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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    0

    तन्न॑स्तु॒रीप॒मद्भु॑तं पुरु॒क्षु। देव॑ त्वष्टा रा॒यस्पो॑षं॒ वि ष्य॒ नाभि॑मस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । न॒: । तु॒रीष॑म् । अत्ऽभु॑तम् । पु॒रु॒ऽक्षु । देव॑ । त्व॒ष्ट॒: । रा॒य: । पोष॑म् । वि । स्य॒ । नाभि॑म् । अ॒स्य ॥२७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्नस्तुरीपमद्भुतं पुरुक्षु। देव त्वष्टा रायस्पोषं वि ष्य नाभिमस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । न: । तुरीषम् । अत्ऽभुतम् । पुरुऽक्षु । देव । त्वष्ट: । राय: । पोषम् । वि । स्य । नाभिम् । अस्य ॥२७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (देव) हे व्यवहार में चतुर (त्वष्टः) सूक्ष्मदर्शी पुरुष ! (नः) हमारे लिये (तत्) वह (तुरीपम्) शीघ्र रक्षा करनेवाला, (अद्भुतम्) अद्भुत, (पुरुक्षु) बहुत अन्न और (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि (अस्य) इस [घर] के (नाभिम्) मध्यदेश में (वि ष्य) खोल दे ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक पुष्कल अन्न और धन से घरों को परिपूर्ण करके यथावत् पोषण करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(तत्) (नः) अस्मभ्यम् (तुरीपम्) तुरी−पम्। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति तुर वेगे−इनि, ङीप्+पा रक्षणे−क। तुर्या वेगेन रक्षकम्। तुरीपं पदनाम−निघ० ४।३। तुरीपं तूर्णापि−निरु० ६।२१। (अद्भुतम्) आश्चर्यवत् (पुरुक्षु) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति क्षि निवासगत्योः−कु, स च डित्। क्षु अन्ननाम−निघ० २।७। बह्वन्नम् (देव) हे व्यवहारकुशल (त्वष्टः) सूक्ष्मदर्शिन् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (वि ष्य) विमुञ्च। स्यतिरुपसृष्टो विमोचने−निरु० १।१७। (नाभिम्) मध्यदेशं प्रति (अस्य) गृहस्य ॥

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    विषय

    हम धन में हो, पर उससे बैंध न जाएँ

    पदार्थ

    १. (त्वष्टः देव) = सर्वनिर्मात:, दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (न:) = हमारे लिए (तत्) = उस (तुरीपम्) = [तुरी-great strength] महती शक्ति के रक्षक, (अद्भुतम्) = आश्चर्यकारक गुणों को उत्पन करनेवाले, (पुरुक्षु) ृ पालन व पूराण करनेवाले तथा उत्तम निवासवाले [पुरुक्षु, पृपालनपूरणयोः, क्षि निवासगत्योः], (रायस्पोषम्) ृ धन के पोषण को (विष्य) ृ छोड़िए-बरसाइए, अर्थात् खूब प्राप्त कराइए। २. धन तो हमें प्राप्त कराइए, परन्तु हे प्रभो! (नाभि:) ृ इस धन के बन्धन को [णह बन्धने] (अस्य) = [असु क्षेपणे] परे फेंक दीजिए। यह धन हमें बाँधनेवाला न हो।

    भावार्थ

    हे प्रभो! हमें वह धन प्राप्त कराइए जो शक्ति का रक्षक व अद्भुत उन्नति का साधक हो, जो पालक-पूरक ब निवास को उत्तम बनानेवाला हो। साथ ही यह भी अनुग्रह कीजिए कि हम धन में फंस न जाएँ।

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    भाषार्थ

    (देव त्वष्टः) हे त्वष्टा देव ! ( तत् ) उस ( तुरीयम् ) त्वरया अर्थात् शीघ्रता से पालक, (अद्भुतम् ) विचित्र (पुरक्षु) महती अन्न-राशि को तथा (रायः पोषम्) पुष्ट सम्पत् को ( न: विष्य) हमारे लिए विमुक्त कर, जैसे कि (अस्य) इस नवजात शिशु की (नाभिम्) नाभि को [नाभिनाल से ] विमुक्त किया जाता है ।

    टिप्पणी

    [हे रूप-आकृतियों के निर्माता परमेश्वर ! तु समग्र अन्नों और धनों का स्वामी है। इन दो निधियों को तू हमारे लिए विमुक्त कर दे। पुरक्षु =पुरु +क्षु (अन्नम्, निघं० २।७)। अन्न अद्भुत है, अद्भुत शक्तिवाला है, इसके खाते ही शरीर की पालना होती है, यह शीघ्रता से शरीर में शक्ति प्रदान करता है।]

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    विषय

    ब्रह्मोपासना।

    भावार्थ

    (नः) हमारा (तत्) वह (तुरीषम्) अति शीघ्रता से प्राप्त करने योग्य अथवा शीघ्रता से गति करने वाला (अद्भुतं) आश्चर्यजनक (पुरुक्षु) इन्द्रियों में निवास करने वाला मन है। हे (देव) सर्वप्रकाशक (त्वष्टः) सूक्ष्मकर्तः परमात्मन् ! (अस्य) इस जीव के (रायः-पोषं) ज्ञान, प्राण एवं नाना सामर्थ्यों से पुष्टि को प्राप्त होने वाले (नाभिम्) बन्धन रूप देह या मन को (वि-स्य) खोल दे। हमें मुक्ति प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ द्विपदा साम्नी भुरिगनुष्टुप्। ३ द्विपदा आर्ची बृहती। ४ द्विपदा साम्नी भुरिक् बृहती। ५ द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ६ द्विपदा विराड् नाम गायत्री। ७ द्विपदा साम्नी बृहती। २-७ एकावसानाः। ८ संस्तार पंक्तिः। ९ षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती। १०-१२ परोष्णिहः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    May divine Tvashta, creator and maker of refined forms and institutions, create and grant us that abundant, wonderful wealth, energy and food for body, mind and soul that grows fast for all, place it at the centre-vedi of the social order, open up doors of prosperity and relieve us of all want and suffering.

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    Translation

    O divine universal architect (tvastr), may you pour on us that quick-coming and wonderful abundance of riches which resides in the multitude. May you release the central knot of this sacrificer. (Also Yv. XXVII.20) (Tvastr)

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    Translation

    Let powerful Tvastar, fire of Yajna quickly give for us that wealth which contains plenty of grains and which is unprecedented. Let it pour

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    Translation

    That mind of ours, fast in motion, wonderful in nature, resides in the organs. O Refulgent God, release this soul from the bondage of the body,nourished through knowledge and breaths.

    Footnote

    Release: Grant salvation: See Yajur, 27-20.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(तत्) (नः) अस्मभ्यम् (तुरीपम्) तुरी−पम्। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति तुर वेगे−इनि, ङीप्+पा रक्षणे−क। तुर्या वेगेन रक्षकम्। तुरीपं पदनाम−निघ० ४।३। तुरीपं तूर्णापि−निरु० ६।२१। (अद्भुतम्) आश्चर्यवत् (पुरुक्षु) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति क्षि निवासगत्योः−कु, स च डित्। क्षु अन्ननाम−निघ० २।७। बह्वन्नम् (देव) हे व्यवहारकुशल (त्वष्टः) सूक्ष्मदर्शिन् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (वि ष्य) विमुञ्च। स्यतिरुपसृष्टो विमोचने−निरु० १।१७। (नाभिम्) मध्यदेशं प्रति (अस्य) गृहस्य ॥

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