अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 2
ऋषिः - द्रुह्वण
देवता - यमः
छन्दः - अतिजगतीगर्भा
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
1
नमो॑ऽस्तु ते निरृते तिग्मतेजोऽय॒स्मया॒न्वि चृ॑ता बन्धपा॒शान्। य॒मो मह्यं॒ पुन॒रित्त्वां द॑दाति॒ तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । नि॒:᳡ऋ॒ते॒ । ति॒ग्म॒ऽते॒ज॒: । अ॒य॒स्मया॑न् । वि । चृ॒त॒ । ब॒न्ध॒ऽपा॒शान् । य॒म: । मह्य॑म् । पुन॑: । इत् । त्वाम् । द॒दा॒ति॒ । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥६३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नमोऽस्तु ते निरृते तिग्मतेजोऽयस्मयान्वि चृता बन्धपाशान्। यमो मह्यं पुनरित्त्वां ददाति तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । अस्तु । ते । नि:ऋते । तिग्मऽतेज: । अयस्मयान् । वि । चृत । बन्धऽपाशान् । यम: । मह्यम् । पुन: । इत् । त्वाम् । ददाति । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥६३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मोक्षप्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(तिग्मतेजः) हे तेज नाश करनेवाली (निर्ऋते) अलक्ष्मी (ते) तेरे लिये (नमः) वज्र (अस्तु) होवे, (अयस्मयान्) लोहे के बनी (बन्धपाशान्) बन्धन की बेड़ियों को (वि चृत) तोड़ डाल। (यमः) न्यायकारी परमेश्वर (मह्यम्) मेरे लिये (पुनः) बारंबार (इत्) ही (त्वाम्) तुझको (ददाति) देता है, (तस्मै) उस (यमाय) न्यायकारी परमेश्वर को (मृत्यवे) दुःखरूप मृत्युनाश करने के लिय (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥२॥
भावार्थ
परमेश्वर अपनी न्यायव्यवस्था से दुष्कर्मियों को अनेक दारुण दुःख देता है, इसलिये मनुष्य ज्ञान द्वारा पापों से बचकर मृत्यु अर्थात् दुःख से बचे रहें ॥२॥
टिप्पणी
२−(नमः) वज्रः−निघ० २।२०। (अस्तु) (ते) तुभ्यम् (निर्ऋते) हे अलक्ष्मि (तिग्मतेजः) इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५। इति तिग गतौ−हिंसायां च−मक्। तिग्मानि हिंसितानि तेजांसि यया सा तिग्मतेजाः, तत्सम्बुद्धौ। हे नाशिततेजः (अयस्मयान्) लोहमयान्, अतिदृढान् (विचृत) चृती हिंसाग्रन्थनयोः। विहिन्धि। विनाशय (बन्धपाशान्) बन्धनजालान् (यमः) न्यायकारी परमेश्वरः (मह्यम्) प्राणिने (पुनः) बारं बारम् (इत्) एव (त्वाम्) निर्ऋतिम् (ददाति) प्रयच्छति। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० ६।२८।३ ॥
विषय
'नित्रातिपाश विमोक्ता' यम [मृत्यु]
पदार्थ
१. साधक निर्ऋति-पापदेवता से कहता है कि हे (तिग्मतेजः) = तीक्ष्णतेजवाली निते-पापदेवते! (नमः अस्तु) = हमारा तुझे दूर से ही नमस्कार हो। तूने इन (अयस्मयान्) = लोहे के बने हुए-बड़े दृढ़ (बन्धपाशान्) = बन्धनरज्जुओं को (विचता) = छिन्न कर दिया है-हमसे पृथक् कर दिया है। हे पापदेवते! तेरी बड़ी कृपा है कि तूने हमें बन्धनमुक्त कर दिया है। २. इस बन्धनमुक्त साधक से प्रभु कहते हैं कि पाप-बन्धनों से मुक्त करनेवाला (यम:) = तुम्हारे जीवन को नियमित बनानेवाला आचार्य (त्वाम्) = तुझे (पुनः इत्) = फिर-पाप-बन्धन से मुक्त करके (मां ददाति) = मुझे देता है। (तस्मै) = उस (यमाय) = जीवन को नियमित करनेवाले (मृत्यवे) = द्वितीय नव-जीवन प्राप्त करानेवाले आचार्य के लिए (नमः अस्तु) = तुम्हारा नमस्कार हो-तुम उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम करो।
भावार्थ
हम पाप-देवता को दूर से ही नमस्कार करें। नियन्ता, नव-जीवन देनेवाले आचार्यों का हम आदर करें। वे हमें पाप-बन्धन से मुक्त करके प्रभु के लिए प्राप्त कराते हैं।
भाषार्थ
