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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अरातिसमूहः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
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    हिर॑ण्यवर्णा सु॒भगा॒ हिर॑ण्यकशिपुर्म॒ही। तस्यै॒ हिर॑ण्यद्राप॒येऽरा॑त्या अकरं॒ नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽवर्णा । सु॒ऽभगा॑ । हिर॑ण्यऽकशिपु: । म॒ही । तस्यै॑ । हिर॑ण्यऽद्रापये । अरा॑त्यै । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यवर्णा सुभगा हिरण्यकशिपुर्मही। तस्यै हिरण्यद्रापयेऽरात्या अकरं नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽवर्णा । सुऽभगा । हिरण्यऽकशिपु: । मही । तस्यै । हिरण्यऽद्रापये । अरात्यै । अकरम् । नम: ॥७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 10
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    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [जो] (सुभगा) बड़े ऐश्वर्यवाली (हिरण्यवर्णा) सुवर्ण का रूप रखनेवाली (हिरण्यकशिपुः) सुवर्ण के वस्त्रवाली (मही) बलवती है। (तस्यै) उस (हिरण्यद्रापये) सुवर्ण द्वारा निन्दित गति से बचानेवाली (अरात्यै) अदान शक्ति [निर्धनता] को (नमः अकरम्) मैंने नमस्कार किया है ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य विपत्तियों का सहन करके अन्त में धनी, बली और सुखी होते हैं ॥१०॥ इति दशमः प्रपाठकः ॥

    टिप्पणी

    १०−(हिरण्यवर्णा) सुवर्णरूपा (सुभगा) बह्वैश्वर्ययुक्ता (हिरण्यकशिपुः) कश शब्दे हिंसायां च−कु। निपातनात् साधुः। कशिपुर्वस्त्रम्। सुवर्णवस्त्रा (मही) बलवती (तस्यै) (हिरण्यद्रापये) द्रा कुत्सायां गतौ−क्विप्। भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। इति द्रा+पा रक्षणे−इ, स च कित्। हिरण्येन सुवर्णेन कुत्साया गतेः रक्षिकायै (अरात्यै) अदानशक्तये निर्धनतायै (अकरम्) अहं कृतवानस्मि (नमः) नमस्कारम् ॥

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    विषय

    राजस कार्पण्य

    पदार्थ

    १. वह कृपण व्यक्ति जो दान देने में संकोच करता है, परन्तु अपने भोगों पर खुला खर्च करता है, राजसी वृत्तिवाला कृपण है। इसका घर भोग-विलास की वस्तुओं से चमकता है, परन्तु यह दान नहीं दे पाता, (तस्यै) = उस (हिरण्यद्रापये) = सुवर्ण को कवच की भांति धारण करनेवाली [द्रापि-कवच-द०] (अरात्यै) = अदानवृत्ति के लिए (नमः अकरम्) = मैं नमस्कार करता हूँ इसे अपने से दूर ही रखता हूँ। २. यह अराति (हिरण्यवर्णा) = स्वर्ण के वर्णवाली है-स्वर्ण का ही सदा वर्णन करती है, (सुभगा) = देखने में बड़ी (भाग्यवती)= -चमकती हुई है, (हिरण्य-कशिपुः) = स्वर्ण के आच्छादनोंवाली है, (मही) = महिमावाली है-देखने में कितनी बड़ी है।

    भावार्थ

    कृषण राजस पुरुष अपने घर के लिए भौतिक साधनों को खूब ही जुटाता है। इसका घर चमकता प्रतीत होता है, सौभाग्यशाली लगता है। यह बड़ा कहाता है। हम इस राजसी कृपणता से ऊपर उठें, धनों का व्यय भोगों में न करके दान में करें।

    अगले सूक्त में भी ऋषि 'अथर्वा' ही है। अथैकादशः प्रपाठक:

