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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सोमारुद्रौ छन्दः - एकावसाना द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
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    मु॑मु॒क्तम॒स्मान्दु॑रि॒ताद॑व॒द्याज्जु॒षेथां॑ य॒ज्ञम॒मृत॑म॒स्मासु॑ धत्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒मु॒क्तम् । अ॒स्मान् । दु॒:ऽइ॒तात् । अ॒व॒द्यात् । जु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । अ॒मृत॑म् । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒म् ॥६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुमुक्तमस्मान्दुरितादवद्याज्जुषेथां यज्ञममृतमस्मासु धत्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुमुक्तम् । अस्मान् । दु:ऽइतात् । अवद्यात् । जुषेथाम् । यज्ञम् । अमृतम् । अस्मासु । धत्तम् ॥६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सब सुख प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे ऐश्वर्य के कारण और ज्ञानदाता तुम दोनों !] (अस्मान्) हमें (दुरितात्) दुर्गति और (अवद्यात्) अकथनीय निन्दनीय कर्म से (मुमुक्तम्) छुड़ावो, (यज्ञम्) देवपूजन को (जुषेथाम्) स्वीकार करो, (अमृतम्) अमरण अर्थात् पुरुषार्थ अथवा अमरपन अर्थात् कीर्त्तिमत्ता (अस्मासु) हम में (धत्तम्) धारण करो ॥८॥

    भावार्थ

    राजा और वैद्य के सुकर्मों से सब लोग आत्मिक और शारीरिक रोग छोड़कर धर्म में प्रवृत्त होकर अमर अर्थात् पुरुषार्थी और यशस्वी होवें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(मुमुक्तम्) मोचयतम्। हे सोमारुद्रौ युवाम् (अस्मान्) धार्मिकान् (दुरितात्) अ० २।१०।६। दुर्गतेः (अवद्यात्) अ० २।१०।६। अकथनीयात्। गर्ह्यात् कर्मणः (जुषेथाम्) सेवेथाम्। स्वीकुरुतम् (यज्ञम्) देवपूजनम् (अमृतम्) अमरणं पुरुषार्थम्। अमरत्वं कीर्तिमत्त्वम् (अस्मासु) धर्मात्मसु (धत्तम्) धारयतम् ॥

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    विषय

    अवदय से दूर, यज्ञ के समीप

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रों में वर्णित सोम और रुद्रतत्वों से प्रार्थना करते हैं कि (अस्मान्) = हमें उठता है, इन्हें वशीभूत करता है और सब बातों को माप-तोल कर करता है। (अवद्यात्) = निन्दनीय (दुरितात्) = दुराचार से से (मुमुक्तुम्) = मुक्त करो, (यज्ञं जुषेथाम्) = यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवित कराओ और इसप्रकार (अस्मासु) = हममें (अमृतं धत्तम्) = अमृतत्व का स्थापन करो - हमें निरोग और मोक्ष का पात्र बनाओ |

    भावार्थ

    हम सोम और रुदतत्त्वों के सुंदर समन्वय से निन्दनीय दुराचारों से प्रथक् रहकर यज्ञों में प्रवृत्त हों| इसप्रकार निरोगता व मोक्ष को प्राप्त करें |

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    भाषार्थ

    हे सोमारुद्रौ [मन्त्र ५] ( दुरितात् ) दुष्परिणामी (अवद्यात्) गर्ह्य, या जिसका कथन भी नहीं करना चाहिए ऐसे पाप से ( अस्मान्) हमें (मुमुक्तम् ) तुम दोनों मुक्त करो, छुड़ाओ, और (यज्ञम् ) हमें यज्ञिय-जीवन का (जुषेथाम् ) सेवन कराओ तथा (अस्मासु) हम में (अमृतम्) अमृत-ब्रह्म या मोक्ष को (धत्तम्) स्थापित करो।

    टिप्पणी

    [अवद्य=अकथनीय, पाप=गर्ह्य (अष्टा० ३।१।१०१)। अकथनीय यथा "कथापि खलु पापानामलमश्रेयसे यतः।"]

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    विषय

    जगत्-स्रष्टा और राजा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे राजन् और सेनापते ! आप दोनों (अस्मान्) हम प्रजाजनों कों (अवद्याद्) निन्दनीय (दुरिताद्) दुराचार से (मुमुक्तम्) मुक्त करें। और (यज्ञं) हमारे संगठन को (जुषेथाम्) आप प्रेम से देखें और उसमें योग दें। और (अस्मासु) हम में (अमृतम्) जीवन और ज्ञान स्थापित करें, तथा अमृत अर्थात् मृत्यु और शत्रु से होने वाले भय का पूर्ण प्रतिकार (धत्तम्) करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। १ सोमरुदौ, ब्रह्मादित्यौ, कर्माणि रुद्रगणाः हेतिश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। ४ अनुष्टुबुष्णिक् त्रिष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती। ५–७ त्रिपदा विराड् नाम गायत्री। ८ एकावसना द्विपदाऽनुष्टुप्। १० प्रस्तारपंक्तिः। ११, १३, पंक्तयः, १४ स्वराट् पंक्तिः। चतुर्दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    O Soma and Rudra, release us from evil and reproach, join and bless our yajna, give us fulfilment with the attainment of immortality.

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    Translation

    May both of you free us from reprehensible sin. May you accept our offering. My you bestow immortality on us.

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    Translation

    May they have oblation offered in our Yajnas and may they grant us immortality.

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    Translation

    O King and Commander-in-chief, free us from blamable sin, accept our worship, give us knowledge and vitality!

    Footnote

    ‘Us and our’ refer to the subjects.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(मुमुक्तम्) मोचयतम्। हे सोमारुद्रौ युवाम् (अस्मान्) धार्मिकान् (दुरितात्) अ० २।१०।६। दुर्गतेः (अवद्यात्) अ० २।१०।६। अकथनीयात्। गर्ह्यात् कर्मणः (जुषेथाम्) सेवेथाम्। स्वीकुरुतम् (यज्ञम्) देवपूजनम् (अमृतम्) अमरणं पुरुषार्थम्। अमरत्वं कीर्तिमत्त्वम् (अस्मासु) धर्मात्मसु (धत्तम्) धारयतम् ॥

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