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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सर्वात्मा रुद्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
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    इन्द्र॑स्य गृ॒होऽसि॑। तं त्वा॒ प्र प॑द्ये॒ तं त्वा॒ प्र वि॑शामि॒ सर्व॑गुः॒ सर्व॑पूरुषः॒ सर्वा॑त्मा॒ सर्व॑तनूः स॒ह यन्मेऽस्ति॒ तेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । गृ॒ह: । अ॒सि॒ । तम् । त्वा॒ । प्र । प॒द्ये॒ । तम् । त्वा॒ । वि॒शा॒मि॒ । सर्व॑ऽगु: । सर्व॑ऽपुरुष: । सर्व॑ऽआत्मा । सर्व॑ऽतनू: । स॒ह । यत् । मे॒ । अस्ति॑ । तेन॑ ॥६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य गृहोऽसि। तं त्वा प्र पद्ये तं त्वा प्र विशामि सर्वगुः सर्वपूरुषः सर्वात्मा सर्वतनूः सह यन्मेऽस्ति तेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । गृह: । असि । तम् । त्वा । प्र । पद्ये । तम् । त्वा । विशामि । सर्वऽगु: । सर्वऽपुरुष: । सर्वऽआत्मा । सर्वऽतनू: । सह । यत् । मे । अस्ति । तेन ॥६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सुख प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] तू (इन्द्रस्य) जीवात्मा का (गृहः) आश्रय (असि) है। (सर्वगुः) सब गौ आदि पशुओं सहित, (सर्वपुरुषः) सब पुरुषों सहित, (सर्वात्मा) पूरे आत्मबल सहित, (सर्वतनूः) सब शरीरसहित मैं (तम् त्वा) उस तुझ को (प्र पद्ये) प्राप्त होता हूँ, (तम् त्वा) उस तुझ में (प्रविशामि) प्रवेश करता हूँ। और (यत्) जो कुछ (मे) मेरा (अस्ति) है (तेन सह) उसके साथ भी ॥११॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब प्रकार से आत्मसमर्पण करके परमेश्वर की आज्ञापालन में सदा प्रसन्नचित्त रहे ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(इन्द्रस्य) जीवात्मनः (गृहः) आश्रयः (असि) (तम्) तादृशम् (त्वाम्) परमात्मानम् (प्रपद्ये) प्राप्नोमि (तम्) (त्वा) त्वाम् (प्रविशामि) प्रविष्टो भवामि (सर्वगुः) गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य। पा० १।२।४८। इति गोशब्दस्य ह्रस्वः। सर्वपशुभिर्युक्तः (सर्वपुरुषः) सर्वजनसहितः (सर्वात्मा) पूर्णात्मबलसहितः (सर्वतनूः) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। इति तनु विस्तारे−ऊ प्रत्ययः। सर्वशरीरः (सह) सहितः (यत्) यत्किंचिद्वस्तु (मे) मम (अस्ति) भवति (तेन) वस्तुना ॥

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    विषय

    इन्द्रस्य गृहः [गृह्णाति, गृह+क ]

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (गृहः असि) = ग्रहण करनेवाले - स्वीकार करनेवाले हैं, (तं त्वा प्रपद्ये) = मैं उन आपकी शरण में आता हूँ, तं त्वा प्रविशामि उन आपमें मैं प्रवेश करता हूँ । २. (सर्वगुः) = सब ज्ञानेन्द्रियोंवाला, (सर्वपूरुषः) = सब पौरुषोंवाला (पुरुषस्य भावः पौरुषम्), सर्वात्मा सब मनोबलवाला [आत्मा - मन], (सर्वतनूः) = पूर्ण स्वस्थ शरीरवाला मैं (यत् मे अस्ति) = जो कुछ मेरा है, (तेन सह) = उसके साथ आपकी शरण में आता हूँ-आपमें ही प्रविष्ट होता हूँ।

    भावार्थ

    हे प्रभो! आप जितेन्द्रिय पुरुष को स्वीकार करते हो। मैं अपनी ज्ञानेन्द्रिय, पौरुष, मन व शरीर को उत्तम बनाता हुआ इन सबके साथ आपमें प्रवेश करता हूँ, आपकी शरण में आता हूँ। जो कुछ मेरा है, वस्तुतः वह सब आपका ही है ।

