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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सविता, सोमः, वरुणः छन्दः - अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - वपन सूक्त
    1

    येनाव॑पत्सवि॒ता क्षु॒रेण॒ सोम॑स्य॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य वि॒द्वान्। तेन॑ ब्रह्माणो वपते॒दम॒स्य गोमा॒नश्व॑वान॒यम॑स्तु प्र॒जावा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । अव॑पत् । स॒वि॒ता । क्षु॒रेण॑ । सोम॑स्य । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । वि॒द्वान् । तेन॑ । ब्र॒ह्मा॒ण॒: । व॒प॒त॒ । इ॒दम् । अ॒स्य । गोऽमा॑न् । अश्व॑ऽवान् । अ॒यम् । अ॒स्तु॒ । प्र॒जाऽवा॑न् ॥६८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । अवपत् । सविता । क्षुरेण । सोमस्य । राज्ञ: । वरुणस्य । विद्वान् । तेन । ब्रह्माण: । वपत । इदम् । अस्य । गोऽमान् । अश्वऽवान् । अयम् । अस्तु । प्रजाऽवान् ॥६८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मुण्डन संस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस विधि के साथ (विद्वान्) अपना कर्म जाननेवाले (सविता) फुरतीले नापित ने (क्षुरेण) छुरा से (सोमस्य) शान्तस्वभाव, (राज्ञः) तेजस्वी, (वरुणस्य) उत्तम स्वभाववाले बालक का (अवपत्) मुण्डन किया है। (तेन) उसी विधि से (ब्रह्माणः) हे ब्राह्मणो ! (अस्य) इस बालक का (इदम्) यह शिर (वपत) मुण्डन कराओ, (अयम्) यह बालक (गोमान्) उत्तम गौओंवाला, (अश्ववान्) उत्तम घोड़ोंवाला और (प्रजावान्) उत्तम सन्तानोंवाला (अस्तु) होवे ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग बालकों का मुण्डनसंस्कार कराके उन्हें प्रतापी, धनी और बलवान् बनावें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(येन) यादृशेन विधिना (अवपत्) मुण्डनं कृतवान् (सविता) म० १। स्फूर्तिशीलः (क्षुरेण) अस्त्रेण (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनः (वरुणस्य) श्रेष्ठबालकस्य (विद्वान्) स्वकर्मज्ञाता नापितः (तेन) तादृशेन कर्मणा (ब्रह्माणः) हे वेदज्ञातारो ब्राह्मणाः (वपत) मुण्डनं कारयत (इदम्) शिरः (अस्य) माणवकस्य (गोमान्) प्रशस्तगोयुक्तः (अश्ववान्) बहुमूल्यतुरङ्गोपेतः (अयम्) माणवकः (अस्तु) (प्रजावान्) प्रशस्तसन्तानयुक्त ॥

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    विषय

    गोमान, अश्ववान्, प्रजावान्

    पदार्थ

    १. (विद्वान) = ज्ञानी (सविता) = जन्मदाता पिता-समझदार पिता (येन क्षुरेण) = जिस अज्ञानान्धकार रूप केशों के वपन के साधनभूत शस्त्र से इस (सोमस्य) = सौम्य स्वभाववाले-सोम [वीर्य] के रक्षक (राज्ञः) = इन्द्रियों पर शासन करनेवाले (वरुणस्य) = द्वेष आदि का निवारण करनेवाले सन्तान के (अवपत्) = अन्धकाररूप केशों का छेदन करता है, (तेन) = उस शस्त्र से हे (ब्रह्माण:) = ज्ञानी आचार्यों ! आप भी (अस्य) = इस सोम राजा के-इस जीव के (इदम्) = इस अज्ञानान्धकार को वपत् उच्छिन्न करने की कृपा कीजिए। २. इस अज्ञानान्धकार के छेदन से (अयम्) = यह (गोमान्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला, (अश्ववान्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाला तथा (प्रजावान्) = गृहस्थ होने पर उत्तम सन्तानोंवाला (अस्तु) = हो।

    भावार्थ

    विद्यार्थी सौम्य, जितेन्द्रिय व निर्देष हो। ज्ञानी आचार्य तथा समझदार पिता इनके अज्ञानान्धकारों को दूर करें। ये उत्तम इन्द्रियोंवाले व सद्गृहस्थ बनकर उत्तम सन्तानोंवाले हों।

