अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
ऋषिः - द्रुह्वण
देवता - मृत्युः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - वर्चोबलप्राप्ति सूक्त
1
अ॑य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒य॒स्मये॑ । द्रु॒ऽप॒दे । बे॒धि॒षे॒ । इ॒ह । अ॒भिऽहि॑त: । मृ॒त्युऽभि॑: । ये । स॒हस्र॑म् । य॒मेन॑ । त्वम् । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥६३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम्। यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयस्मये । द्रुऽपदे । बेधिषे । इह । अभिऽहित: । मृत्युऽभि: । ये । सहस्रम् । यमेन । त्वम् । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥६३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
मोक्षप्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (इह) यहाँ पर (मृत्युभिः) मृत्यु के कारणों से, (ये) जो (सहस्रम्) सहस्र प्रकार हैं, (अभिहितः) घिरा हुआ तू (अयस्मये) लोहे से जकड़े हुए (द्रुपदे) काठ के बन्धन में (बेधिषे=बध्यसे) बँध रहा है। (यमेन) नियम के साथ (पितृभिः) पालन करनेवाले ज्ञानियों से (संविदानः) मिला हुआ (त्वम्) तू (इमम्) इस पुरुष को (उत्तमम्) उत्तम (नाकम्) आनन्द में (अधि रोहय) ऊपर चढ़ा ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य पापों के कारण बड़े-बड़े कष्ट उठाते हैं, वे विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करके मोक्षपद प्राप्त करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अयस्मये) अयोमये (द्रुपदे) दारुनिर्मिते पादबन्धने (बेधिषे) बन्ध बन्धने कर्मणि−लट्। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति सार्वधातुकार्धधातुकत्वाद् नलोपः, यगभाव इडागमश्च, छान्दसमेत्वम्। बध्यसे बद्धो भवसि (इह) अस्मिन् लोके (अभिहितः) अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। वेष्टितः (मृत्युभिः) मरणकारणैः। महाकष्टैः (ये) (सहस्रम्) अनेकविधम् (यमेन) नियमेन (त्वम्) मनुष्यः (पितृभिः) पालकैर्महात्मभिः (संविदानः) अ० २।२८।२। संगच्छमानः (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (नाकम्) अ० १।९।२। दुःखरहितं कं सुखम् (अधि रोहय) उपरि प्रापय (इमम्) आत्मानम् ॥
विषय
मृत्योर्मामृतं गमय
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
वेद का मन्त्र यह कहता है कि हे मानव! तू प्रकाश के लिए गमन कर और अन्धकार को त्यागने का प्रयास कर। तो मेरे प्यारे! याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ब्रह्मचारियों के मध्य में बोले, हे ब्रह्मचारियो! ये वेद का मन्त्र यह कहता है कि मानव को तपना चाहिए। हम मानव देखो, तपायमान हो जाएं और तप करते हुए इस सागर से पार हो जाएं। तो आओ, मेरे प्यारे! विचार विनिमय क्या? वेद का मन्त्र कहता है, आचार्यजन कहते हैं मानव क्या, प्रत्येक पदार्थ तप रहा है। बेटा! अणु और परमाणु मानो ये सर्वत्र तपायमान है और तप कहते किसे हैं? बेटा! यह प्रश्न बना का बना रह गया। मानो देखो, तप कहते हैं जो इन्द्रियों को तपायमान करता है, वह इन्द्रियों को तपाता रहता है। किसमें तपाता है? ज्ञान रूपी अग्नि में। वह प्रत्येक इन्द्रिय का जब ज्ञान हो जाता है कि नेत्रों का क्या विषय है? अग्नि अमृतम् और श्रोत्रों का क्या विषय है? वाणी का क्या विषय है? मेरे पुत्रो! त्वचा का क्या विषय है? और घ्राण इन्द्रियों का, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को जब वह तपायमान और उनके रहस्यों को जान लेता है, और उनको एकत्रित करके बेटा! ज्ञानरूपी अग्नि में जब वह प्रवेश हो जाता है तो उसका आध्यात्मिकवाद मानो देखो, सफलता को प्राप्त हो करके और वह ज्ञानरूपी मानो देखो, अग्नम् ब्रह्मणा जो प्रदीप्त हृदय में हो रही है उसमें वो हूत कर रहा है, उसमें आहुति दे रहा है। जैसे यज्ञमान अपनी यज्ञशाला में विद्यमान होकर के मेरे कर रहा है और वह अपने साकल्य का श्रद्धामयी घृत की आहुति दे रहा है। अपनी इन्द्रियों को संयम में करता हुआ जब बेटा! देवता के एक मुखारबिन्द में वह आहूत कर रहा है, तो बेटा! उसके जीवन में एक महानता की ज्योति जागरूक हो जाती है।
