अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मानाशन सूक्त
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यथा॑ वृ॒त्र इ॒मा आप॑स्त॒स्तम्भ॑ वि॒श्वधा॑ य॒तीः।ए॒वा ते॑ अ॒ग्निना॒ यक्ष्मं॑ वैश्वान॒रेण॑ वारये ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । वृ॒त्र: । इ॒मा: । आप॑: । त॒स्तम्भ॑ । वि॒श्वधा॑ । य॒ती: । ए॒व । ते॒ । अ॒ग्निना॑ । यक्ष्म॑म् । वै॒श्वा॒न॒रेण॑ । वा॒र॒ये॒ ॥८५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा वृत्र इमा आपस्तस्तम्भ विश्वधा यतीः।एवा ते अग्निना यक्ष्मं वैश्वानरेण वारये ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । वृत्र: । इमा: । आप: । तस्तम्भ । विश्वधा । यती: । एव । ते । अग्निना । यक्ष्मम् । वैश्वानरेण । वारये ॥८५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जैसे (वृत्रः) मेघ ने (विश्वधा) सब ओर (यतीः) बहती हुई (इमाः) इन (आपः=अपः) जलधाराओं को (तस्तम्भ) रोका था। (एव) वैसे ही (ते) तेरे (यक्ष्मम्) राजरोग को (वैश्वानरेण) सब मनुष्यों के हित करनेवाले (अग्निना) अग्नि से (वारये) मैं हटाता हूँ ॥३॥
भावार्थ
जैसे मेघ ईश्वरनियम से जल की भाफों को मेघमण्डल में रोक लेता है, उसी प्रकार वैद्य रोगी की पाचन शक्ति ठीक करके रोग को रोक दे ॥३॥
टिप्पणी
३−(यथा) येन प्रकारेण (वृत्रः) अ० २।५।३। आवरको मेघः−निघ० १।१०। (इमाः) परिदृश्यमानाः (आपः) अपः। जलानि (तस्तम्भ) ष्टभि गतिप्रतिबन्धे। अवरुरोध (विश्वधा) सर्वतः (यतीः) इण् गतौ−शतृ, ङीप्। गच्छन्ती (एव) एवम्। तथा (ते) त्वदीयम् (अग्निना)। जाठराग्निना (यक्ष्मम्) राजरोगम् (वैश्वानरेण) अ० १।१०।४। विश्वनरहितेन (वारये) निवारयामि ॥
विषय
यक्ष्म-निवारण
पदार्थ
१. (यथा) = जैसे (वृत्रः) = मेघ विश्वधा (यती:) = सब ओर बहती हुई (इमा: आप:) = इन जलधाराओं को (तस्तम्भ) = रोके हुए हैं, (एव) = उसी प्रकार (ते यक्ष्मम्) = तेरे राजयोग को (वैश्वानरेण अग्रिना) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले जाठराग्नि के द्वारा (वारये) = रोकता हूँ। २. जाठर अग्नि के ठीक होने पर शरीर में रोग नहीं आते। आये हुए रोग भी इस अग्नि के ठीक होने से दूर हो जाते हैं। वरणवृक्ष भी 'आग्नेय' है। इस अग्नि का प्रयोग भी रोग का निवारण करता ही है।
भावार्थ
बादल पानी को रोक लेता है। वरणवृक्ष व वैश्वानर अग्नि [जाठराग्नि] रोग को रोकनेवाला हो। वरणवृक्ष का प्रयोग रोग को फैलने नहीं देता।
भाषार्थ
(यथा) जैसे (वृत्रः) आवरण करनेवाले मेघ ने (विश्वधा) सब के धारण-पोषक (यती:) तथा सर्वत्र गतिशील (इमाः आप: [अपः]) इन जलों को (तस्तम्भ) रोका है, (एव) इसी प्रकार (ते यक्ष्मम्) तेरे यक्षम को (वैश्वानरेण अग्निना) वैश्वानर अग्नि द्वारा (वारये) मैं निवारित करता हूँ।
टिप्पणी
[वृत्रः= 'मेघ इति नैरुक्ताः' (२।५।१६)। विश्वधा= विश्व + डुधाञ् धारणपोषणयोः (जुहोत्यादिः)। यतो:१= इण् गतौ+ शतृ (स्त्रियाम्)२। वैश्वानर अग्नियां तीन हैं, पार्थिव अर्थात् यज्ञियाग्नि, वैद्युत तथा आदित्य। यथा 'यस्तु सुक्त भजते यस्मै हविनिरूप्यतेऽयमेव सोऽग्निर्वैश्वानरः। निपातमेवैते उत्तरे ज्योतिषी एतेन नामधेयेन भजेते' (निरुक्त ७।२।३१)। मन्त्र २ में 'सर्वेषां देवानाम्' के उदाहरणरूप में मन्त्र ३ में 'वैश्वानर अग्नि' पठित हैं]। [१. यण "इणो यण्"(अष्टा० ६॥४॥८१)। २. ऋनेभ्यो ङीप् (अष्टा० ४।१।५)।]
विषय
यक्ष्मा रोग की चिकित्सा।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार (वृत्रः) मेघ (विश्वधा यतीः) सब ओर बहने वाले (इमाः आपः) इन जलों को (तस्तम्भ) अपने भीतर रोक रखता है उसी प्रकार वैद्य रोगी की धातुओं को क्षीण होने से रोके और (एव) इस प्रकार (वैश्वानरेण) सब मनुष्यों के हितकारी (अग्निना) अग्नि से (ते यक्ष्मम्) तेरे राज-रोग को (वारये) दूर करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषि यक्ष्मनाशनकामः। वनस्पतिर्देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma Cure
Meaning
Just as the dark cloud holds up these waters flowing round in all directions, so I stop and cure your yakshma by Vaishvanara fire, i.e., heat, fumigative and aromatic treatment by yajna with the fire-sticks of Varuna tree.
Translation
Just as the coverer (Vitra) stopped and stilled these waters, nourisher of all, so with the fire, the benefactor of all men, I ward off your wasting disease.
Translation
As the cloud retains all these waters flowing every way so I check and banish the consumption of yours, O man! with the fire which is Vaishvanara the consumer of all herbaceous oblations.
Translation
Just as a cloud retains in itself these waters flowing everywhere, so, with the aid of fire, the benefactor of mankind, I check and banish thy consumption.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यथा) येन प्रकारेण (वृत्रः) अ० २।५।३। आवरको मेघः−निघ० १।१०। (इमाः) परिदृश्यमानाः (आपः) अपः। जलानि (तस्तम्भ) ष्टभि गतिप्रतिबन्धे। अवरुरोध (विश्वधा) सर्वतः (यतीः) इण् गतौ−शतृ, ङीप्। गच्छन्ती (एव) एवम्। तथा (ते) त्वदीयम् (अग्निना)। जाठराग्निना (यक्ष्मम्) राजरोगम् (वैश्वानरेण) अ० १।१०।४। विश्वनरहितेन (वारये) निवारयामि ॥
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