अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 4
ऋषिः - द्रुह्वण
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
1
संस॒मिद्यु॑वसे वृष॒न्नग्ने॒ विश्वा॑न्य॒र्य आ। इ॒डस्प॒दे समि॑ध्यसे॒ स नो॒ वसू॒न्या भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽस॑म् । इत् । यु॒व॒से॒ । वृ॒ष॒न् । अग्ने॑ । विश्वा॑नि । अ॒र्य: । आ । इ॒ड: । प॒दे । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । स: । न॒: । वसू॑नि । आ । भ॒र॒ ॥६३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इडस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽसम् । इत् । युवसे । वृषन् । अग्ने । विश्वानि । अर्य: । आ । इड: । पदे । सम् । इध्यसे । स: । न: । वसूनि । आ । भर ॥६३.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मोक्षप्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(वृषन्) हे बलवान् (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (अर्यः) स्वामी होकर तू (विश्वानि इत्) सब ही [सुखों] को (संसम्) यथावत् रीति से (आ=आनीय) ला कर (युवसे) मिलाता है। और (इडः) प्रशंसा के (पदे) पदपर (सम् इध्यसे) तू सुशोभित होता है, (सः) सो तू (नः) हमारे लिये (वसूनि) अनेक धनों को (आ भर) भर दे ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य पराक्रमी धर्मात्माओं का आश्रय लेकर सम्पूर्ण धन प्राप्त करें ॥४॥ यह मन्त्र यजुर्वेद में है−अ० १५।३०। और ऋग्वेद मे भी है−म० १०।१९१।१।७। जिसके आगे के शेष तीन मन्त्र अगले सूक्त ६४ में हैं ॥
टिप्पणी
४−(संसम्) अतिसम्यग् रीत्या (इत्) एव (युवसे) यु मिश्रणामिश्रणयोः, तुदादित्वमात्मनेपदत्वं च छान्दसम्। यौषि। मिश्रयसि (वृषन्) बलवन् (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (विश्वानि) सर्वाणि सुखानि (अर्यः) अर्यः स्वामिवैश्ययोः। पा० ३।१।१०३। इति ऋ गतौ−यत् प्रत्ययो निपातनात्। स्वामी त्वम् (आ) आनीय (इडः) ईड स्तुतौ−क्विप्, ह्रस्वश्च। प्रशंसायाः (पदे) अधिकारे (सम्) सम्यक् (इध्यसे) दीप्यसे। (सः) त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (आ) समन्तात् (भर) धर ॥
विषय
'वृषा, अग्रि, अर्य' आचार्य
पदार्थ
१. विद्यार्थी आचार्य से कहता है कि हे (वृषन्) = मुझे ज्ञान-जल से सिक्त करनेवाले, (अग्ने) = मुझे आगे-और-आगे ले-चलनेवाले आचार्य! (अर्य:) = आप जितेन्द्रिय हो और सब ज्ञानों के स्वामी हो। (इत्) = निश्चय से (सम्) = सम्यक् और (सं आ युवसे) = अच्छी प्रकार ही मुझे बुराइयों से पृथक् करते हो और अच्छाई के साथ जोड़ते हो। २. आप (इड:पदे) = इस ज्ञान की बाणी के मार्ग में (समिध्यसे) = खूब ही चमकते हो। (सः) = वे आप (न:) = हमारे लिए (वसूनि) = इन जान-साधनों को (आभर) = समन्तात् भूत कीजिए। हमें ज्ञानदीस करके उस ज्ञानाग्नि में सब निति-बन्धनों को भस्म कर दीजिए।
भावार्थ
ज्ञानदीप्त आचार्य हमें ज्ञानसिक्त करके सब बुराइयों से पृथक् करें।
विशेष
यह ज्ञानदीस व्यक्ति स्थितप्रज्ञ बनता है। इसकी मति विषयों से आन्दोलित नहीं होती। इसी से यह अथर्वा' कहलाता है। यह अथर्वा ही अगले छह सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
(वृषन्) हे सुखों की वर्षा करने वाले (अग्ने) अग्निस्वरूप परमेश्वर ! (अर्यः) स्वामी तू (आ) सर्वत्र (विश्वानि) सब प्रकार के ऐश्वर्य (सम् युवसे) सम्यक् रूप में सम्बद्ध कर रहा है, (सम्, इत्) निश्चय से सम्यक् रूप में सम्बद्ध कर रहा है। (इडस्पदे) पृथिवी या स्तुति के स्थान में या इस पार्थिव शरीर के हृदय-स्थल में (समिध्यसे) तू प्रदीप्त होता है, (सः) वह तू (नः) हमें (वसूनि) वास योग्य उत्तम गुणरूपी सम्पत्तियां (आभर) प्रदान कर।