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    भाषार्थ

    (मही) महाविस्तारवाली [महती, मन्त्र ९], (हिरण्यवर्णा) सुवर्ण के रूपवाली, (सुभगा) उत्तम ऐश्वर्वोवाली, (हिरण्यकशिपु:) सुवर्ण की नक्काशी से युक्त बड़े तकिये- [मसनद]-बाली अदानभावना है। (हिरण्यद्रापये१) सुवर्ण की नक्काशीवाले उत्तरीयवस्त्रवाली (तस्यै) उस (अरात्यै) अदानभावना के लिए (नमः) वज्रप्रहार (अकरम् ) मैंने किया है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय मन्त्र ९ के सदृश है। अदानभावनावाले धनिक का मुख और शरीर पुष्टि तथा प्रसन्नता के कारण हिरण्यसदृश चमकने लगता है। वह उत्तमोत्तम ऐश्वर्यो से सम्पन्न हो जाता है। उसके तकिये तथा वस्त्र हिरण्य को नक्काशीवाले हो जाते हैं, परन्तु अदानभावना जब व्यापिनी हो जाती है तब सामाजिक उन्नति नहीं होती, ऐसी अराति२ अर्थात् अदानभावना का विनाश प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति को करना चाहिए ।] [१. "यो द्रापि कृत्वा भुवनानि वस्ते" (अथर्व० १३।३।१), जिस परमेश्वर ने वस्त्ररूप में भुवनों की ओढ़नी को ओढ़ा है। द्रापि= बस्त्र, उत्तरीयवस्त्र। २. अराति:= अ +रा (दाने) तिः। जो सामाजिक उन्नति के लिए दाम नहीं देता वह समाज का विघातक है, अत: अराति का अर्थ शत्रु भी है।]

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    विषय

    अधीन भृत्यों को वेतन देने की व्यवस्था।

    भावार्थ

    उस (अरात्यै नमः अकरम्) अराति, अदानशीलता को भी ‘नमः’ वज्र प्रहार करता हूं जो कि (हिरण्यवर्णा) सुवर्ण के वर्ण की है अर्थात् सदा सोना या धन पर लुब्ध रहती है, (सुभगा) देखने में बड़ी भाग्यवती, ऐश्वर्यवती, (मही) और बड़ी विशाल है (हिरण्यकशिपुः) तथा सब सोने के ही वस्त्रों से आच्छादित है (तस्यै) उस (हिरण्यद्रापये) सुवर्ण के कारण पाप फैलाने वाली ‘अराति’ कंजूसी पर भी वज्र प्रहार हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। बहवो देवताः। १-३, ६-१० आदित्या देवताः। ४, ५ सरस्वती । २ विराड् गर्भा प्रस्तारपंक्तिः। ४ पथ्या बृहती। ६ प्रस्तारपंक्तिः। २, ३, ५, ७-१० अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Miserliness, No Misery

    Meaning

    Shaded in gold, prosperity locked up in golden trappings camouflaged in gold is Arati, spirit of misery and adversity at heart. To her, salutations with the challenge of thunder.

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    Translation

    Gold-colored, prosperous, mighty, supported on golden pillows and clad in golden fabrics- to her, the niggardliness, I have bowed in reverence.

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    Translation

    I, express my sense of vituperation against this misery which spoils the name of gold, prefers gold, possesses the fortune of miserability, destroys the gold and is enormous in its form and effect.

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    Translation

    I shun miserliness, ever greedy for gold ,full of riches, pillowed on gold, mighty, and the spreader of sin for acquiring gold.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(हिरण्यवर्णा) सुवर्णरूपा (सुभगा) बह्वैश्वर्ययुक्ता (हिरण्यकशिपुः) कश शब्दे हिंसायां च−कु। निपातनात् साधुः। कशिपुर्वस्त्रम्। सुवर्णवस्त्रा (मही) बलवती (तस्यै) (हिरण्यद्रापये) द्रा कुत्सायां गतौ−क्विप्। भुजेः किच्च। उ० ४।१४२। इति द्रा+पा रक्षणे−इ, स च कित्। हिरण्येन सुवर्णेन कुत्साया गतेः रक्षिकायै (अरात्यै) अदानशक्तये निर्धनतायै (अकरम्) अहं कृतवानस्मि (नमः) नमस्कारम् ॥

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