(तिग्मतेजः) हे तिग्म और तेज वस्तुओं वाली (निर्ऋते) कृच्छ्रापत्ति ! (ते) तेरे [शमन के] लिये (नम:) उचित अन्न का प्रयोग (अस्तु) हो, (अयस्मयान्) लोहे के सदृश दृढ़ (बन्धपाशान्) वान्धने वाले पाशों को (विचृत) तू१ खोल दे। (यमः) नियन्ता परमेश्वर (त्वा) तुझ हे रुग्ण पुरुष ! (पुनः इत्) फिर (मह्यम्) मुझे (ददाति) देता है, (तस्मै) उस (यमाय) नियन्ता१ परमेश्वर के लिये (मृत्यवे) जो कि मृत्यु१ करता है (नमः अस्तु) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[कृच्छ्रापत्ति का सम्बन्ध, तिग्म और तेज वस्तुओं के खाने-पीने के साथ है। ऐसे पदार्थों के अधिक खाने-पीने से गल बन्ध हो जाता है, गला रुग्ण हो जाता है। नमः अन्ननाम (निघं २।७) नमः का अर्थ नमस्कार तो प्रसिद्ध ही है। विचार = वि+ चृती हिंसाग्रन्थनयोः (तुदादिः) वि (विगत करना) + चृत (वन्धन से)। परमेश्वर का नाम मृत्यु भी है। यथा "स एव मृत्युः सोऽमृतं सोऽभ्वं स: रक्षः" (अथर्व काण्ड १३। अनुवाक ४। पर्याय ३ मन्त्र ४ (२४)। अर्थात् वह परमेश्वर ही मृत्यु है, वह अमृत है, वह प्रलय में सद्-जगत् को अस् करता है [अ+ भू सत्तायाम्, वह उत्पन्न जगत् का रक्षक है। मह्यम्=इस द्वारा आचार्य कहता है कि परमेश्वर ने, हे शिष्य ! तुझे स्वस्थ कर मुझे प्रदान किया है] [१. अथवा "यम" है "आश्रम का नियन्ता याचार्य, वही है मत्यु अर्थात् ब्रह्मचारी को द्विजन्मा बनाकर नवजीवन देने वाला, यथा “आचार्यो मृत्युः (अथर्व ११।५।१४)। इस अर्थ में "मह्यम्" द्वारा ब्रह्मचारी के पिता का निर्देश हुआ है।]
विषय
अविद्या-पाश का छेदन।
भावार्थ
हे (निर्ऋते) सत्य विद्या से विपरीत अविद्ये ! (ते नमः अस्तु) तुझे दूर से नमस्कार है। अथवा तेरा (नमः) वशीकार किया जाय। हम तुझे वश करेंगे। किस प्रकार ? हे (तिग्मतेजः) तीक्ष्ण तेज वाले सूर्य समान परमात्मन् ! आत्मन् ! (अयस्मयान्) लोहे के से दृढ़ या आवागमन से बने इन (बन्ध-पाशान्) बन्ध के पाशों को (वि चृत) काट डाल। हे निर्ऋते ! अविद्ये ! (यमः) वह सर्वनियन्ता परमात्मा (पुनः इत्) फिर भी (मह्यम्) मेरे लिये (त्वा) तुझे (ददाति) प्रदान करता है अर्थात् तुझे ईश्वर ने मेरे अधीन कर रक्खा है। अर्थात् जब चाहूं तुझ में फसूं और जब चाहूं न फसू। इसलिये (तस्मै) उस (मृत्युवे) देहबन्धन से मुक्त करने वाले (यमाय) सर्वनियामक परमेश्वर के लिए (नमः) हम नमस्कार करते हैं।
टिप्पणी
(प्र०) ‘नमःसु’ इति यजु०। (द्वि०) ‘अयस्मयं विचृता बन्धमेतम्’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्रुहण ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। अग्निः। १ अतिजगतीगर्भा जगती, २, ३ जगत्यौ ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom
Meaning
O Nir-rti, nescience and natural destiny, last homage to you! O lord of light, Agni, pray loosen and untie the iron shackles of bondage which Yama, lord of natural law, imposes on me again and again, for which reason, O Yama, homage to you also for release from the bonds of death.
Subject
Yamah
Translation
Obeissance be to you, O perdition (distress) of sharpened fury. May you loosen the binding iron-fetters. The controller (death) verily gives them to you, O men, now give them back to me. Our homage be to that controller, the death.
Translation
Let there be weapon of knowledge against this misery of ignorance, May Divinity endowed with sharp wisdom loose these fastening fetters wrought of iron, The Ordainer of the destiny (God) gives this misery again to me (unless and until I am emanciped) therefore, my appreciation to that death and homage to the controller of the universe.
Translation
O poverty, thunderbolt to thee. O Glorious God, loose Thou the binding fetters wrought of iron. To me, verily, again doth God give thee. To God, the Deliverer from death be homage.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(नमः) वज्रः−निघ० २।२०। (अस्तु) (ते) तुभ्यम् (निर्ऋते) हे अलक्ष्मि (तिग्मतेजः) इषियुधीन्धि०। उ० १।१४५। इति तिग गतौ−हिंसायां च−मक्। तिग्मानि हिंसितानि तेजांसि यया सा तिग्मतेजाः, तत्सम्बुद्धौ। हे नाशिततेजः (अयस्मयान्) लोहमयान्, अतिदृढान् (विचृत) चृती हिंसाग्रन्थनयोः। विहिन्धि। विनाशय (बन्धपाशान्) बन्धनजालान् (यमः) न्यायकारी परमेश्वरः (मह्यम्) प्राणिने (पुनः) बारं बारम् (इत्) एव (त्वाम्) निर्ऋतिम् (ददाति) प्रयच्छति। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० ६।२८।३ ॥
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