अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
यः प्र॑थ॒मः प्र॒वत॑मास॒साद॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नः। यो॒स्येशे॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पद॒स्तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । प्र॒थ॒म: । प्र॒ऽवत॑म् । आ॒ऽस॒साद॑ । ब॒हुऽभ्य॑: । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒न: । य: । अ॒स्य । ईशे॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥२८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः प्रथमः प्रवतमाससाद बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानः। योस्येशे द्विपदो यश्चतुष्पदस्तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । प्रथम: । प्रऽवतम् । आऽससाद । बहुऽभ्य: । पन्थाम् । अनुऽपस्पशान: । य: । अस्य । ईशे । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥२८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
विद्वान् के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (प्रथमः) गुणियों में पहिला पुरुष (बहुभ्यः) अनेकों के लिये (पन्थाम्) मार्ग (अनुपस्पशानः) खोजता हुआ (प्रवतम्) उत्तम पाने योग्य अधिकार पर (आससाद) आया है। और (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) दो पाये समूह का (यः) और जो (चतुष्पदः) चौपाये समूह का (ईशे=ईष्टे) राजा है (तस्मै) उस (यमाय) न्यायकारी पुरुष को (मृत्यवे) मृत्यु नाश करने के लिये (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥३॥
भावार्थ
जो सर्वश्रेष्ठ पुरुष संसार के उपकार के लिये सन्मार्ग दिखाकर सबकी रक्षा करता है, सब मनुष्य विपत्ति से बचने के लिये उस न्यायी वीर पुरुष का सत्कार करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(यः) (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठः (प्रवतम्) अ० ३।१।४। धात्वर्थे वतिः। प्रगमनीयमधिकारम् (आससाद) आजगाम। प्राप (बहुभ्यः) बहुप्राणिनां हिताय (पन्थाम्) नकारलोपः। पन्थानम्। सन्मार्गम् (अनुपस्पशानः) स्पश बाधनस्पर्शनयोः−शानच्, छन्दसि शपः श्लुः। अनुस्पृशन्। अन्विच्छन् (यः) (अस्य) (ईशे) तलोपः। ईष्टे। राजति (द्विपदः) पादद्वयोपेतस्य मनुष्यादेः (यः) (चतुष्पदः) गवादिप्राणिजातस्य, (तस्मै) तादृशाय (यमाय) न्यायकारिणे पुरुषाय (नमः) नमस्कारः (अस्तु) भवतु (मृत्यवे) अ० ५।३०।१२। अप्रयुज्यमानस्य धातोः कर्मणि चतुर्थी। मृत्युं नाशयितुम् ॥
विषय
प्रथमः मृत्युः [आचार्यः]
पदार्थ
१. (यः) = जो (प्रथम:) = [मृत्यु:-आचार्यः] सर्वप्रथम आचार्य है-'स पूर्वेषामपि गुरु: कालेनान वच्छेदात्, (प्रवतम् आससाद) = जिसने सर्वोच्च स्थान को प्राप्त किया है, (बहुभ्यः पन्थाम् अनुपस्पशान:) = जो अनेक मनुष्यों के लिए मार्ग-प्रदर्शन कर रहे हैं। वे एक प्रभु अनेक जीवों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। २. (य:) = जो (अस्य) = इन द्विपदः दो पैरवालों व (यः चतुष्पदः) = जो चार पैरवालों का-मनुष्यों व पशुओं का (ईशे) = शासन करनेवाले हैं-ऐश्वर्य देनेवाले हैं, तस्मै उस यमाय सर्वनियन्ता [प्रथमाय] मृत्यवे-सर्वप्रथम आचार्य प्रभु के लिए (नमः अस्तु) = प्रणाम हो।
भावार्थ
प्रभु प्रथम आचार्य हैं, सर्वोच्च स्थान पर स्थित हैं, हम सबके लिए मार्ग-दर्शन करते हैं। सब पशु-पक्षियों के ईश है। उस सर्वनियन्ता प्रभु के लिए हम प्रणाम करते हैं।
भाषार्थ
(यः) जो (प्रथमः) अनादि परमेश्वर (प्रवतम्) प्रकृष्ट-पथ पर (आससाद) आरूढ हुआ-हुआ है, जो (बहुभ्यः) बहुतों के लिये (पन्थाम् ) प्रकृष्ट पथ को (अनु) निरन्तर (पस्पशानः) दर्शा रहा है। ( यः) जो (अस्प द्विपदः) इस दोपाए मनुष्य का, (य:) जो (चतुष्पदः) चौपाए पशु का (ईशे) अधीश्वर है, शासक है ( तस्मै यमाय) उस नियन्ता के प्रति, (मृत्यवे ) मृत्यु नामक के प्रति (नमः अस्तु) नमस्कार हो ।