सृष्टि के प्रारम्भ से ले करके वर्तमान के काल तक नाना प्रकार के अनुष्ठान करता रहा है, नाना प्रकार के प्राण और अपान को मिलाने में लगा रहा है, और यह विचारता रहता है, कि मैं अपने में कैसे महान बनूं? परन्तु उस मानव की एक ही प्रबल इच्छा रहती है, क्या मैं मृत्युञ्जय बन जाऊं। मेरी मृत्यु नही आनी चाहिए। ऐसा बेटा! सदैव मानव परम्परागतो से बेटा! विचार विनिमय करता रहा है। मेरी प्यारी माता सदैव यह विचारती रहती है कि मेरा अन्धकार में जीवन न चला जाएं, और मेरा पुत्र मेरे से मानो दूरी न हो जाएं, सदैव यह आकांक्षा बनी रही है। परन्तु देखो, विचार आता रहता है, चाहता क्या है? मानव चाहता है कि मेरे जीवन में प्रकाश आ जाएं, अन्धकार न रहे, मैं अन्धकार से दूरी हो जाऊं। तो बेटा! देखो, प्रकाश के लिए प्रत्येक मानव अपने में मानवीयता के लिए सदैव याग करता रहा है।
नैमित्तिक एवं स्वाभाविक ज्ञान
परन्तु इसी प्रकार हमारे यहाँ परमपिता परमात्मा के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न प्रकार की धाराएँ प्रायः मानव के समीप आती रहती हैं। हमारे यहाँ वैदिक साहित्य में दो प्रकार के ज्ञान और विज्ञान की उड़ानें उड़ी जाती हैं। एक उड़ान वो कही गई है जिस उड़ान के उड़ने से मानव में मानवीयता का भाव आता है। एक हमारे यहाँ ज्ञान में, जिसे हमारे यहाँ स्वाभाविकत्व कहा जाता है। एक नैमित्तिक है और एक स्वाभाविक माना गया है। नैमित्तिक उस ज्ञान को कहते हैं जो मानव के सम्पर्क से अथवा अपनी आभा के आधार पर अपने ज्ञान और विज्ञान की आभा में रत्त होता रहता है। एक स्वाभाविकत्व होता है। जिसको जितना ज्ञान है उतना ही रह जाता है, वो हमारे यहाँ नाना योनियों में प्राप्त होता है।
विषय
यमेन पितृभिः संविदानः
पदार्थ
१. हे (निर्ऋते) = पापदेवते! तू इस मनुष्य को (अयस्मये) = लोह-निर्मित-बड़े दृढ़ (द्रुपदे) = दारु निर्मित पादबन्धन में-बेड़ियों में (बेधिषे) = बाँध देती है। (इह) = इस लोक में यह पुरुष इन (मत्यभिः) = मृत्यु के कारणभूत पाशों से (अभिहित:) = बद्ध हो जाता है। उन मृत्युपाशों से बद्ध हो जाता है (ये) = जोकि (सहस्त्रम्) = हज़ारों की संख्या में हैं। कितने ही पाश-बन्धनों से यह पुरुष जकड़ा जाता है। हे साधक ! (त्वम्) = तू (यमेन) = जीवन को नियमित बनानेवाले आचार्य से तथा (पितृभिः) = रक्षा करनेवाले माता-पिता आदि से (संविदान:) = सम्यक् ज्ञान प्रास करता हुआ अपने को (इमम्) = इस (उत्तमं नाकम्) = उत्कृष्ट मोक्षलोक में (अधिरोहय) = आरूढ़ कर-तू मोक्षलोक को प्राप्त करनेवाला बन |
भावार्थ
पापदेवता हमें दृढ़ पाशों में जकड़ देती है। हम आचार्यों व पितरों से ज्ञान प्राप्त करके पाप-बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करें।
भाषार्थ
[हे निर्ऋति अर्थात् कृच्छ्रापति !] (इह) इस मर्त्यलोक में (अयस्मये) मोहनिर्मित (द्रुपदे) पैर की बेड़ी में तू (बेधिषे) बान्धती है, तो (मुत्युभिः) मृत्यु [कष्टों] द्वारा (अभिहितः१) पुरुष बन्ध जाता है, (ये) जो मृत्युएं [कष्ट] कि (सहस्रम्) हजार प्रकार की हैं। (त्वम्) हे शिष्य ! तू (यमेन) नियन्ता आचार्य और (पितृभिः) आश्रम के अन्य गुरुओं के साथ (संविदानः) ऐकमत्य को प्राप्त हो जा [उन के निर्देशानुसार निज जीवनचर्या कर], और हे आचार्य ! तू (इमम्) इस शिष्य को (उत्तमम्) उत्कृष्ट (नाकम्) दुःखों से रहित सुख के लोक पर (अधिरोहय) चढ़ा, नाकगमन के योग्य कर।
