−बलनाम−निघ० २।९। बलवतः पुरुषस्य (मातरा) मातरौ मातृवदुपकारिके द्यावापृथिव्यौ (रिहाणे) रिह कत्थने−शानच्। रेहति, अर्चति-कर्मा−निघ० ३।१४। अर्चन्त्यौ। स्तुवाने (जाम्यै) अ० १।४।१। भगिनीवत्सहायभूतायै प्रजायै (धुर्यम्) धुरं वहतीति। धुरो यड्ढकौ। पा० ४।४।७७। इति धुर्−यत्। धुरन्धरम्। श्रेष्ठम् (पतिम्) पालकं परमात्मानम्। मोक्षपदं वा (आ ईरयेथाम्) अवगमयतं युवाम् ॥

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    विषय

    प्रतरं, पूर्व्य, अजुर्यम्

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (एते) = ये साधक लोग (प्रतरम्) = संसार-सागर से तरानेवाले (पूव्यम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम उस प्रभु को (प्रगुः) = प्रकर्षेण जानेवाले होते हैं तब ये (सदासदः) = प्रत्येक शरीररूप घर में उस (अजुर्यम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले परमेश्वर में (आतिष्ठन्त:) = स्थिर होनेवाले होते हैं। ये प्रत्येक प्राणी में उस प्रभु को देखते हैं। वे प्रभु को इस रूप में देखते हैं कि ये प्रभु (कविः) = सर्वज्ञ हैं। २. इसप्रकार सब प्राणियों में प्रभु को देखनेवाले पति-पत्नी (शुषस्य मातरा) = शत्रु-शोषक बल का निर्माण करनेवाले व (रिहाणे) = परस्पर प्रीतिबाले [रिह आस्वादने] होते हैं। ये जाम्यै-संसार को जन्म देनेवाली इस प्रकृति के (धुर्यं पतिम्)-सम्पूर्ण संसार के धारण में समर्थ उस पति प्रभु को एरयेथाम्-अपने हृदयों में प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ

    उस तारक, पालक प्रभु का उपासन करनेवाले लोग प्रत्येक प्राणी में उस अविनाशी प्रभु को देखते हैं। उसे सर्वज्ञ जानते हुए पति-पत्नी अपने में शत्र-शोषक बल का निर्माण करते हैं और परस्पर प्रीतिवाले होते हैं। ये इस प्रकृति के धुर्य पति उस प्रभु को ही अपने हृदयों में प्रेरित करते हैं उसी का ध्यान करते हैं।

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    भाषार्थ

    (एते) ये प्रजाजन ( यद्) जब ( सद: सदः) प्रत्येक निवास-स्थान में (आतिष्ठन्तः) स्थित होते हुए (अजुर्यम्, प्रतरं पूर्व्यम् ) सदा युवा, अति पूर्व काल के परमेश्वर की ओर ( प्रगुः) प्रगति करते हैं उस परमेश्वर की ओर जोकि (शुषस्य कविः) सुख का उपदेष्टा है, तब (रिहाणे) दुग्ध देनेवाली (मातराः= मातरौ) हे दो माताओ ! (जाम्यै) उत्पन्न प्रजा के लिए ( धुर्यम् ) संसार-रथ की धुरा का बहन करनेवाले (पतिम्) सर्वरक्षक पति को (एरयेथाम् ) तुम भी प्रेरित करती हो, या प्रेरित करो ।