टिप्पणी
[प्रवतम् = "उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे" (अष्टा. ५।१।११८) द्वारा योग्य धात्वर्थ जाना जाता है, वति: का कोई अर्थ नहीं रहता। यथा उद्वतः= उद्गतात्; निवतः = निगतात् । परमेश्वर सदा प्रकृष्टपथ अर्थात् सत्पथ पर आरूढ है-यह वेदों द्वारा ज्ञात होता है, यथा "अप तस्य हृतं तमो व्यावृत्तः स पाप्मनः" (अथर्व० १०।७।४०), मन्त्र में "स्कम्भ" पद द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है, परमेश्वर तमोगुण से रहित है, अतः वह पाप से हटा हुआ है। इस कथन द्वारा वेदमन्त्र में मनुष्यों की जीवनपथ दर्शाया है कि "तमोमार्ग को त्याग दो तो तुम पापपथ से व्यावृत्त हो जाओगे। समग्र वेद द्वारा परमेश्वर जीवन के लिये सत्पथ दशा रहा है। परमेश्वर नियन्ता है, इसलिये वह यम है, वह ही कर्मानुसार जन्म-मृत्यु का प्रदाता है अतः वह मृत्यु है। यथा -"स एव मृत्यु। सो मृतं सो भ्वं स रक्षः" (अथर्व० १३। सूक्त ६। अनुवाक ४। मन्त्र ४(२५)। परमेश्वर द्वारा प्रदर्शित सत्यय पर चलने पर, और उसके प्रति सदा नमस्कार करने पर, कपोत अर्थात् वायुयान तथा जलीययान सदा उपकारी होते हैं, कभी युद्ध की ओर प्रवृत्त नहीं होते-यह दर्शाने के लिये यह मन्त्र (३) पठित हुआ है]।
भाषार्थ
(यः) जो (प्रथमः) अनादि परमेश्वर (प्रवतम्) प्रकृष्ट-पथ पर (आससाद) आरूढ हुआ-हुआ है, जो (बहुभ्यः) बहुतों के लिये (पन्थाम् ) प्रकृष्ट पथ को (अनु) निरन्तर (पस्पशानः) दर्शा रहा है। ( यः) जो (अस्प द्विपदः) इस दोपाए मनुष्य का, (य:) जो (चतुष्पदः) चौपाए पशु का (ईशे) अधीश्वर है, शासक है ( तस्मै यमाय) उस नियन्ता के प्रति, (मृत्यवे ) मृत्यु नामक के प्रति (नमः अस्तु) नमस्कार हो ।
टिप्पणी
[प्रवतम् = "उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे" (अष्टा. ५।१।११८) द्वारा योग्य धात्वर्थ जाना जाता है, वति: का कोई अर्थ नहीं रहता। यथा उद्वतः= उद्गतात्; निवतः = निगतात् । परमेश्वर सदा प्रकृष्टपथ अर्थात् सत्पथ पर आरूढ है-यह वेदों द्वारा ज्ञात होता है, यथा "अप तस्य हतं तमो व्यावृत्तः स पाप्मनः" (अथर्व० १०।७।४०), मन्त्र में "स्कम्भ" पद द्वारा परमेश्वर का वर्णन हुआ है, परमेश्वर तमोगुण से रहित है, अतः वह पाप से हटा हुआ है। इस कथन द्वारा वेदमन्त्र में मनुष्यों की जीवनपथ दर्शाया है कि "तमोमार्ग को त्याग दो तो तुम पापपथ से व्यावृत्त हो जाओगे। समग्र वेद द्वारा परमेश्वर जीवन के लिये सत्पथ दशा रहा है। परमेश्वर नियन्ता है, इसलिये वह यम है, वह ही कर्मानुसार जन्म-मृत्यु का प्रदाता है अतः वह मृत्यु है। यथा -"स एव मृत्यु। सो मृतं सो भ्वं स रक्षः" (अथर्व० १३। ४(३)। २५। परमेश्वर द्वारा प्रदर्शित सत्यय पर चलने पर, और उसके प्रति सदा नमस्कार करने पर, कपोत अर्थात् वायुयान तथा जलीययान सदा उपकारी होते हैं, कभी युद्ध की ओर प्रवृत्त नहीं होते-यह दर्शाने के लिये यह मन्त्र (३) पठित हुआ है]।
विषय
राजा और राजदूत के व्यवहार।
भावार्थ
(यः) जो (प्रथमः) सब से श्रेष्ठ, सब से प्रथम (बहुभ्यः) और बहुत से लोगों के लिये (पन्थाम्) मार्ग को (अनुपस्पशानः) अपने पीछे दिखाता हुआ (प्रवतन्) उच्च पद को प्राप्त किये है और जो (अस्य द्विपदः) इस मानव संसार (चतुष्पदः) और इस पशु संसार का (ईशे) स्वामी है (यमाय) सर्वनियन्ता (मृत्यवे) सब को बन्धनों से मुक्त करनेवाले (तस्मै) उस प्रभु को (नमः अस्तु) नमस्कार है। उक्त दोनों सूक्त अध्यात्मपरक भी हैं। अध्यात्म में (१) निर्ऋति = संसार (दूतः) क्लेश पाकर, कपोत = आत्मा किसी गुरु से प्रेरित होकर या स्वयं अपनी अभिलाषा से (इदम्) प्रत्यक्ष परमात्मा