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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्न्यादयः छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    1

    त्रयः॑ सुप॒र्णास्त्रि॒वृता॒ यदाय॑न्नेकाक्ष॒रम॑भिसं॒भूय॑ श॒क्राः। प्रत्यौ॑हन्मृ॒त्युम॒मृते॑न सा॒कम॑न्त॒र्दधा॑ना दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रय॑: । सु॒ऽप॒र्णा: । त्रि॒ऽवृता॑ । यत् । आय॑न् । ए॒क॒ऽअ॒क्ष॒रम् । अ॒भि॒ऽसं॒भूय॑ । श॒क्रा: । प्रति॑ । औ॒ह॒न् । मृ॒त्युम् ।अ॒मृते॑न । सा॒कम् । अ॒न्त॒:ऽदधा॑ना: । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ ॥२८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रयः सुपर्णास्त्रिवृता यदायन्नेकाक्षरमभिसंभूय शक्राः। प्रत्यौहन्मृत्युममृतेन साकमन्तर्दधाना दुरितानि विश्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रय: । सुऽपर्णा: । त्रिऽवृता । यत् । आयन् । एकऽअक्षरम् । अभिऽसंभूय । शक्रा: । प्रति । औहन् । मृत्युम् ।अमृतेन । साकम् । अन्त:ऽदधाना: । दु:ऽइतानि । विश्वा ॥२८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रक्षा और ऐश्वर्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रयः) तीन (शक्राः) समर्थ (सुपर्णाः) बड़े पोषक पदार्थ (त्रिवृता) त्रिवृति [तीन जीवनसाधन] के साथ (एकाक्षरम्) एक अविनाशी ब्रह्म को (अभिसंभूय) सब ओर से प्राप्त कर के (यत्) जब (आयन्) प्राप्त हुए। (विश्वा) सब (दुरितानि) अनिष्टों को (अन्तर्दधानाः) ढकते हुए उन्होंने (अमृतेन साकम्) मृत्यु से बचने के साधन के साथ [वर्तमान हो कर] (मृत्युम्) मृत्यु के कारण को (प्रति औहन्) मिटा दिया ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य पुरुषार्थ आदि [म० १] तीन उपायों से अन्न, पुरुष और पशु द्वारा [म० ३] दरिद्रता आदि कष्टों को हटाकर अपना जीवन सुफल करें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(त्रयः) (सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपोषकपदार्थाः−म० ३। (त्रिवृता) म० २। त्रिवृत्या त्रिजीवनवर्त्तनेन−म–० १। (यत्) यदा (आयन्) इण्−लङ्। अगच्छन् (एकाक्षरम्) न क्षरतीति अक्षरम्। क्षर संचलने−अच्। अद्वितीयं विनाशरहितं ब्रह्म (अभिसंभूय) भू प्राप्तौ−ल्यप्। सर्वतः प्राप्य (शक्राः) शक्ताः (प्रति) प्रतिकूलम् (औहन्) उहिर् अर्दने−लङ्। हतवन्तः (मृत्युम्) मरणसाधनं बुभुक्षादिरूपम् (अमृतेन) अमरणसाधनेन (साकम्) सहवर्तमानाः सन्तः (अन्तर्दधानाः) आच्छादयन्तः (दुरितानि) अनिष्टानि (विश्वा) सर्वाणि ॥

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    विषय

    शक्राः

    पदार्थ

    १. (त्रयः सुपर्णा:) = मन्त्र छह में वर्णित उत्तमता से पालन करनेवाले तीनों हिरण्य 'स्वर्णभस्म, सोमरस व वीर्य' (त्रिवृता) = 'हरित, रजत व अयस' में विष्ठित त्रिकों के साथ (यदा आयन्) = जब प्राप्त होते हैं तब ये उपासक (एकाक्षरम् अभिसंभूय) = उस अद्वितीय, अविनाशी प्रभु की ओर गतिवाले होकर-प्रभु-प्रवण होकर (शक्रा:) = वस्तुतः शक्तिशाली बनते हैं। २. ये अमृतेन साकम अमृतत्व के साधनभूत वीर्य से रक्षण के साथ (मृत्युम्) = मृत्यु को (प्रत्यौहन्) = [अहिर् अर्दन] अपने से दूर पीड़ित करते हैं तथा (विश्वा दुरितानि) = सब दुरितों को दुर्गमनों को (अन्तर्दधाना:) = अन्तर्हित करते हैं।

    भावार्थ

    'स्वर्ण, सोमरस व वीर्य' को प्राप्त करके प्रभु-प्रवण होते हुए हम शक्तिशाली बनें, मृत्यु को अपने से दूर करें, वीर्यरक्षण से सब पापों को अपने से तिरोहित कर दें-दूर भगा दें।