    टिप्पणी

    [दो माताएं हैं द्यौः और पृथिवी। ये खाने-पीने के लिए स्वादु अन्न और पेय दे रही हैं। इन दो की रचनाओं को देखकर रचयिता परमेश्वर का भान होता है। मानो उत्पन्न-प्रजा को ये दोनों परमेश्वरपति का ज्ञान प्रदान कर रही हैं। "सद: सदः " हैं प्रत्येक आश्रम। शुष= शूषम्=सुखम् (निघं० ३।६)। रिहाणे= लिह आस्वादने (अदादिः)।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (मातरा) माता और पिता लोगों ! और हे (शुषस्य रिहाणे) उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की अर्चना करने वालो ! आप दोनों (धुर्यं) समस्त संसार के धारण में समर्थ (जाभ्यै) तथा इस संसार को उत्पन्न करने वाली प्रकृति के (पतिम्) परिपालक प्रभु की (आ-ईरयेथाम्) सत्ता को बतलाओ, तत्सम्वन्धी उपदेश प्रजा में करो। वही (कविः) समस्त संसार का क्रान्तदर्शी, अन्तर्यामी है। (यत्) जिस (पूर्व्यम्) पूर्ण, सबके आदिकारण (अजुर्यम्) अविनाशी परमेश्वर को (एते) ये महा विद्वान् योगीगण भी (सदः-सदः आ- तिष्ठन्तः) प्रत्येक विद्वत्सभा में बैठ २ कर (प्रतरं) संसार-सागर से पार उतरने का नाव जानकार (प्र गुः) बड़े प्रेम से प्राप्त होते और उसकी शरण लेते हैं। बालक पक्ष में—(कविः शुषस्य मातरौ) ज्ञानी बलवान् सन्तान के पिता माताओ ! (रिहाणे) अपने सन्तान की प्रशंसा एवं अभिमान करने वाले मां बापो ! तुम लोग (जाम्यै धुर्यं पतिम् आ ईरयेथाम्) अपनी कन्या जिसमें अन्यों ने पुत्र को पैदा करना है उसके लिये गृहस्थ-भार को उठाने में समर्थ पति को उसके पाणिग्रहण करने के लिये प्रेरित करो। (यत्) क्योंकि (एते) ये विद्वान् लोग (सद:-सदः आ-तिष्ठन्तः) अपने २ घर में प्रतिष्ठित होकर, गृहस्थ धारण करके इसी सन्तति को (अजुर्यम्) अविनाशी (पूर्व्यम् प्रतरं प्रगुः) सर्वोत्तम तरणसाधन मानते, जानते और उसे प्राप्त करते हैं। “उशन्ति घा त अमृतास एतदेकस्य चित् त्यजसं मर्त्यस्य” (ऋ० १०। १०। ३) मोक्षमार्गी लोग भी मनुष्य के लिये एक पुत्र को अवश्य ही चाहा करते हैं। और ‘पितुर्नपातमादधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः’ (ऋ० १०। १०। १) गृहस्थी पुत्र-धारण समर्थ अपनी भूमि में, कन्या के पिता के नाती का आधान करे यह समझे कि भवसागर में यही एक तरने का साधन है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिवा अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-४, ६, ८ त्रिष्टुभः। ५ पराबृहती त्रिष्टुप्। ७ विराट्। ९ त्र्यवसाना सप्तपदा अत्यष्टिः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    When these faculties, covering and stablising through every step (i.e., bhumi of the yoga consciousness) of the path to clairvoyance, reach the eternal unaging light of the saviour spirit, the man becomes a kavi, a visionary soul, and heaven and earth, both caressing mother spirits of mighty omniscience, reveal the supreme master and burden bearer of the universe for the sister spirit and inspire the visionary.

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    Translation

    To whom, these old and ancient have gone, each occupying his-imperishable dwelling, to Him, O you broad-going öne, I, a poet, pay my great homage with my poetry.

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    Translation

    As these enlightened men ascending the imperishable dwelling of bliss attain highest accomplishment so the parents of wise and brave praising qualities of their children select and get for their daughter well supporting husband.

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    Translation

    Ye parents of wise and strong progeny, who praise and are proud of your children, select for your daughter, a husband, fit for enduring the burden of domestic life; as all these learned persons, leading married life in their houses, have considered, their progeny, as an everlasting and excellentsource for covering the journey of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(प्र) प्रकर्षेण (यत्) यस्मात्कारणात् (एते) शुचयः स्वाः−म० ३। (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (पूर्व्यम्) अ० ४।१।६। पूर्व-यत्। पूर्वाय समस्ताय जगते हितं परमात्मानम् (गुः) अगुः। प्रापुः (सदःसदः) सदसां सदनीयानां सदः सदनीयम्। प्राप्तव्यानां मध्ये प्राप्तव्यं मोक्षपदम्। (आतिष्ठन्तः) आरुहन्तः (अजुर्यम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति जूरी हिंसावयोहान्योः−यक्। नञ्सुभ्याम्। पा० ६।२।१७२। इति उत्तरपदस्यान्तोदात्तत्वं बहुव्रीहौ। अजरं दृढं सर्वकार्यशक्तम् (कविः) सुपां सुलुक्० पा० ७।१।३९। इति षष्ठ्याः सुः। कवेः मेधाविनः (शुषस्य) शुष शोषणे−क। शुष्णम्, शुष्मम्−बलनाम−निघ० २।९। बलवतः पुरुषस्य (मातरा) मातरौ मातृवदुपकारिके द्यावापृथिव्यौ (रिहाणे) रिह कत्थने−शानच्। रेहति, अर्चति-कर्मा−निघ० ३।१४। अर्चन्त्यौ। स्तुवाने (जाम्यै) अ० १।४।१। भगिनीवत्सहायभूतायै प्रजायै (धुर्यम्) धुरं वहतीति। धुरो यड्ढकौ। पा० ४।४।७७। इति धुर्−यत्। धुरन्धरम्। श्रेष्ठम् (पतिम्) पालकं परमात्मानम्। मोक्षपदं वा (आ ईरयेथाम्) अवगमयतं युवाम् ॥

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