अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अरातिसमूहः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरातिनाशन सूक्त
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यम॑राते पुरोध॒त्से पुरु॑षं परिरा॒पिण॑म्। नम॑स्ते॒ तस्मै॑ कृण्मो॒ मा व॒निं व्य॑थयी॒र्मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अ॒रा॒ते॒ । पु॒र॒:ऽध॒त्से । पुरु॑षम् । प॒रि॒ऽरा॒पिण॑म् । नम॑: । ते॒ । तस्मै॑ । कृ॒ण्म॒: । मा । व॒निम् । व्य॒थ॒यी॒: । मम॑ ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यमराते पुरोधत्से पुरुषं परिरापिणम्। नमस्ते तस्मै कृण्मो मा वनिं व्यथयीर्मम ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । अराते । पुर:ऽधत्से । पुरुषम् । परिऽरापिणम् । नम: । ते । तस्मै । कृण्म: । मा । वनिम् । व्यथयी: । मम ॥७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पुरुषार्थ करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(अराते) हे अदान शक्ति ! (यम्) जिस (परिरापिणम्) बड़बड़िया (पुरुषम्) पुरुष को (पुरोधत्से) तू आगे धरती है। (ते) तेरे (तस्मै) उस पुरुष को (नमः) नमस्कार (कृण्मः) हम करते हैं, (मम) मेरी (वनिम्) भक्ति को (मा व्यथयीः) तू व्यथा में मत डाल ॥२॥
भावार्थ
वीर मनुष्य विपत्तिग्रस्त पुरुषों को उत्साहपूर्वक विपत्ति से निकालें ॥२॥
टिप्पणी
२−(यम्) पुरुषम् (अराते) म० १। हे अदानशक्ते (पुरोधत्से) अग्रे धरसि (पुरुषम्) मनुष्यम् (परिरापिणम्) रप व्यक्तायां वाचि-णिनि। परिभाषणशीलम् (नमः) सत्कारः (ते) तव (तस्मै) पुरुषाय (कृण्मः) कृवि करणे। कुर्मः (वनिम्) खनिकष्यज्यसिवसिवनि०। उ० ४।१४०। इति वन सभक्तौ−इ। भक्तिम् (मा व्यथयीः) व्यथ भयसंचलनयोः−णिचि लुङि छान्दसं रूपम्। मा विव्यथः। मा व्यथय ॥
विषय
दानवृत्ति का पोषण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार मनुष्य जब 'वीत्सा' वाला हो जाता है तब वह अपने समय के किसी कृपण धनी पुरुष को अपना आदर्श बनाता है-उसे अपने सामने आदर्श के रूप में रखता है कि मैं भी इतना ही धनी हो जाऊँ। मन्त्र में कहते हैं कि (अराते) = हे अदानवृत्ते! (यम्) = जिस (परिरापिणम्) = बहुत ही बोलनेवाले, बड़ी आत्मश्लाघा करनेवाले पुरुष को-धनाभिमानी पुरुष को (पुरः धत्से) = तू अपने सामने रखती है, हम तो (ते) = तेरे (तस्मै) = उस पुरुष के लिए (नमः कृण्मः) = नमस्कार करते हैं-उसे अपने से दूर रखते हैं। हम उसे अपना आदर्श नहीं बनाते। २. हे अदानवृत्ते ! तू (मम) = मेरी (वनिम्) = इस सम्भजन वृत्ति को-धन को बाँटकर खाने की वृत्ति को (मा व्यथयी:) = मत पीड़ित कर । मैं धन के लोभ में अदानवृत्तिवाला न बनें। मैं अदानी धनी को अपना आदर्श न बना लूं।
भावार्थ
अपने धनित्व का बखान करनेवाले कृपण व्यक्ति को हम अपना आदर्श न बना लें। हमारी दानवृत्ति कभी खण्डित न हो।
भाषार्थ
(अराते) हे अदानभावना ! (परिरापिणम् ) सब ओर तेरा प्रचार या प्रलाप करनेवाले (यम्, पुरुषम्) जिस पुरुष को (पुरोधत्से) निज अगुआरूप में तू धारित करती है, (ते) तेरे (तस्मै) उस पुरुष के लिए ( नम: ) वज्रप्रहार (कृण्म:) हम करते हैं, (मम) मेरे (वनिम्) संविभक्ता को (मा, व्यथयोः) न तू व्यथित कर, न व्यथा पहुँचा ।
