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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदात्यष्टिः सूक्तम् - अमृता सूक्त
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    अ॒र्धम॒र्धेन॒ पय॑सा पृणक्ष्य॒र्धेन॑ शुष्म वर्धसे अमुर। अविं॑ वृधाम श॒ग्मियं॒ सखा॑यं॒ वरु॑णं पु॒त्रमदि॑त्या इषि॒रम्। क॑विश॒स्तान्य॑स्मै॒ वपूं॑ष्यवोचाम॒ रोद॑सी सत्य॒वाचा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्धम् । अ॒र्धेन॑ । पय॑सा । पृ॒ण॒क्षि॒ । अ॒र्धेन॑ । शु॒ष्म॒ । व॒र्ध॒से॒ । अ॒मु॒र॒ । अवि॑म् । वृ॒धा॒म॒ । श॒ग्मिय॑म् ।सखा॑यम् । वरु॑णम् । पु॒त्रम् । अदि॑त्या: । इ॒षि॒रन् । क॒वि॒ऽश॒स्तानि॑ । अ॒स्मै॒ । वपूं॑षि । अ॒वो॒चा॒म॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । स॒त्य॒ऽवाचा॑ ॥१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्धमर्धेन पयसा पृणक्ष्यर्धेन शुष्म वर्धसे अमुर। अविं वृधाम शग्मियं सखायं वरुणं पुत्रमदित्या इषिरम्। कविशस्तान्यस्मै वपूंष्यवोचाम रोदसी सत्यवाचा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्धम् । अर्धेन । पयसा । पृणक्षि । अर्धेन । शुष्म । वर्धसे । अमुर । अविम् । वृधाम । शग्मियम् ।सखायम् । वरुणम् । पुत्रम् । अदित्या: । इषिरन् । कविऽशस्तानि । अस्मै । वपूंषि । अवोचाम । रोदसी इति । सत्यऽवाचा ॥१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (शुष्म) हे बलवान् ! (अमुर) हे किसी से न घेरे गये परमेश्वर ! (अर्धम्) बढ़े हुए संसार को (अर्धेन) बढ़े हुए (पयसा) अपने व्यापकपन से (पृणक्षि) तू संयुक्त करता है और उस (अर्धेन) बढ़े हुए [व्यापकपन] से (वर्धसे) तू बढ़ता है। (अविम्) रक्षक, (शग्मियम्) सुखवान्, (सखायम्) सब के मित्र, (वरुणम्) सब में श्रेष्ठ, (पुत्रम्) सब के शुद्ध करने हारे, और (अदित्याः) अखण्ड प्रकृति के (इषिरम्) चलाने वा देखनेवाले परमेश्वर को (वृधाम) हम बड़ा मानें। (कविशस्तानि) बुद्धिमानों से बड़े माने गये (वपूंषि) रूपों को (अस्मै) इस [परमेश्वर] के लिये (अवोचाम) हम ने कथन किया है, (रोदसी) सूर्य और पृथिवी दोनों (सत्यवाचा) सत्य बोलनेवाले हैं ॥९॥