को प्राप्त हो जाय तो उस आत्मा का आदर करो वह सबका कल्याणकरी है। (२) वही आत्मा शिव, निष्पाप, शक्तिमान् है और यह हमारा शरीर उसका गृह है। वही विप्र अग्नि है जो इस हवि स्तुति को स्वीकार करता है। (३) पक्षिणी—हेति = पक्षपातवाली तृष्णा हमें न सतावे। वह सर्व भक्षिणी अग्नि = आत्मा के स्थान पर भी आक्रमण कर देती है। हमारे पशु-इन्द्रियों और पुरुषों, प्राणों का कल्याण हों, वह आत्मा हमें आघात न करे। (१) स्तुति या वेद-ज्ञान के अनुसार आत्मा को प्रेरित करे, हर्ष से अनुभव करते हुए वाणियों का उच्चारण करे। दुष्ट विषयों का विनाश करते हुए उन का त्याग करे, देवयान मार्ग में गतिशील हमारा आत्मा उस (ऊर्जं) रसरूप ब्रह्म को प्राप्त हो। (२) योगी लोग उस अग्नि देव परमेश्वर को प्राप्त करते, वाणी का उच्चारण करते या अपनी स्तुतियां उस तक पहुंचाते हैं और अपने प्राणों में बल धारण करते हैं अब उनका विजय कौन कर सकता है। (३) वह परमात्मा सबसे पूर्व बहुत से अन्य जीवों को मार्ग दिखाता हुआ सबसे उच्च स्थान मोक्ष में विराजता है वह सब पशु मनुष्यों का स्वामी, सर्वनियन्ता और बन्धनमोचन है, उसको नमस्कार है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘योऽस्य दूतः प्रहित एष तत्तस्मै’ इति ऋ०। (प्र० द्वि०) ‘परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्याः पन्थामनु पस्पशानम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिश्च देवते। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Response to Challenge
Meaning
The one who, first and foremost among many, has risen to the highest position, the pioneer carving and showing the path of progress for many, who by virtue of such merit rules over the people and animals over the earth, to that leader and law giver of people unto life and death, all hail and homage. (This sukta, especially after the previous one, is a far reaching vision of modern challenges of egoistic power, the response of self-realised power, and ultimately a one-united-world of self-governing nations under one umbrella of the rule of righteousness and universal justice.)
Translation
Who, exploring the path for many, reached the heavenly height first of all; who is the lord of all these bipeds and quadrupeds - to him, the controller, the death be our homage (namah astu)
Translation
I pay my respect to that all-controlling God who is most excellent amongst all powers, who making the path for many has been pervading the world and who is the ruler of bipeds and quadrupeds of this world.
Translation
He, while exploring the path for many, is Foremost and Exalted. May reverence be paid to Him, the Lord of the world of quadrupeds and bipeds, the Just, the Savior of souls from spiritual death.
Footnote
He: God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठः (प्रवतम्) अ० ३।१।४। धात्वर्थे वतिः। प्रगमनीयमधिकारम् (आससाद) आजगाम। प्राप (बहुभ्यः) बहुप्राणिनां हिताय (पन्थाम्) नकारलोपः। पन्थानम्। सन्मार्गम् (अनुपस्पशानः) स्पश बाधनस्पर्शनयोः−शानच्, छन्दसि शपः श्लुः। अनुस्पृशन्। अन्विच्छन् (यः) (अस्य) (ईशे) तलोपः। ईष्टे। राजति (द्विपदः) पादद्वयोपेतस्य मनुष्यादेः (यः) (चतुष्पदः) गवादिप्राणिजातस्य, (तस्मै) तादृशाय (यमाय) न्यायकारिणे पुरुषाय (नमः) नमस्कारः (अस्तु) भवतु (मृत्यवे) अ० ५।३०।१२। अप्रयुज्यमानस्य धातोः कर्मणि चतुर्थी। मृत्युं नाशयितुम् ॥
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