अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सोमारुद्रौ
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
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अपै॑तेनारात्सीरसौ॒ स्वाहा॑। ति॒ग्मायु॑धौ ति॒ग्महे॑ती सु॒षेवौ॒ सोमा॑रुद्रावि॒ह सु मृ॑डतं नः ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । एतेन॑ ।अ॒रा॒त्सी॒: । अ॒सौ॒ । स्वाहा॑ । ति॒ग्मऽआ॑युधौ । ति॒ग्महे॑ती॒ इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती । सु॒ऽशेवौ॑ । सोमा॑रुद्रौ । इ॒ह । सु । मृ॒ड॒त॒म् । न॒: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपैतेनारात्सीरसौ स्वाहा। तिग्मायुधौ तिग्महेती सुषेवौ सोमारुद्राविह सु मृडतं नः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । एतेन ।अरात्सी: । असौ । स्वाहा । तिग्मऽआयुधौ । तिग्महेती इति तिग्मऽहेती । सुऽशेवौ । सोमारुद्रौ । इह । सु । मृडतम् । न: ॥६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सुख प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (एतेन) अपनी व्याप्ति से (असौ) उस तूने [दुष्ट जनको] (अप अरात्सीः) अपराधी ठहराया है, (स्वाहा) यह सुन्दर वाणी वा स्तुति है। (तिग्मायुधौ) हे तेज शस्त्रोंवाले, (तिग्महेती) पैने वज्रोंवाले, (सुशेवौ) बड़े सुखवाले, (सोमारुद्रौ) ऐश्वर्य के कारण और ज्ञानदाता, अथवा चन्द्रमा और प्राण के तुल्य, राजा और वैद्य जनो, तुम दोनों (इह) यहाँ पर (सु) अच्छे प्रकार (नः) हमें (मृडतम्) सुखी करो ॥७॥
भावार्थ
परमेश्वर पापियों को अपराधी ठहराकर दण्ड देता है। राजा और वैद्य धन और नीरोगता राज्य में बढ़ावें ॥७॥
टिप्पणी
७−(अप अरात्सीः) अपराद्धवानसि, दोषयुक्तं कल्पितवानसि दुष्टम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ५ ॥
विषय
आपः, ज्योतिः, रसः, अमृतम्
पदार्थ
१. प्रभु का घर बननेवाले, प्रभु को अपने हृदय-मन्दिर में प्रतिष्ठित करनेवाले जीव! (असौ) = वह तू (एतेन) = इस प्रभु के द्वारा (अव अरात्सी:) = शत्रुओं को [injure. kill, destroy, exterminate] कुचल देनेवाला होता है, अतः (स्वाहा) = तू उस प्रभु के प्रति समपर्ण कर। शेष पूर्ववत्।
२. (एतेन) = इस प्रभु के द्वारा (असौ) = वह तू (अप अरात्सी:) = इन शत्रुओं को सुदूर नष्ट करनेवाला होता है, अत: स्वाहा इस प्रभु के प्रति तू अपना अर्पण कर। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
प्रभु की आराधना से हमारे जीवनों में सोम और रुद्रतत्त्व का-आप:+ज्योति का इसप्रकार समन्वय होता है कि जीवन में सब शत्रुओं की समासि होकर रस का प्रादुर्भाव होता है और अमृत की प्राप्ति होती है [आपो ज्योती रसोऽमृतम्]।
भाषार्थ
(असो) वह तू (एतेन) इस "अध्यर्णव" ब्रह्म द्वारा (अप) वृक्षों को अपगत करके, हराकर (अरात्सीः) सिद्धि को प्राप्त हुआ है, ( स्वाहा ) इस ब्रह्म के लिए तू आत्मत्याग कर, आत्मसमर्पण कर। (तिग्मायुधौ) तेज शस्त्रोंवाले, (तिग्महेती) तेज अस्त्रोंवाले, (सुशेवौ) उत्तम सुखदायक (सोमारुद्रौ) सोम-और-रुद्र (इह) इस जीवन में (न:) हमें (सुमृडतम्) उत्तम प्रकार से सुखी करें। [ मन्त्र ५, ६, ७ में विशेषता है "नु, अव, अप" की।]
विषय
जगत्-स्रष्टा और राजा का वर्णन।
भावार्थ
प्रजा के प्रतिनिधि राजा से कहें कि (असौ) हे अमुक राजन् ! तू (एतेन) इस अमुक उपाय से (अप अरात्सीः) शत्रुगण को परे भगा देने में समर्थ हो। (तिग्मायुधौ०) तीक्ष्ण अस्त्र शस्त्र वाले राजा और सेनापति दोनों हमें सुखी बनावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १ सोमरुदौ, ब्रह्मादित्यौ, कर्माणि रुद्रगणाः हेतिश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। ४ अनुष्टुबुष्णिक् त्रिष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती। ५–७ त्रिपदा विराड् नाम गायत्री। ८ एकावसना द्विपदाऽनुष्टुप्। १० प्रस्तारपंक्तिः। ११, १३, पंक्तयः, १४ स्वराट् पंक्तिः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Vidya
Meaning
This way you ward off evil with arraignment of their default, and you win your goal. This is the word of truth in faith. May Soma and Rudra, spirits of divine peace and resolute action, strong of arm, unfailing in strike, and commanding commitment and adoration, be here with us, be gracious and lead us to fulfilment.
Translation
With this you, so and so, have committed offence (apaitenarat-sirasau). Svaha. O blissful Lord and terrible punisher, having sharpened weapons and sharpened missiles, may both of you, worthy of worship, be kind and gracious to us here.
Translation
May the air and fire free us from condemnable troubles.
Translation
O God, through Thy pervasion, hast Thou declared the sinner, a criminal. Sacrifice is the root cause of success. With sharpened arms and missiles, kind and friendly, be gracious unto us, in this world, O King and Commander-in-chief!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अप अरात्सीः) अपराद्धवानसि, दोषयुक्तं कल्पितवानसि दुष्टम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० ५ ॥
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