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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - विश्वे देवाः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - असुरक्षयण सूक्त
    1

    येन॑ देवा॒ असु॑राणा॒मोजां॒स्यवृ॑णीध्वम्। तेना॑ नः॒ शर्म॑ यच्छत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दे॒वा॒: । असु॑राणाम् । ओजां॑सि । अवृ॑णीध्वम् । तेन॑ । न॒: । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒ ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन देवा असुराणामोजांस्यवृणीध्वम्। तेना नः शर्म यच्छत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । देवा: । असुराणाम् । ओजांसि । अवृणीध्वम् । तेन । न: । शर्म । यच्छत ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सुख की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विजयी देवताओ ! (येन) जिस [मार्ग] से (असुराणाम्) असुरों के (ओजांसि) बलों को (अवृणीध्वम्) तुम ने रोका है, (तेन) उसी से (नः) हमें (शर्म) सुख (यच्छत) दान करो ॥३॥

    भावार्थ

    शूर वीर पुरुष दुष्टों के जीतने में परस्पर सदा सहायक रहें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(येन) वेदमार्गेण (देवाः) विजिगीषवः शूराः (असुराणाम्) सुरविरोधिनां शत्रूणाम् (ओजांसि) बलानि (अवृणीध्वम्) वृञ् संवरणे−लङ्। यूयं निवारितवन्तः स्थ (तेन) पथा (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (यच्छत्) पाघ्राध्मा०। पा० ३।७८। इति दाण् दाने, यच्छादेशः। दत्त ॥

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    विषय

    असुर ओज-निवारण

    पदार्थ

    १. हे (देवा:) = शत्रु-विजय की कामनावाले साधको। (येन) = जिस मार्ग से तुमने (असुराणा ओजांसि) = असुरों के बलों को-आसुरभावों की प्रचण्ड शक्ति को (अवृणीध्वम्) = रोका है निवारण किया है (तेन) = उसी मार्ग से (न:) = हमारे लिए (शर्म यच्छत) = कल्याण व सुख प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    हम देवों के मार्ग पर चलते हुए आसुरभावों की शक्ति को रोकें और सुख प्राप्त करें।

    विशेष

    अगले दो सूक्तों का ऋषि जमदग्नि है। 'चक्षुर्वै जमदनिषिः , यदनेन जगत् पश्यत्यथो मनुते तस्माच्चक्षर्जमदग्रिक्रषिः [श०८.१.३.३] चक्षु ही जमदग्नि है। चक्षु से संसार को ठीक रूप में देखकर उसका मनन करता है। ऐसा ही व्यक्ति सद्गृहस्थ बनता है। वह पत्नी से कहता है -

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    भाषार्थ

    (देवाः) हे सैनिको! (येन) जिस क्षात्रवल द्वारा (असुराणाम्) प्राण पोषक और धनलोलुप शत्रुओं के (ओजांसि) बलों को (अवृणीध्वम्) तुम ने आवृत कर दिया है, घेर लिया है या निवारित कर दिया है, (तेन) उस सैनिक बल द्वारा (नः) हमें (शर्म) सुख (यच्छत) प्रदान करो।

    टिप्पणी

    [(देवाः) "दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः), विजिगीषु सैनिक। असुराणाम् =असु:= प्राण और वसु१। यथा "असुरत्वम् अनवत्त्वम्२", [व्]३ आदिलुप्तम् (निरुक्त १०।३।३४)। अवृणीध्वम् = वृञ् आवरणे (चुरादिः)। शर्म सुखनाम (निघं० ३।६)]। [१. पद "अदिति" ४९ (निरुक्त ४।४।२२)। २. अन प्राणने (अदादिः)। ३. असुर:= वसुरः= वसुमान् "व्" आदिलुप्तम् (निरुक्त)]

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    विषय

    उत्तम शासन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (देवाः) विद्वान् पुरुष (येन) जिस उपाय से (असुराणाम्) बलवान् शारीरिक बल से बली पुरुषों के (ओजांसि) तेजों को बलों को (अवृणीध्वम्) अपने नीचे दबा लेते हैं हे विद्वानो ! (तेन) उसी उपाय से (नः) हमें आप लोग (शर्म) सुख शान्ति (यच्छत) प्रदान करो। इस सूक्त में अध्यात्म पक्ष में सोम = आत्मा; अदितिः = अखण्ड चिति शक्ति या बुद्धि, मित्राः = १२ प्राण, असुराः = प्राण, कर्मेन्द्रिय, देव= ज्ञानेन्द्रिय।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। सोमो देवता, विश्वेदेवा देवताः। १-३ गायत्र्यः। ३ निचृत्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Path without Hate

    Meaning

    O Devas, divinities of nature and humanity, come by the paths you take to cover and stall the force of demons, and give us peace and a happy home.

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    Subject

    Visvedevah

    Translation

    O bounties of Nature, whereby you keep captive the vigours of the life-giving powers, thereby may you give us comfort.

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    Translation

    O All-impelling Lord! give us the pleasure and plenty in the way through which the rays of the sup repel the strength of clouds.

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    Translation

    Whereby Ye learned persons have repelled and stayed the powers of the ignoble persons, thereby give shelter unto us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(येन) वेदमार्गेण (देवाः) विजिगीषवः शूराः (असुराणाम्) सुरविरोधिनां शत्रूणाम् (ओजांसि) बलानि (अवृणीध्वम्) वृञ् संवरणे−लङ्। यूयं निवारितवन्तः स्थ (तेन) पथा (नः) अस्मभ्यम् (शर्म) सुखम् (यच्छत्) पाघ्राध्मा०। पा० ३।७८। इति दाण् दाने, यच्छादेशः। दत्त ॥

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