अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 14
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्न्यादयः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
1
घृ॒तादुल्लु॑प्तं॒ मधु॑ना॒ सम॑क्तं भूमिदृं॒हमच्यु॑तं पारयि॒ष्णु। भि॒न्दन्त्स॒पत्ना॒नध॑रांश्च कृ॒ण्वदा मा॑ रोह मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तात्। उत्ऽलु॑प्तम् । मधु॑ना । सम्ऽअ॑क्तम् । भू॒मि॒ऽदृं॒हम् । अच्यु॑तम् । पा॒र॒यि॒ष्णु । भि॒न्दत् । स॒ऽपत्ना॑न् । अध॑रान् । च॒ । कृ॒ण्वत् । आ । मा॒ । रो॒ह॒ । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥२८.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतादुल्लुप्तं मधुना समक्तं भूमिदृंहमच्युतं पारयिष्णु। भिन्दन्त्सपत्नानधरांश्च कृण्वदा मा रोह महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठघृतात्। उत्ऽलुप्तम् । मधुना । सम्ऽअक्तम् । भूमिऽदृंहम् । अच्युतम् । पारयिष्णु । भिन्दत् । सऽपत्नान् । अधरान् । च । कृण्वत् । आ । मा । रोह । महते । सौभगाय ॥२८.१४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा और ऐश्वर्य का उपदेश।
पदार्थ
(घृतात्) प्रकाश से (उल्लुप्तम्) ऊपर खींचा गया, (मधुना) ज्ञान से (समक्तम्) अच्छे प्रकार प्रगट किया गया, (भूमिदृंहम्) भूमि को दृढ़ करनेवाला, (अच्युतम्) अटल, (पारयिष्णु) पार करनेवाला, [ब्रह्म] (सपत्नान्) वैरियों को (भिन्दन्) छिन्न-भिन्न करता हुआ (च) और (अधरान्) नीचा (कृण्वत्) करता हुआ तू [ब्रह्म] (मा) मुझको (महते) बड़े (सौभगाय) सौभाग्य के लिये (आ रोह) ऊँचा कर ॥१४॥
भावार्थ
मनुष्य सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा की महिमा जानकर अपने विघ्नों का नाश करके सौभाग्य प्राप्त करें ॥१४॥
टिप्पणी
१४−(घृतात्) प्रकाशात् (उल्लुप्तम्) उद्धृतम् (मधुना) ज्ञानेन (समक्तम्) अञ्जू व्यक्तौ−क्त। सम्यग्−व्यक्तीकृतम् (भूमिदृंहम्) भूमि+दृहि वृद्धौ−अच्। भूमिदृढकरम् (अच्युतम्) च्युङ् गतौ−क्त। अचलम् (पारयिष्णु) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति पार कर्मसमाप्तौ−इष्णुच्। पारकं ब्रह्म (भिन्दन्) विदारयत् (सपत्नान्) शत्रून् (अधरान्) नीचान् (च) (कृण्वत्) कुर्वत् (मा) माम् (आ रोह) रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च, अन्तर्गतण्यर्थः। आरूढं कुरु (महते) विशालाय (सौभगाय) अ० १।१८।२। सुभगत्वाय। शोभनैश्वर्याय ॥
विषय
घृतादुल्लुस मधुना समक्तम्
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित 'तेजस्' को सम्बोधित करते हुए साधक कहता है कि यह तेजस् (घृतात्) = दीसि-ज्ञानदीप्ति के हेतु से (उत् लुसम्) = ऊर्ध्वगतिवाला किया जाकर अदृष्ट किया जाता है। वीर्य की ऊर्ध्व गति करनेवाला 'ऊर्ध्वरेतस्' पुरुष अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला होता है। यह वीर्य (मधना) = माधुर्य के हेतु से (समक्तम्) = शरीर में संगत किया गया है। सुरक्षित हुआ हुआ वीर्य जीवन को मधुर बनाता है। (भूमिदृहम्) = यह शरीररूप भूमि को दृढ़ बनाता है, (अच्युतम्) = हमें शरीर से च्युत नहीं होने देता, अर्थात् दीर्घजीवन का कारण बनता है। पारयिष्णु-हमें सब रोगों से पार ले-जानेवाला है। २. (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को (भिन्दन) = विदीर्ण करता हुआ (च) = तथा (अधरान् कृण्वत्) = उन्हें पाव तले रौंदता हुआ हे वीर्य! तू (महते सौभगाय) = मेरे महान् सौभाग्य के लिए (मा आरोह) = मेरे शरीर में आरोहण कर-ऊर्ध्वगतिवाला हो। शरीर में सुरक्षित हुआ यह वीर्य हमारे सब प्रकार के उत्थान का कारण बनता है।
भावार्थ
'ज्ञानदीति तथा माधुर्य' के हेतु से वीर्य को शरीर में सुरक्षित व ऊर्ध्वगतिवाला किया जाता है। यह शरीर को दृढ़ बनाता है, हमें सब रोगों से पार ले-जाता है, रोगरूप शत्रुओं को कुचलता हुआ यह हमारे महान् सौभाग्य के लिए हो।
विशेष