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    भाषार्थ

    (येन क्षुरेण) जिस उस्तरे द्वारा (सविता) पुरुष नापित ने, (विद्वान) जोकि केश छेदन को जानता है, (वरुणस्य) वरण-कर्ता आचार्य के (राज्ञः) विराजमान (सोमस्य) सौम्य स्वभाव वाले बालक का (अवपत् ) केशछेदन किया है, (तेन) उस उस्तरे द्वारा (ब्रह्माणः) हे वेद के विद्वानों ! आश्रम के गुरुओं ! तुम (अस्य) इस प्रौढ़ावस्था के ब्रह्मचारी के (इदम् वपत) इस केशछेदन को करो [ताकि विद्या की समाप्ति के अनन्तर] (अयम्) यह [गृहस्थी हो कर] (गोमान्) गौओं वाला, (अश्ववान) अश्वों वाला तथा (प्रजावान्) प्रशस्त पुत्र पौत्र आदि वाला (अस्तु) हों।

    टिप्पणी

    [अवपत्, वपत = डुवप् बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः)]।

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    विषय

    केश-मुण्डन और नापितकर्म का उपदेश।

    भावार्थ

    (सविता) सूर्य (येन) जिस प्रकार के (क्षुरेण) ज्योतिर्मय छुरे से (राज्ञः सोमस्य) राजा अर्थात् प्रकाशमान सोम अर्थात् चन्द्र के अन्धकार को (अवपत्) छिन्न भिन्न करता है और (विद्वान्) विद्यावान् आचार्य (येन क्षुरेण) जिस उपदेशमय क्षुर = उपदेश से और सञ्चय के उपाय से (वरुणस्य) राजा के अज्ञान को (अवपत्) छिन्न भिन्न करता है (तेन) उसी ज्ञान और ज्योतिर्मय उपदेश और प्रकाश के छुरे से, हे (ब्रह्माणः) ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषो ! (अस्य) इस अपने शिष्य के (इदम्) इस अज्ञान अन्धकार को भी (वपत) छिन्न भिन्न करो। उसी के साथ साथ छूरे से आरोग्य और दीर्घ जीवन के लिये बालों को भी काटा करो, जिससे (अयम्) यह राजा और शिष्य (गोमान्) गो = ज्ञानेन्द्रियों से युक्त और (अश्ववान्) अश्व = कर्मेन्द्रियों से युक्त और (प्रजावान्) उत्तम सन्तान से भी युक्त हो। जिस प्रकार सूर्य चन्द्र अन्धकार को दूर करता है और उसमें ज्योतिर्मय धन का वितरण करता है या जिस प्रकार विद्वान् मन्त्री राजा के ऊपर के संकटों को दूर करता है और विशेष उपाय से सावधान होकर के उसकी समृद्धि बढ़ाता है उसी प्रकार आचार्य ज्ञानद्वारा शिष्य के अज्ञान को हटावे, छुरे से बालों को दूर करे, उसके ज्ञान आरोग्य और दीर्घ जीवन की वृद्धि करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ पुरोविराडतिशक्करीगर्भा चतुष्पदा जगती,२ अनुष्टुप्, ३ अति जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Tonsure Ceremony

    Meaning

    By the process the expert barber has shaved the head of the shining, loving and intelligent child with the razor, by the same ceremonial process, O Brahmanas, pray complete the tonsure ceremony of the child. May this child be rich in lands, cows and horses and may he have a noble family.

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    Translation

    With which razor the knowledgeable sun shaved the blissful king and the venerable king, O learned priests, with the same , :Tazor.shave the hair and beard of this man. May he be rich in cows, horses and progeny (children).

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    Translation

    O priests! by that method through which the deligent barber shaves the hair of tender brilliant child, you get the shaving of child accomplished and may this child be blessed with milch kine, horses and progeny.

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    Translation

    The way in which the skilled barber hath shaven with the razor, this calm, brilliant and good-natured child, in the same way, O Brahmans get the head of this child shaved. Let him be rich in kine, horses, and children.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(येन) यादृशेन विधिना (अवपत्) मुण्डनं कृतवान् (सविता) म० १। स्फूर्तिशीलः (क्षुरेण) अस्त्रेण (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनः (वरुणस्य) श्रेष्ठबालकस्य (विद्वान्) स्वकर्मज्ञाता नापितः (तेन) तादृशेन कर्मणा (ब्रह्माणः) हे वेदज्ञातारो ब्राह्मणाः (वपत) मुण्डनं कारयत (इदम्) शिरः (अस्य) माणवकस्य (गोमान्) प्रशस्तगोयुक्तः (अश्ववान्) बहुमूल्यतुरङ्गोपेतः (अयम्) माणवकः (अस्तु) (प्रजावान्) प्रशस्तसन्तानयुक्त ॥

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