टिप्पणी
[गुरु और शिष्यों के निवास स्थान आश्रम में या उपासनालय में प्रातःकाल और सायं काल, इस प्रकार अग्निहोत्र तथा सम्मिलित उपासना का विधान हुआ है]।
विषय
अविद्या-पाश का छेदन।
भावार्थ
हे (वृषन्) सब सुखों के वर्षक ! हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप ! आप (अर्यः) सबके प्रेरक और सबके स्वामी हैं। आप (आ) सब तरफ (विश्वानि) सब पदार्थों को (सं सं युवसे इत्) चला रहे हैं, और (इडस्पदे) इला = अन्न के आश्रयभूत भूतल पर, अथवा इडा = श्रद्धा के पद, आश्रयस्थान हृदय में अथवा इडा = चेतना मनन शक्ति के पद, आश्रय, आत्मा में (समिध्यसे) प्रकाशित होते हो (सः) वह आप (नः) हमें (वसूनि) नाना जीवनोपयोगी धनों को (आ भर) प्राप्त कराओ।
टिप्पणी
‘इडस्पदे’—इडा वै श्रद्धा। श०११। २। ७। २०॥ इडा वै मानवी यज्ञानुकाशिनी आसीत्। तै० १। १। ४। ४ ॥ सा वै इडा पञ्चावत्ता भवति। श० १। ८। १। १२ ॥ (१) श्रद्धा इडा है। (२) मनु = मननशील के यज्ञ आत्मा या देह में अनुप्रकाश करने वाली चितिशक्ति ‘इडा' है। वह इडा पांच विभाग में बांटी जाती है। यही पांच भाग पांच चैतन्य ज्ञानेन्द्रिय हैं। उस इडा का पद आश्रय, आवास आत्मा हैं। राजा के पक्ष में इडा पृथिवी और अग्नि राजा है। ऋग्वेदेऽस्याः संवनन ऋषिः। अग्निर्देवता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्रुहण ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। अग्निः। १ अतिजगतीगर्भा जगती, २, ३ जगत्यौ ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom
Meaning
O Ruler of the earthly world and the light of heaven, Agni, giver of infinite showers of bliss, you join all the elements of nature and life together, lead humanity to break the shackles of bondage and help them join the ultimate freedom of Moksha. You are lighted and worshipped on the earthly vedi of yajna by the seekers of Divinity. Pray bring us showers of wealth, honour and excellence of earthly life and lead us to the highest heaven of freedom and bliss.
Subject
Agnih
Translation
O vigorous fire-divine, you are the masters. You unite all with each other. You are kindled at the place of sacrifice (recitation). May you bring riches to us. (Also Rg. X.191.1)
Translation
O Self-refulgent God! Thou art bestower of happiness and the master of the universe and Thou gatherest up all the precious things. Thou art contemplated at the time of worship and concentration. So Thou bring us the wealth physical as well as spiritual.
Translation
O Powerful God, the Lord of al, Thou nicely gatherest up all precious things. Bring us all treasures, Thou art enkindled in the heart and soul!
Footnote
इडावैश्रद्धा। श० 11-2-7-20 इडस्पदे means in the heart, the seat of devotion.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(संसम्) अतिसम्यग् रीत्या (इत्) एव (युवसे) यु मिश्रणामिश्रणयोः, तुदादित्वमात्मनेपदत्वं च छान्दसम्। यौषि। मिश्रयसि (वृषन्) बलवन् (अग्ने) हे विद्वन् पुरुष (विश्वानि) सर्वाणि सुखानि (अर्यः) अर्यः स्वामिवैश्ययोः। पा० ३।१।१०३। इति ऋ गतौ−यत् प्रत्ययो निपातनात्। स्वामी त्वम् (आ) आनीय (इडः) ईड स्तुतौ−क्विप्, ह्रस्वश्च। प्रशंसायाः (पदे) अधिकारे (सम्) सम्यक् (इध्यसे) दीप्यसे। (सः) त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) धनानि (आ) समन्तात् (भर) धर ॥
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