    भावार्थ

    परमेश्वर सब संसार में सर्वथा भरपूर है, वही महाबली प्रत्येक परमाणु में संयोग वियोग शक्ति देकर संसार को रचता है। उसकी महिमा सब बुद्धिमान् लोग गाते हैं, जो सूर्य और पृथिवी अर्थात् ऊँचे-नीचे और प्रकाशमान अप्रकाशमान लोकों से प्रकट है ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(अर्धम्) ऋधु वृद्धौ−घञ्। अर्धो हरतेर्विपरीताद्धारयतेर्वा स्यादुद्धृतं भवत्यृध्नोतेर्वा स्यादृद्धतमो विभागः−निरु० ३।२०। प्रवृद्धं संसारम् (अर्धेन) प्रवृद्धेन (पयसा) पय गतौ−असुन्। स्वगमनेन स्वव्याप्त्या (पृणक्षि) पृची सम्पर्चने। संयोजयसि (अर्धेन) प्रवृद्धेन व्यापकत्वेन (शुष्म) अ० १।१२।३। शुष्मम्=बलम्−निघ० २।३। ततोऽच्। हे बलवन् (वर्धसे) प्रवृद्धो भवसि (अमुर) मुर संवेष्टने−क। हे अवेष्टित। हे अहिंसित (अविम्) ३।१७।३। रक्षकम् (वृधाम) वर्धयाम प्रशंसाम। (शग्मियम्) युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४६। इति शकेर्मक्, कस्य गः। शग्मं सुखम्−निरु० ३।६। ततो घः। सुखवन्तम् (सखायम्) मित्रम् (वरुणम्) वरणीयम् (पुत्रम्) अ० १।११।५। शोधकम् (अदित्याः) अ० २।२८।४। अखण्डायाः प्रकृतेः (इषिरम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।५१। इति इषु इच्छायाम्−किरच्। यद्वा ईष गतौ, दर्शने च−किरच्। ह्रस्वश्च। इषिरेण ईषणेन वैषणेन वार्षणेन वा−निरु० ४।७। गमयितारम्। दर्शकं परमात्मानाम् (कविशस्तानि) मेधाविभिः स्तुतानि (अस्मै) परमेश्वराय (वपूंषि) रूपाणि, स्वभावान् (अवोचाम) वच वा ब्रूञ्−लुङ्। वयमुक्तवन्तः (रोदसी) अ० ४।१।४। भूतानां रोधनशीले द्यावापृथिव्यौ (सत्यवाचा) सत्यवाचौ सत्यकथनशीले स्तः ॥

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    विषय

    अविम् वरुणम्

    पदार्थ

    १. हे (अमुर) = अमूढ-सर्वज्ञ अथवा अमर प्रभो! आप (अर्धम्) = [Habitation] प्राणियों के निवासभूत इस लोक को (अर्धेन) = वृद्धि [Inerease] के द्वारा तथा (पयसा) = आप्यायन के साधनभूत भोजनों के द्वारा (पृणक्षि) = पूर्ण करते हो। (अर्भेन) = इस वृद्धि के द्वारा (शुष्म वर्धसे) = हम सबके बल को बढ़ाते हो। प्रभु दूध आदि उत्तम भोजनों को प्राप्त कराके हमारे बलों का वर्धन करते हैं। २. हम स्तुतियों के द्वारा उस (अविम्) = रक्षक प्रभु का (वृधाम) = अपने में वर्धन करनेवाले बनें। वे प्रभु (शग्मियम्) = सर्वशक्तिमान् व आनन्दमय हैं, (वरुणम्) = हमारे सब कष्टों व पापों का निवारण करनेवाले है, (सखायम्) = हमारे सच्चे सखा हैं, (पुत्रम्) = [पुनाति त्रायते] हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले तथा हमारा (त्राण) = रक्षण करनेवाले हैं, (अदित्याः इषिरम्) = इस प्रकृति के प्रेरक-गति देनेवाले [Prime Mover] हैं। प्रभु से प्रेरित प्रकृति ही इस विकृति के रूप में-संसार के रूप . में आती है। ३. (सत्यवाचा) = सत्य वेदवाणी द्वारा (कविशस्तानि) = ज्ञानियों से उपदिष्ट रोदसी द्यावापृथिवी में होनेवाले (वपूंषि) = [wonder, wonderful phenomenon] आश्चर्यों को (अस्मै) = इस  प्रभु के स्तवन के लिए (अवोचाम) = कहें। इस ब्रह्माण्ड में होनेवाले आश्चर्यों में प्रभु की महिमा को देखें। प्रभु की महिमा को देखते हुए प्रभु का गुणगान करें, प्रभु-जैसा ही बनने का प्रयत्न

    भावार्थ

    प्रभु संसार को वृद्धि के साधनभूत तत्वों से परिपूर्ण करते हैं। हमारे बलों को बढ़ाते हैं। वे ही रक्षक, सुख के दाता और पाप-निवारक सखा है। वे ही प्रकृति में गति पैदा करके इस अद्भुत ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं। हम उन प्रभु का ही गुणगान करें।