टिप्पणी
[पितृभिः = विद्या प्रदाता गुरु भी पिता के सदृश हैं। यथा– य आतृणत्यवितथेन कर्णावदुः खं कुर्वन्नमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न ब्रुह्येत कतमधनाह।। (निरुक्त २।२।३)]। [१. अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने वर्तते (सायण)। यथा अभिधानी=रस्सी।]
विषय
अविद्या-पाश का छेदन।
भावार्थ
हे अविद्ये ! बन्धकारिणी ! जब तू (अयस्मये) लोहे के समान दृढ़ वा आवागमनस्वरूप, (द्रुपदे) वृक्ष के खूंटे के समान वर्तमान इस कठोर देह के साथ जीवको (बेधिषे) बांध लेती है तब (इह) इस लोक में वह जीब (मृत्युभिः) नाना प्रकार के शरीरनाशक ज्वर आदि कारणों से, (ये सहस्रम्) जो सैकड़ों संख्या में हैं (अभिहितः) बँध जाता है। हे पुरुष ! (त्वम्) तू (पितृभिः) अपने परिपालक आचार्य आदि गुरुओं और (यमेन) उस अन्तर्यामी परमात्मा से (संविदानः) उत्तम रीति से ज्ञान लाभ करता हुआ (उत्तमम्) उत्कृष्ट (इमम्) उस (नाकम्) सुखमय परम ब्रह्मलोक को (अधि रोहय) प्राप्त हो।
टिप्पणी
‘यमेन त्वं यम्या संविदानोत्तमे नाके अधिरोहयैनम्’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
द्रुहण ऋषिः। निर्ऋतिर्देवता। अग्निः। १ अतिजगतीगर्भा जगती, २, ३ जगत्यौ ४ अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom
Meaning
O man, bound in iron shackles, tied to the wooden post of natural life, you are imprisoned here by death in a thousand ways. O Agni, lord of light, you know, being one with the realities of parental procreation and Yama, natural law, as well as Yama, ultimate divine Ordainer. Pray help this man to break the shackles and rise to the highest heaven of freedom.
Subject
Mrityuh - Death
Translation
When you bind a man to the iron-peg, then in this world, he Stays surrounded with deaths, which are thousands. (O distress divine), may you, in accord With the controller and the elders, raise this man to the highest sorrowless world.
Translation
In this world this misery of ignorance binds the soul in the body possessing iron-element like the post wrought of iron. The soul thus bound up remains fettered with deaths which visits in the series of thousands. O man! Becoming unanimous with your learned parent, teacher and all-ordaining Divinity ascend to the loftiest state of happiness.
Translation
Compassed by death which comes through various causes, in this world, O man, art thou fastened to the iron pillar. In conformity with the laws of God, and the teachings of the learned preceptors, make thyself rise and reach the summit of human felicity!
Footnote
Iron pillar: hard, tough, firm body.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अयस्मये) अयोमये (द्रुपदे) दारुनिर्मिते पादबन्धने (बेधिषे) बन्ध बन्धने कर्मणि−लट्। छन्दस्युभयथा। पा० ३।४।११७। इति सार्वधातुकार्धधातुकत्वाद् नलोपः, यगभाव इडागमश्च, छान्दसमेत्वम्। बध्यसे बद्धो भवसि (इह) अस्मिन् लोके (अभिहितः) अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। वेष्टितः (मृत्युभिः) मरणकारणैः। महाकष्टैः (ये) (सहस्रम्) अनेकविधम् (यमेन) नियमेन (त्वम्) मनुष्यः (पितृभिः) पालकैर्महात्मभिः (संविदानः) अ० २।२८।२। संगच्छमानः (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (नाकम्) अ० १।९।२। दुःखरहितं कं सुखम् (अधि रोहय) उपरि प्रापय (इमम्) आत्मानम् ॥
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