अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 54/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अमित्रदम्भन सूक्त
1
सब॑न्धु॒श्चास॑बन्धुश्च॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति। सर्वं॒ तं र॑न्धयासि मे॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठसऽब॑न्धु: । च॒ । अस॑बन्धु: । च॒ । य: । अ॒स्मान् । अ॒भि॒ऽदास॑ति । सर्व॑म् । तम् । र॒न्ध॒या॒सि॒ । मे॒ । यज॑मानाय । सु॒न्वते॒ ॥५४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सबन्धुश्चासबन्धुश्च यो अस्माँ अभिदासति। सर्वं तं रन्धयासि मे यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठसऽबन्धु: । च । असबन्धु: । च । य: । अस्मान् । अभिऽदासति । सर्वम् । तम् । रन्धयासि । मे । यजमानाय । सुन्वते ॥५४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राज्य की रक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो शत्रु (सबन्धुः) बन्धुओं सहित (च च) और (असबन्धुः) बिना बन्धुओं के होकर (अस्मान्) हमें (अभिदासति) सतावे। (तम्) उस (सर्वम्) सब को (सुन्वते) तत्त्वमथन करनेवाले (यजमानाय) विद्वानों का सत्कार करनेवाले (मे) मेरे लिये (रन्धयासि) वश में कर ॥३॥
भावार्थ
धार्मिक पुरुष परमात्मा की आज्ञा मान कर तत्त्वमथन कर के शत्रुओं का नाश करें ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध अ० ६।१५-२। और उत्तरार्द्ध अ० ६।६।१। में आया है ॥
टिप्पणी
३−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः−अ० ६।१५।२। उत्तरार्द्धः−अ० ६।६।१।
विषय
सुन्वते यजमानाय
पदार्थ
१. (सबन्धुः) = [समानजन्मगोत्रजः] समान गोत्रवाला (च) = या (असबन्धुः च) = असमान गोत्रवाला भी (यः) = जो कोई भी शत्रु (अस्मान् अभिदासति) = हमें उपक्षीण करता चाहता है, (तं सर्वम्) = उन सबको (सुन्वते) = शरीर में सोम [वीर्य] का अभिषव करनेवाले (यजमानाय) = यज्ञशील (मे) = मेरे लिए (रन्धयासि) = वशीभूत कीजिए।
भावार्थ
हम शरीर में सोमशक्ति का सम्पादन करें और यज्ञशील बनें। प्रभु के अनुग्रह से हम सब शत्रुओं को वशीभूत कर पाएँगे।
भाषार्थ
(सबन्धुः च असवन्धुः च) सम्बन्धी और न सम्बन्धी (यः) जो भी (अस्मान्) हमें (अभिदासति) उपक्षीण करता, या दास बनाता है, (तम्, सर्वम्) उस सब को (मे) मेरे (सुन्वते) राज्याभिषेक करने वाले, (यजमानाय) यज्ञ कर रहे सम्राट् के लिये, (रन्धयामसि) हम सब मिल कर उसे उसके वश में करते हैं।
टिप्पणी
[रन्धयामसि= ध्यतिर्वशगमने (निरुक्त ६।३२)। हम सब= प्रधानमन्त्री, सेनाध्यक्ष, पुरोहित तथा प्रजा। मे= राज्य पुरोहित का कथन है। सुन्वते = षुञ् अभिषवे (स्वादिः)। अभिदासति= दसु उपक्षये (दिवादि:)]।
विषय
राजा की नियुक्ति और कर्तव्य।
भावार्थ
हे पुरोहित ! (सबन्धुः च असंबन्धुः च) चाहे सगोत्री या कोई असगोत्री (यः अस्मान् अभि-दासति) जो हमारा विनाश करना चाहता है (तं सर्वम्) उस सब को तू (मे सुन्वते) मेरे राष्ट्र का संचालन करते हुए (यजमानाय) तथा सबको सुव्यवस्थित करने वाले राजा के लिये (रन्धयासि) वश कर। इसी प्रकार पुरोहित राजा के प्रति भी ऐसा ही कहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अग्नीषोमौ देवते। अनुष्टभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Protection and Progress of Rashtra
Meaning
O Lord Omnipotent, lord of light, fire and peace, whoever, whether with kith and kin and a hoard of supporters, or without kith and kin and committed supporters, tries to violate our order and enslave us, pray subdue him wholly and overthrow him for the sake of our leader of the yajnic social order, the leader and ruler dedicated to creative rule and rise of the social order, its peace, joy and glory.
Translation
Whether related or unrelated, whoever assails us - all such persons may you bring to my subjugation. I am the sacrificer, offerer of Soma libations.
Translation
The man who shows us enmity, whether stranger or akin you keep him under your control in entirety for me, the performer of yajna.
Translation
O priest, the man who wants to subjugate us, whether a stranger or kin, hand him over to me, who administers the state and controls the subjects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः−अ० ६।१५।२। उत्तरार्द्धः−अ० ६।६।१।
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