टिप्पणी
[जो व्यक्ति अदानभावना का प्रचार करता है उसके लिए सामाजिक दण्ड है, वज्रप्रहार, यतः अदानभावना सामाजिक उन्नति की विरोधी भावना है। सामाजिक उन्नति के लिए प्रत्येक सामाजिक मनुष्य को "वनि:" होना चाहिए, संविभक्ता होना चाहिए, निज आमदनी का सम्यक-विभाग कर, निश्चित भाग दानरूप में देना चाहिए। वनिः= "बन षण" संभक्तौ, (भ्वादिः)। संभक्तिः= सम्यक् विभाग। अदान का प्रचार प्रलाप है, बकवास है।]
विषय
अधीन भृत्यों को वेतन देने की व्यवस्था।
भावार्थ
हे (अराते) श्रमी पुरुषों और विद्वान् कार्यकर्त्ताओं को उन का पुरस्कार न देने हारे पुरुष ! तू (यम्) जिस (पुरुषं) पुरुष को (परि-रापिणं) नाना प्रकार से अपने आगे बुरा भला कहते हुए, अपने आगे अपने वेतन के लिये बड़बड़ाते हुए को (पुरः धत्से) आगे खड़ा रखता है (ते) ऐसे तुझ और (तस्मै) ऐसे तेरे उस पुरुष को भी (नमः कृण्मः) वज्र अर्थात् दण्ड करें। अर्थात् ऐसी दशा कभी समाज में नहीं आने देना चाहते, क्योंकि प्रत्येक पुरुष यह चाहता है कि (मम) मेरी (वनिं) वृत्ति को (मा व्यथयीः) हे मेरे मालिक ! तू मत मार मुझे हानि मत पहुंचा, नहीं तो तेरे सेवक तेरे सामने तुझे बुरा भला सुनायेंगे और गिड़गिड़ावेंगे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। बहवो देवताः। १-३, ६-१० आदित्या देवताः। ४, ५ सरस्वती । २ विराड् गर्भा प्रस्तारपंक्तिः। ४ पथ्या बृहती। ६ प्रस्तारपंक्तिः। २, ३, ५, ७-१० अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
No Miserliness, No Misery
Meaning
O niggardliness, good bye to the whining person you push up to the front. We offer him salutations to depart. Pray do not insult our heart’s desire for liberality and well being.
Translation
O niggardliness, whomsoever a prating man you bring to prominence, to him we bow in reverence. May you not frustrate my heart's desire.
Translation
We express our vituperation to that loquacious man who this misery prefers. Let it not endanger our devotion and dedication.
Translation
O miser, thou withholdest the wages of a labourer, and keepest him standing before thee, reviling thee for non-payment. We dislike thee and such a labourer of thine. Detain not my lord, my wages!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यम्) पुरुषम् (अराते) म० १। हे अदानशक्ते (पुरोधत्से) अग्रे धरसि (पुरुषम्) मनुष्यम् (परिरापिणम्) रप व्यक्तायां वाचि-णिनि। परिभाषणशीलम् (नमः) सत्कारः (ते) तव (तस्मै) पुरुषाय (कृण्मः) कृवि करणे। कुर्मः (वनिम्) खनिकष्यज्यसिवसिवनि०। उ० ४।१४०। इति वन सभक्तौ−इ। भक्तिम् (मा व्यथयीः) व्यथ भयसंचलनयोः−णिचि लुङि छान्दसं रूपम्। मा विव्यथः। मा व्यथय ॥
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