अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
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अ॒ग्निष्टे॒ नि श॑मयतु॒ यदि॑ ते॒ मन॒ उद्यु॑तम्। कृ॑णोमि वि॒द्वान्भे॑ष॒जं यथानु॑न्मदि॒तोऽस॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । ते॒ । नि । श॒म॒य॒तु॒ । यदि॑ । ते॒ ।मन॑: । उत्ऽयु॑तम् । कृ॒णोमि॑। वि॒द्वान् । भे॒ष॒जम् । यथा॑ । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑सि ॥१११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निष्टे नि शमयतु यदि ते मन उद्युतम्। कृणोमि विद्वान्भेषजं यथानुन्मदितोऽससि ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । ते । नि । शमयतु । यदि । ते ।मन: । उत्ऽयुतम् । कृणोमि। विद्वान् । भेषजम् । यथा । अनुत्ऽमदित: । अससि ॥१११.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मानसविकार के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) विद्वान् पुरुष (ते) तेरे [मन को] (नि शमयतु) शान्त करता रहे, (यदि) जब (ते मनः) तेरा मन (उद्युतम्) व्याकुल होवे। (विद्वान्) विद्वान् मैं (भेषजम्) औषध (कृणोमि) करता हूँ, (यथा) जिससे तू (अनुन्मदितः) उन्मादरहित (अससि) होवे ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों से शिक्षा पाकर अपनी रोगनिवृत्ति करे ॥२॥
टिप्पणी
२−(अग्निः) विद्वान् पुरुषः (ते) तव (मनः) (नि शमयतु) नितरां शान्तं करोतु (यदि) सम्भावनायाम् (ते मनः) (उद्युतम्) युञ् बन्धने−क्त। उद्विग्नम् (कृणोमि) करोमि (विद्वान्) विज्ञोऽहम् (भेषजम्) औषधम् (यथा) येन प्रकारेण (अनुन्मदितः) चित्तभ्रमरहितः (अससि) भूयाः ॥
विषय
प्रभु-स्मरण-उन्माद-भेषज
पदार्थ
१. हे साधक! (यदि) = यदि (ते) = तेरा (मन:) = मन (उद्युतम्) = [युञ् बन्धने] विषयों से बद्ध हुआ है तो (अग्नि:)= अग्रणी प्रभु (ते निशमयतु) = [शमो दर्शने] तुझे तत्त्वज्ञान प्राप्त कराएँ। विषयों की असारता दिखलाकर तुझे विषयों से पराङ्मुख करें। २. प्रभु कहते हैं कि (विद्वान्) = ज्ञानी मैं तेरे लिए (भेषजं कृणोमि) = औषध करता हूँ (यथा) = जिससे तू (अनुन्मदितः अससि) = उन्मादरहित होता है।
भावार्थ
प्रभु-स्मरण ही वह औषध है जो विषयों की असारता दिखाकर हमें विषयोन्माद से बचाती है।
भाषार्थ
(अग्निः) यज्ञियाग्नि (ते) हे उन्मादरोगी तेरे उन्माद को (निशमयतु) नितरां शान्त करे, (यदि ते मनः) यदि तेरा मन (उद्युतम्) उत्तेजित है। (विद्वान्) उन्माद चिकित्सा का जानने वाला मैं तेरे लिये (भेषजम्) औषध (कृणोमि) तय्यार करता हूं, (यथा) जिस प्रकार कि (अनुन्मदितः) उन्माद से रहित (अससि) तू हो जाय।
टिप्पणी
[अग्नि और भेषज शब्दों द्वारा यह प्रतीत होता है कि अग्नि की सहायता द्वारा औषध तय्यार करनी है। वह है अग्नि में औषध की आहुतियों से उत्थित धूम रूप औषध। इस धूम को नासिका के श्वासों द्वारा गृहीत करना है। इस से धूम विशुद्धरूप में और शीघ्र रक्त में मिल कर उन्माद को शीघ्र निवृत्त कर देता है।]
विषय
बद्ध जीव की मुक्ति और उन्माद की चिकित्सा।
भावार्थ
हे आत्मन् ! हे जीव ! (यदि) यदि (ते) तेरा (मनः) मन अर्थात् संकल्पविकल्प और मनन करने वाला अन्तःकरण (उद्युतम्) उचाट हो जाय, किसी स्थान पर भी न लगे, तब मैं (विद्वान्) ज्ञानवान् आचार्य (ते) तेरी (भेषजम्) ऐसी उत्तम चिकित्सा (कृणोमि) करूं जिससे तू (अनुन्मदितः) उन्मादरहित (अससि) हो जाय। तब उस तेरे मन को (अग्निः नि शमयतु) अग्नि, ज्ञानी पुरुष शान्त करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २-४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Bondage
Meaning
O man, may Agni calm you down if your mind is disturbed. I, the physician, know and apply the healing balm so that you would not be excited and out of mind.
Translation
If your mind goes out of control, may the adorable Lord soothe it, Knowing full well, I prepare a medicine, so that you may be (freed from) cured of your mania.
Translation
O man! let Agni the shock of electricity gently sooth your mind when fierce excitements of madness disturb in. I, the learned physician prepare the medicine so that you may not be mad longer.
Translation
Let a learned man greatly soothe thy mind when great excitement troubles it. Well-skilled I make a medicine that thou mayest be free from mental unrest.
Footnote
I refers to a learned person.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(अग्निः) विद्वान् पुरुषः (ते) तव (मनः) (नि शमयतु) नितरां शान्तं करोतु (यदि) सम्भावनायाम् (ते मनः) (उद्युतम्) युञ् बन्धने−क्त। उद्विग्नम् (कृणोमि) करोमि (विद्वान्) विज्ञोऽहम् (भेषजम्) औषधम् (यथा) येन प्रकारेण (अनुन्मदितः) चित्तभ्रमरहितः (अससि) भूयाः ॥
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