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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 111/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
    1

    पुन॑स्त्वा दुरप्स॒रसः॒ पुन॒रिन्द्रः॒ पुन॒र्भगः॑। पुन॑स्त्वा दु॒र्विश्वे॑ दे॒वा यथा॑नुन्मदि॒तोऽस॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । त्वा॒ । दु॒: । अ॒प्स॒रस॑: । पुन॑: । इन्द्र॑: । पुन॑: । भग॑: । पुन॑: ।त्वा॒ । दु॒: । विश्वे॑ । दे॒वा: । यथा॑ । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑सि ॥१११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनस्त्वा दुरप्सरसः पुनरिन्द्रः पुनर्भगः। पुनस्त्वा दुर्विश्वे देवा यथानुन्मदितोऽससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । त्वा । दु: । अप्सरस: । पुन: । इन्द्र: । पुन: । भग: । पुन: ।त्वा । दु: । विश्वे । देवा: । यथा । अनुत्ऽमदित: । अससि ॥१११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मानसविकार के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे रोगी !] (अप्सरसः) आकाश, जल वा प्रजाओं में रहनेवाली बिजुलियाँ (त्वा) तुझको [विद्वानों में] (पुनः) फिर (दुः) देवें, (इन्द्रः) सूर्य (पुनः) फिर, (भगः) चन्द्रमाः (पुनः) फिर [देवे] (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम पदार्थ (त्वा) तुझे (पुनः) फिर (दुः) देवें, (यथा) जिससे तू (अनुन्मदितः) उन्मादरहित (अससि) होवे ॥४॥

    भावार्थ

    वैज्ञानिक पुरुष बिजुली सूर्य आदि सब पदार्थों से यथोचित उपकार लेकर स्वस्थ रह कर सुखी होवें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(पुनः) रोगशान्त्यनन्तरम् (त्वा) त्वां रोगिणम् (दुः) डुदाञ् दाने विधिलिङ् छान्दसं रूपम्। दद्युः (अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्सु आकाशे प्रजासु च सरणशीला विद्युतः (इन्द्रः) सूर्यः (भगः) चन्द्रः (विश्वे) सर्वे (देवाः) दिव्यपदार्थाः। अन्यद्गतम् ॥

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    विषय

    पागलपन के कारण

    पदार्थ

    १. हे उन्मादयुक्त पुरुष (अप्सरस:) = कों में विचरनेवाले (त्या) = तुझे (पुन:) = फिर से (दु:) = चेतना प्राप्त कराएँ, अर्थात् 'कर्मों में लगे रहना' उन्माद के आक्रमण से बचने का उपाय है। (इन्द्रः) = इन्द्र (पुन:) = फिर से चेतना दे। जितेन्द्रियता हमें उन्माद का शिकार होने से बचाती है। (भग:) = ऐश्वर्य का पुञ्ज प्रभु (पुन:) = फिर से चैतन्य प्राप्त कराए। 'सेवनीय ऐश्वर्य का होना' हमें उन्मत्त नहीं होने देता। २. (विश्वेदेवाः) = सब देव [दिव्य गुण] (त्वा) = तुझे (पुन:) = फिर (दुः) = चेतना प्राप्त कराएँ। राक्षसीभाव भी मनुष्य को उन्मत्त कर देते हैं। मैं तुझे दिव्य भाव प्राप्त करता हूँ (यथा) = जिससे (अनुन्मदितः अससि) = तू उन्मादरहित होता है।

    भावार्थ

    'अकर्मण्यता, अजितेन्द्रियता, दरिद्रता व दिव्य गुणों का न होना' उन्माद का कारण बनता है। हम 'क्रियाशील, जितेन्द्रिय, सौभाग्यसम्पन्न वे देवी सम्पदावाले' बनकर पूर्ण स्वस्थ मस्तिष्कवाले हों।