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    भाषार्थ

    [है ब्रह्म ! तु] (इन्द्रस्य) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा का (गृहः असि) घर है. आश्रय है। (तम्, त्वा, प्रपद्ये) उस तुझको मैं प्राप्त होता हूँ, (तम्, त्वा, प्रविशामि) उस तुझमें में प्रवेश करता हूँ, (सर्वगु:) सब इन्द्रियोंवाला होता हुआ, तथा (सर्वपूरूषः ) सब पुरुषोंवाला होता हुआ भी। (सर्वात्मा) सर्वनामक तुझ ब्रह्म को निज आत्मा समझता हुआ, (सर्वतनू:) सब अवयवोंवाली तनूवाला, (सह तेन) उस सबके साथ होता हुआ (यत् मे अस्ति) जो कुछ कि मेरा है ।

    टिप्पणी

    [योगी निज आत्मा का सच्चा घर ब्रह्मा को जानकर, सांसारिक वस्तुओं से विरक्त हुआ, समाध्यवस्था में ब्रह्म में लीन होता है, यह उसका आत्मरूप से ब्रह्मा में प्रवेश पाना है। “सर्वगु:" में "गु" द्वारा इन्द्रियों१ अभिप्रेत है। "सर्वपूरुषः" द्वारा पुरुष सम्पत् का निर्देश हुआ है । बह्म को "सर्व" कहा है, यथा "सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः" ( गीता ११।४० )।] [१. (उणादि २। ६८ दयानन्द)।]

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    विषय

    जगत्-स्रष्टा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    शरणागतों को उपदेश है कि वे राजा से कहें कि (इन्द्रस्य गृहः असि) इन्द्र = ऐश्वर्यशील उस राजशक्ति का तू गृह = आश्रय-स्थान है। हे राजन् ! (तं त्वा प्रपद्ये) मैं तेरी शरण हो, तुझे प्राप्त होता हूं, (तं त्वा प्र विशामि) उस परमशक्तिमान् की सेवा में प्रविष्ट अर्थात् भर्ती होता हूं। मैं (सर्वगुः) अपनी सब गौओं, इन्द्रियों सहित, (सर्व-पुरुषः) सब पुरुषों सहित, (सर्वात्मा) सब मन और (सर्व-तनूः) सम्पूर्ण शरीर और (यत् मे अस्ति तेन) और जो भी मेरा है उसके सहित तेरी शरण होता हूं। राजा जिनको अपने साथ मिलावे उनसे इस प्रकार का प्रतिज्ञापत्र लिखा कर अपने साथ लेकर उनको अपनी सेना आदि के कार्यों में नियुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १ सोमरुदौ, ब्रह्मादित्यौ, कर्माणि रुद्रगणाः हेतिश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। ४ अनुष्टुबुष्णिक् त्रिष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती। ५–७ त्रिपदा विराड् नाम गायत्री। ८ एकावसना द्विपदाऽनुष्टुप्। १० प्रस्तारपंक्तिः। ११, १३, पंक्तयः, १४ स्वराट् पंक्तिः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    O lord of life, you are the centre of all power and potential, you are the haven and home of the soul, I come to you, I join your presence with all my faculties, all my people, with all my soul, with all my body and mind, with all that is mine, I surrender to you.

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    Subject

    All-designating Rudrah

    Translation

    You are the abode of the resplendent Lord. To you as such, I approach. I enter you as such, with all my senses (gau), with all my manly activity, with all my soul, with all my body and, with all whatever is mine.

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    Translation

    O King! you are the house of Rudra-Indra, the dreadful mighty power. I come to you for my shelter, I enter unto you, the all-round refuge and I do so with all my cattles, with all my people, with all MY spirit, with all my body and with that which I possess.

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    Translation

    O God, Thou art the refuge of the soul. I betake me to Thee, I enter Thy service, with all my dynamic strength, with all my enterprising spirit, with all my spiritual force, with all my physical force, nay with mine entire possessions!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(इन्द्रस्य) जीवात्मनः (गृहः) आश्रयः (असि) (तम्) तादृशम् (त्वाम्) परमात्मानम् (प्रपद्ये) प्राप्नोमि (तम्) (त्वा) त्वाम् (प्रविशामि) प्रविष्टो भवामि (सर्वगुः) गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य। पा० १।२।४८। इति गोशब्दस्य ह्रस्वः। सर्वपशुभिर्युक्तः (सर्वपुरुषः) सर्वजनसहितः (सर्वात्मा) पूर्णात्मबलसहितः (सर्वतनूः) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। इति तनु विस्तारे−ऊ प्रत्ययः। सर्वशरीरः (सह) सहितः (यत्) यत्किंचिद्वस्तु (मे) मम (अस्ति) भवति (तेन) वस्तुना ॥

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