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    भाषार्थ

    (त्रयः) तीन (सुपर्णाः) सुपतन१ अर्थात् गतिशील शरीर [स्थूल, सूक्ष्म, कारणरूपी], (त्रिवृता) तीन [ धातुओं के सेवन ] द्वारा (शक्राः) शक्तिशाली हुए, (संभूय) परस्पर मिलकर ( यत् ) जो (एकाक्षरम् अभि ) एक अक्षीण परमेश्वर के संमुख (आयन्) आ जाते हैं, हो जाते हैं, तो वे तीनों शरीर (अमृतेन साकम् ) अमर परमेश्वर के साथ हुए, (मृत्युम् ) मृत्यु को (प्रत्यौहन्) खदेड़ देते हैं और (विश्वा दुरितानि) सब दुष्परिणामी कर्मों को (अन्तर्दधानाः) अन्तहित कर देते हैं, तिरोहित कर देते हैं।

    टिप्पणी

    [अक्षरम्=न क्षीयते इति । एकाक्षर 'ओ३म्' भी सम्भव है और तद्वाच्य परमेश्वर भी। प्रत्यौहन् यथा "मृत्योः पदम् योपयन्त एत" (अथर्व० १२।२।३०)। प्रत्यौहन्="प्रति (उल्टे) +वह (प्राप्त करना ) ", उल्टे कदम वापस कर देना।] [१. सुपर्णाः= सुपतनाः (निरुक्त ४।१।२; ३।२।१५)।]

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    विषय

    दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।

    भावार्थ

    (यद्) जब (शक्राः) शक्तिमान्, (त्रयः) तीन (सुपर्णाः) शुभ ज्ञानवान् आत्मा (त्रि-वृता) त्रिगुण प्राण के बल से (एकाक्षरम्) एक मात्र अक्षर ‘ओ३म् पद वाच्य अविनाशी परम-ब्रह्म को (अभिसंभूय) प्राप्त करके (आयन्) मोक्ष को प्राप्त होते हैं तब वे (अमृतेन) अमृतमय आत्मा के स्वरूप से (विश्वा दुरितानि) समस्त दुष्ट आचरणों को, पापों को (साकं) एक साथ ही (अन्तः दधानाः) भीतर ही रोक कर, नियमित करके (मृत्युम्) मौत को (प्रति-औहन्) वश कर लेते हैं।

    टिप्पणी

    तीन सुपर्ण तीन प्रकार के योगी। ध्यानयोगी, कर्मयोगी या वसु, रुद्र और आदित्य। अथवा इन्द्रिय मन और आत्मा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Longevity and the Sacred thread

    Meaning

    Three mighty sojourners wearing the triple armour of Jnana (knowledge), Karma (right action) and Bhakti (divine worship), who rise, having self-realised the spirit and presence of the One Imperishable Om, transcend the fear and pain of death at a single stroke by the vision of Immortality after they have overcome all the negativities and fluctuations of material existence within. (Three sojours: Jnana yogis, Karma yogis and Bhakti yogis, or Vasu, Rudra and Aditya scholars, or senses, mind and soul.)

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    Translation

    When the three mighty eagles come in the form of the triple thread joining in one single letter, they dispel the death away with ambrosia, making all the evils vanish.

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    Translation

    When three Strong sentient elements the mind, intellect and spirit with triple vital airs attaining. Imperishable one (God) gain emancipation they through the immortality over-coming all the evils simultaneously drive away death.

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    Translation

    When three kinds of powerful, learned souls, with the help of threefold breaths, realizing the One God, symbolized by Om, attain to salvation, then,they, with the power of divine soul, simultaneously suppressing all sins, gainfull mastery over death.

    Footnote

    ‘Three kinds of souls' refer to Vasu, Rudra and AdityaBrahmcharis. Three breaths: Prana, Apana, Vyana.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(त्रयः) (सुपर्णाः) अ० १।२४।१। सुपोषकपदार्थाः−म० ३। (त्रिवृता) म० २। त्रिवृत्या त्रिजीवनवर्त्तनेन−म–० १। (यत्) यदा (आयन्) इण्−लङ्। अगच्छन् (एकाक्षरम्) न क्षरतीति अक्षरम्। क्षर संचलने−अच्। अद्वितीयं विनाशरहितं ब्रह्म (अभिसंभूय) भू प्राप्तौ−ल्यप्। सर्वतः प्राप्य (शक्राः) शक्ताः (प्रति) प्रतिकूलम् (औहन्) उहिर् अर्दने−लङ्। हतवन्तः (मृत्युम्) मरणसाधनं बुभुक्षादिरूपम् (अमृतेन) अमरणसाधनेन (साकम्) सहवर्तमानाः सन्तः (अन्तर्दधानाः) आच्छादयन्तः (दुरितानि) अनिष्टानि (विश्वा) सर्वाणि ॥

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