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    भाषार्थ

    (त्वा) तुझे (अप्सरसः) अप्सराओं ने (पुनः) फिर (दुः) दिया है, (इन्द्रः) इन्द्र ने (पुनः) फिर, (भगः) भग ने (पुनः) फिर, (विश्वे देवाः) सब देवों ने (पुन:) फिर (त्वा) तुझे (दुः) मेरे प्रति दिया है, (यथा= यदा) जब कि (अनुन्मदित) उन्माद रहित (अससि) तू हो गया है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में प्राकृतिक और अध्यात्म शक्तियों की सहायता द्वारा उन्माद से रहित होने का कथन हुआ है। अप्सरसः = "अग्निः गन्धर्वः, ओषधयः अप्सरसः। सूर्यः गन्धर्वः, मरीचय अप्सरसः। चन्द्रमा गन्धर्वः, नक्षत्राणि अप्सरसः। वात: गन्धर्वः, आप: अप्सरसः। यज्ञः गन्धर्वः, दक्षिणा अप्सरसः। मनः गन्धर्वः, ऋक्सामानि अप्सरसः " (यजु० १८।३८-४३)। इन्द्र:= विद्युत्। विद्युत् के प्रयोग द्वारा या तत्कृत वर्षा जल द्वारा चिकित्सा। इन्द्र अन्तरिक्ष स्थानी देवता है (निरुक्त १०।१।८) भगः = "तस्य कालः प्राग त्सर्पणात्" (निरुक्त १२।२। १३)। अर्थात् सूर्योदय से पूर्व का सूर्य का काल, यह प्रभात काल है। इस काल में भ्रमण करने से भी उन्माद से राहित्य हो जाता है। प्रभात काल के भ्रमण से "सप्त आपः" दिव्यगुणी हो कर पाप प्रवृत्ति से प्रमुक्त कर देते हैं (अथर्व० १४।२।४३-४८)। उन्माद पाप का ही तो परिणाम है (मन्त्र ३) ["सप्त आप:" के लिये देखो अथथ्व भाष्य (१४।२।४५)। अप्सरसं:- ओषधयः, मरीचयः, आपः, ऋक्सामानि।]

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    विषय

    बद्ध जीव की मुक्ति और उन्माद की चिकित्सा।

    भावार्थ

    (अप्सरसः) जल में विचरने वाली विद्युत शक्तियां या जलधाराएँ (त्वाम्) तुझे (पुनः) बार बार (दुः) चेतना प्रदान करें। (इन्द्रः) सूर्य या वायु (पुनः) चेतना प्रदान करे। (भगः पुनः) पुष्टिकारक अन्न तुझे पुनः चेतना प्रदान करे। (विश्वे देवाः पुनः त्वा) सब देव, इन्द्रियगण या विद्वान् लोग तुझे चेतना दें (यथा) जिससे तू (अनुन्मदितः अससि) उन्मादरहित हो जाय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २-४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Bondage

    Meaning

    Again and again let the freshness of breezes, rippling of waters and flashes of lightning give this healing balm to you. Let Indra, lord omnipotent and nature’s electric energy do its part for you. Let Bhaga, cosmic spirit of abundance, do its part for you. Let all divinities of nature and nobilities of humanity do their part for you so that you may never suffer delirium, dementia, schizophrenia or infatuation and self-delusion again. (This sukta implies that life and nature was never intended to be negative and hostile to humans. All negativities of body, mind and spirit are creations of our own karmic performance over time, and all ailments are curable by the replenishment of our original and real nature through medication, meditation and divine grace. Only the right healer and the right balm is needed with persistent and faithful practice. Reference may be made to Maharshi Patanjali’s Yoga-Sutras 4,1, specially, and to 1, 12.)

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    Translation

    The powers contained in water have given you back again; the adorable Lord, and the Lord of good fortune have given you back again; all the bounties of Nature have given you back; again, so that you may be cured (freed from) of your mania.

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    Translation

    Let electrical treatments restore you sanity again, let the sun give you this sanity again, let the healthy grain restore you sanity again and let all the physical force give you sanity again so that you may no longer be mad.

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    Translation

    May showers of water again restore thee to consciousness. May the Sun again restore thee to consciousness. May the Moon again restore thee to consciousness. May all the forces of nature again restore thee to consciousness, that thou mayest be free from mental unrest.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(पुनः) रोगशान्त्यनन्तरम् (त्वा) त्वां रोगिणम् (दुः) डुदाञ् दाने विधिलिङ् छान्दसं रूपम्। दद्युः (अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्सु आकाशे प्रजासु च सरणशीला विद्युतः (इन्द्रः) सूर्यः (भगः) चन्द्रः (विश्वे) सर्वे (देवाः) दिव्यपदार्थाः। अन्यद्गतम् ॥

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