वीर्यरक्षा द्वारा रोगरूप शत्रुओं का विनाश करनेवाला व्यक्ति 'चातन' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(घृतात् ) घृत से (उल्लुप्तम्१) उठे और लुप्त दर्शन हुए, परित्यक्त हुए, (मधुना) माधुर्य द्वारा (समक्तम्) सम्यक्-अभिव्यक्त हुए, (भूमि- दृहतम्) भूमि को दृढ़ करने वाले (अच्युतम्) न च्युत होनेवाले अर्थात् कूटस्थ, (पारयिष्णु) भवसागर से पार करनेवाले, (सपत्नान्) कामादि शत्रुओं को (भिन्दत्) छिन्न-भिन्न करनेवाले, (अधरान् च) और उन्हें अधोगतिक (कृण्वत्) करते हुए हे जीवन्मुक्त ! [मन्त्र ८] तू (महते सौभगाय) महा सौभाग्य अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिये (मा) मुझ परमेश्वर पर (आरोह) आरोहण कर।
टिप्पणी
[घृतात् उल्लुप्तम्=यज्ञों में घृत की आहुतियों से रहित हुए, परन्तु जीवन में माधुर्य या मधुविद्या द्वारा अभिव्यक्त होनेवाले मुझ परमेश्वर पर आरोहण कर। अभिप्राय यह कि गन्तव्य स्थान में जाना चाहता हुआ व्यक्ति जैसे अश्व पर आरोहण करता है, इसी प्रकार हे जीवन्मुक्त ! तू मुझ परमेश्वर पर आरोहण कर, ताकि शरीर छूटने पर मोक्षस्थान में मैं तुझे पहुँचा दूं। भूमिदृहतम्= "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा" (यजु:० ३२।६)।] [१. घृत साध्य-पज्ञिय कर्मों से उठे हुए, तथा लुष्तदर्शन हुए मुझ परमेश्वर पर आरोहण कर। अभिप्राय यह कि परमेश्वर की प्राप्ति अर्थात् उसका दर्शन घृत साध्यकाम्य कर्मों द्वारा नहीं होता। ]
विषय
दीर्घ जीवन का उपाय और यज्ञोपवीत की व्याख्या।
भावार्थ
हे पुरुष ! जीव ! तू (घृताद् उत्-लुप्तं) घृत = प्रकाशमय ज्ञान से आवृत और (मधुना सम्-अक्तम्) मधु, योगमय तप या आत्मानन्द से व्याप्त (भूमि-द्दंहम्) भूमि के समान दृढ़ (पारयिष्णु) समस्त विघ्नों को पार करने में समर्थ हों। और (स-पत्नान) अपने शत्रुओं को (भिन्दत्) छिन्न भिन्न करता हुआ और (अधरान् च) उनको नीचे (कृण्वत्) करता हुआ तू (महते) बड़े भारी (सौभगाय) श्रेष्ठ ऐश्वर्य के प्राप्त करने के लिये (मा) मुझ आचार्य या ब्रह्म का (आ रोह) आश्रय ले।
टिप्पणी
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः॥ मनुः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। त्रिवृत देवता। १-५, ८, ११ त्रिष्टुभः। ६ पञ्चपदा अतिशक्वरी। ७, ९, १०, १२ ककुम्मत्यनुष्टुप् परोष्णिक्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Longevity and the Sacred thread
Meaning
O man, born of light, refined with sweets as honey, firm as earth, immovable, eager to lead and cross the seas, breaking through adversaries and defeating opposition and evil, come, rise with me for self- fulfilment and well being of high order.
Translation
Taken out of purified butter, anointed with honey, firm as earth, unshaken and triumphant, battering the enemies and putting them down, may you ascend me for bringing all round great prosperity.
Translation
Let this sacred thread (yajnopavita) remain bound on me for great fortune. It is full of ghee, besprinkled with honey, stable and firm like earth, unshakable, triumphant, despell of internal enemies and crusher of evils.
Translation
O soul, thou art, full of knowledge, replete with the pleasure of yogicpractices, firm like the earth, unshakable and triumphant, breaking downthy foes and casting them below, take shelter under me for exalted fortune.
Footnote
Me refers to God or the Preceptor.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१४−(घृतात्) प्रकाशात् (उल्लुप्तम्) उद्धृतम् (मधुना) ज्ञानेन (समक्तम्) अञ्जू व्यक्तौ−क्त। सम्यग्−व्यक्तीकृतम् (भूमिदृंहम्) भूमि+दृहि वृद्धौ−अच्। भूमिदृढकरम् (अच्युतम्) च्युङ् गतौ−क्त। अचलम् (पारयिष्णु) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। इति पार कर्मसमाप्तौ−इष्णुच्। पारकं ब्रह्म (भिन्दन्) विदारयत् (सपत्नान्) शत्रून् (अधरान्) नीचान् (च) (कृण्वत्) कुर्वत् (मा) माम् (आ रोह) रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च, अन्तर्गतण्यर्थः। आरूढं कुरु (महते) विशालाय (सौभगाय) अ० १।१८।२। सुभगत्वाय। शोभनैश्वर्याय ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal