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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जाटिकायन देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - इन्द्रस्तव सूक्त
    1

    स नो॑ ददातु॒ तां र॒यिमु॒रुं पि॒शङ्ग॑संदृशम्। इन्द्रः॒ पति॑स्तु॒विष्ट॑मो॒ जने॒ष्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न॒: । द॒दा॒तु॒ । ताम् । र॒यिम् । उ॒रुम् । पि॒शङ्ग॑ऽसंदृशम् । इन्द्र॑:। पति॑: । तु॒विऽत॑म: । जने॑षु । आ ॥३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो ददातु तां रयिमुरुं पिशङ्गसंदृशम्। इन्द्रः पतिस्तुविष्टमो जनेष्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । ददातु । ताम् । रयिम् । उरुम् । पिशङ्गऽसंदृशम् । इन्द्र:। पति: । तुविऽतम: । जनेषु । आ ॥३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सर्व लक्ष्मी पाने को उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (नः) हमें (उरुम्) विस्तृत (पिशङ्गसंदृशम्) अपने अवयवों को दिखानेवाली (ताम्) उस (रयिम्) लक्ष्मी को (ददातु) देवे। (आ) हाँ, (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर (पतिः) पालनेवाला और (जनेषु) सब मनुष्यों में (तुविष्टमः) सब से महान् है ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की कृपा से सब मनुष्य विद्या, सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके आनन्दित रहें ॥३॥ (तुविष्टमः) के स्थान में पदपाठ में (तुवि-तमः) है ॥

    टिप्पणी

    ३−(सः) इन्द्रः (नः) अस्मभ्यम् (ददातु) प्रयच्छतु (ताम्) प्रसिद्धाम् (रयिम्) लक्ष्मीम्। रयिः, धननाम निघ० २।१०। (उरुम्) विस्तृताम् (पिशङ्गसंदृशम्) विडादिभ्यः कित्। उ० १।१२१। इति पिश अवयवे−अङ्गच् कित्+सम्−दृशिर् दर्शने−क्विप्। स्वावयवदर्शयित्रीम्। सर्वपूर्णाम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (पतिः) पालकः (तुविष्टमः) भुवः कित्। उ० २।११२। इति तु वृद्धौ−इसिन् कित्, तमप्। प्रवृद्धतमः। महत्तमः (जनेषु) मनुष्येषु (आ) अङ्गीकारे समुच्चये वा ॥

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    विषय

    'उरुं पिशंगसन्दृशं रयिम्

    पदार्थ

    १. (स:) = वह (इन्द्र न:) = हमारे लिए (तां रयिम्) = उस ज्ञानरूप धन को (ददातु) = दे जोकि (उरुम्) = विशाल है, (पिशङ्ग-सन्दुशम्) = तेज:स्वरूप, प्रभापटल के रूप में प्रकट होनेवाला है। २. (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (पति:) = हमारे रक्षक है-ज्ञानेश्वर्य प्राप्त कराके हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाते हैं। (तुविःतमः) = सब प्रकार के उत्कर्षवाले हैं-महान् व प्रवृद्ध हैं। (जनेषु आ) = सब मनुष्यों में समन्तात् सत्तावाले हैं।

    भावार्थ

    वे 'तुवि:तमः' प्रभु 'विशाल, तेज:स्वरूप, प्रभापटल के रूप में प्रकट होनेवाले' हमारे लिए ज्ञानधन प्राप्त कराके हमारा रक्षण करते हैं।

    विशेष

    ज्ञान-धन प्राप्त करके सब शत्रुओं का विनाश करनेवाला यह व्यक्ति 'चातन' नामवाला होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर ( नः) हमें (ताम् ) वह (पिशङ्गसंदृशम्) नानाविध, (उरुम् ) प्रभुत ( रयिम्) धन (ददातु) प्रदान करे । (जनेषु आ) सर्वत्र फैले जनों में इन्द्र (तुविष्टमः) अति प्रवृद्ध (पतिः) स्वामी है।

    टिप्पणी

    [पिशङ्ग= नानावर्णवाली, सुवर्ण, रजत, कृष्यन्न, फल, कन्द-मूल, गौ, अश्व आदि रूप धन। तुविः = तु वृद्धौ (अदादिः)]।

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    विषय

    इन्द्र, परमेश्वर की महिमा।

    भावार्थ

    (सः) वह इन्द्र अर्थात् परमेश्वर (नः) हमें (तां) उस (उरु) महान्, विशाल, सर्वलोकव्यापी (पिशंग-संदृशं) तेजःस्वरूप, प्रभापटल के रूप में प्रकट होनेवाली (रयिम्) शक्ति और धर्मं का (ददातु) प्रदान करे। वह (इन्द्रः) परमेश्वर (तुविस्तमः) सर्वशक्तिमान् होने के कारण सबका (पतिः) पालक है और (जनेषु आ) समस्त प्राणियों और जनों में व्यापक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जाटिकायन ऋषि। इन्द्रो देवता । १,३ गायत्री, २ अनुष्टुप। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Power of Indra

    Meaning

    May Indra, most powerful ruler and sustainer of the people, give, give us all that wealth, honour and excellence which is beautiful as gold and inspiring and elevating as glory of the dawn.

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    Translation

    The resplendent Lord is the mightiest (master) Lord among the people. May He bestow on us the vast wealth of golden colour (pisanga sandrsam)

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    Translation

    May He bestow on us that wealth which is far-spreading and bright. Almighty Divinity is the omnipotent Lord among the living creatures.

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    Translation

    May God bestow on us that wealth, far-spreading, bright with yellow hue like gold. God is mightiest Lord among the folk.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(सः) इन्द्रः (नः) अस्मभ्यम् (ददातु) प्रयच्छतु (ताम्) प्रसिद्धाम् (रयिम्) लक्ष्मीम्। रयिः, धननाम निघ० २।१०। (उरुम्) विस्तृताम् (पिशङ्गसंदृशम्) विडादिभ्यः कित्। उ० १।१२१। इति पिश अवयवे−अङ्गच् कित्+सम्−दृशिर् दर्शने−क्विप्। स्वावयवदर्शयित्रीम्। सर्वपूर्णाम् (इन्द्रः) परमेश्वरः (पतिः) पालकः (तुविष्टमः) भुवः कित्। उ० २।११२। इति तु वृद्धौ−इसिन् कित्, तमप्। प्रवृद्धतमः। महत्तमः (जनेषु) मनुष्येषु (आ) अङ्गीकारे समुच्चये वा ॥

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