    अगला सूक्त भी 'बृहडिव अथर्वा' का ही है -

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    भाषार्थ

    (अर्धम्) ऋद्ध अर्थात् प्रवृद्ध ब्रह्माण्ड को हे परमेश्वर ! (अर्धेन) निज प्रवृद्ध स्वरूप द्वारा, (पयसा) तथा दुग्ध द्वारा (पृणक्षि) तू प्राणियों के साथ सम्पृक्त है, सम्पर्क करता है। ( शुष्म ) हे बलरूप !, (अमुर) हे अमर ! (अर्धेन) प्रवृद्ध ब्रह्माण्ड द्वारा (वर्धसे) तू कीर्ति में बढ़ता है । ( अविम् ) रक्षक, (शग्मियम्१) शक्तिमय, (सखायम् ) सखारूप, (अदित्याः) अखण्डित प्रकृति के (पुत्रम्) पुत्र को, (इषिरम् ) और उस प्रकृति में गति या प्रेरणा के प्रदाता (वरुणम् ) श्रेष्ठ या वरणीय परमेश्वर को ( वृधाम) हम स्तुतियों द्वारा बढ़ाएँ। (अस्मै) इस परमेश्वर के प्रति ( कविशस्तानि ) परमेश्वर - कवि द्वारा प्रोक्त (वपूंषि) इसके रूपों का (अवोचाम) हमने कथन किया है, (रोदसी) पृथिवी और द्युलोक भी ( सत्यवाचा= सत्यवाचौ ) सत्यस्वरूप ब्रह्म का कथन कर रहे हैं।

    टिप्पणी

    [अर्धम्, अर्धेन=ऋधु वृद्धौ (दिवादिः स्वादिः )। शुष्म बलनाम (निघं० २।९) । अविम्= रक्षक (अव रक्षणे, भ्वादिः)। अदितिः= अदीना देवमाता, सूर्यादि द्युतिमान् पदार्थों की निर्मात्री प्रकृति। प्रकृति की रचनाओं द्वारा परमेश्वर का भान होता है, अतः वह प्रकृति का पुत्र है। पयसा= दुग्धादि भोज्यों द्वारा, पृणक्षि (पृची सम्पर्के, रुधादिः) तू प्राणियों के साथ सम्पर्क करता है। वपूँषि= जैसे प्रकृति और जीवात्मा के मेल से जीवात्मा के वपूंषि होते हैं, वैसे प्रकृति और परमेश्वर के मेल से परमेश्वर के वपूंषि होते हैं, सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथिवी, द्युलोक आदि। ] [१. अथवा सुखस्वरूप। शग्मम् सुखनाम (निघं० ३।६) ।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अमुर) अमर ! परमात्मन् ! आप (अर्धम्) इस विभूति-सम्पन्न संसार को अपने (अर्धेन पयसा) विभूति सम्पन्न तेज, वीर्य, बल से (पृणक्षि) पूर्ण कर रहे हो। और (अर्धेन) विभूति सम्पन्न रूप से इसके (शुष्म) बल को (वर्ध से) बढ़ा रहे हो। हे पुरुषों ! हम (अदित्याः इषिरम्) जगत् की उत्पत्ति के निमित्त, चाहने वाले, प्रेरक और (अविं) उसके परिपालक, (शग्मियं) सर्वशक्तिमान् (सखायं) समस्त संसार के मित्र और (पुत्रम्) पुम् अर्थात् जीव को नरक से बचाने वाले (वरुणम्) सर्वश्रेष्ठ, पापनिवारक प्रभु की (वृधाम) महिमा को हम अपनी स्तुतियों से फैलावें। और (रोदसी) द्यौ और पृथिवी में (अस्मै) इसी परमात्मा के रूप वर्णन के लिये जितने (कविशस्तानि) क्रान्तदर्शी ज्ञानवान् ऋषियों द्वारा बतलाये हुए (वपूंषि) नाना गुप्त, बीज रूप सामर्थ्य हैं उनको (अवोचाम) हम बराबर परस्पर उपदेश किया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिवा अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-४, ६, ८ त्रिष्टुभः। ५ पराबृहती त्रिष्टुप्। ७ विराट्। ९ त्र्यवसाना सप्तपदा अत्यष्टिः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    O Lord of wisdom and omniscience, you complete the expansive universe with ever abundant food of life. You increase the universal potential with expansive power, leaving nothing wanting. O friends, let us exalt Varuna, protector, all potent, friendly, saviour of all, inspiring spirit of inviolable Mother Nature, and let us celebrate the heaven and earth, embodiments of the veracity of existence, and many forms of its various reality sung and celebrated by poets.

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    Translation

    Half you fill with water; O wise one, with half you augment power. We exalt the venerable Lord, the protector; capable, our friend, and the lively son of the existence indivisible. O heaven and earth of true word, we have spoken of his various forms as suggested by the seers (poets).

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    Translation

    O Imperishable Power; Thou are filling the universe with The perfect power, Thou overcomes all powers by Thy perfection. Let us uplift soul which is the protector of body, which enjoys the pleasure of the world, which becomes friend of others, which moves the body ang limbs and which is the child of aditi, the material cause of the world. We, the learned persons speak to him of the worldly bodies which the men of wisdom know and Praise. The heaven and the earth be full of the Vedic speech.

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    Translation

    O Everlasting God, Thou completest this wonderous world with Thy superhuman power, and enhastest its strength. Let us Exalt God, the Goader of the world, its Guardian, the Omnipotent, the Friend of the universe, the Savior of the soul from the misery of sin.Betwixt the truthful Heaven and Earth, let us mention the marvels of God sung by sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(अर्धम्) ऋधु वृद्धौ−घञ्। अर्धो हरतेर्विपरीताद्धारयतेर्वा स्यादुद्धृतं भवत्यृध्नोतेर्वा स्यादृद्धतमो विभागः−निरु० ३।२०। प्रवृद्धं संसारम् (अर्धेन) प्रवृद्धेन (पयसा) पय गतौ−असुन्। स्वगमनेन स्वव्याप्त्या (पृणक्षि) पृची सम्पर्चने। संयोजयसि (अर्धेन) प्रवृद्धेन व्यापकत्वेन (शुष्म) अ० १।१२।३। शुष्मम्=बलम्−निघ० २।३। ततोऽच्। हे बलवन् (वर्धसे) प्रवृद्धो भवसि (अमुर) मुर संवेष्टने−क। हे अवेष्टित। हे अहिंसित (अविम्) ३।१७।३। रक्षकम् (वृधाम) वर्धयाम प्रशंसाम। (शग्मियम्) युजिरुचितिजां कुश्च। उ० १।१४६। इति शकेर्मक्, कस्य गः। शग्मं सुखम्−निरु० ३।६। ततो घः। सुखवन्तम् (सखायम्) मित्रम् (वरुणम्) वरणीयम् (पुत्रम्) अ० १।११।५। शोधकम् (अदित्याः) अ० २।२८।४। अखण्डायाः प्रकृतेः (इषिरम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।५१। इति इषु इच्छायाम्−किरच्। यद्वा ईष गतौ, दर्शने च−किरच्। ह्रस्वश्च। इषिरेण ईषणेन वैषणेन वार्षणेन वा−निरु० ४।७। गमयितारम्। दर्शकं परमात्मानाम् (कविशस्तानि) मेधाविभिः स्तुतानि (अस्मै) परमेश्वराय (वपूंषि) रूपाणि, स्वभावान् (अवोचाम) वच वा ब्रूञ्−लुङ्। वयमुक्तवन्तः (रोदसी) अ० ४।१।४। भूतानां रोधनशीले द्यावापृथिव्यौ (सत्यवाचा) सत्यवाचौ सत्यकथनशीले स्तः ॥

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