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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृग्वङ्गिरा देवता - यक्षमनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्षमनाशन सूक्त
    1

    न्यग्वातो॑ वाति॒ न्यक्तपति॒ सूर्यः॑। नी॒चीन॑म॒घ्न्या दु॑हे॒ न्यग्भवतु ते॒ रपः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न्य᳡क् । वात॑: । वा॒ति॒ । न्य᳡क् । त॒प॒ति॒ । सूर्य॑: । नी॒चीन॑म् । अ॒घ्न्या । दु॒हे॒ । न्य᳡क् । भ॒व॒तु॒ । ते॒ । रप॑: ॥९१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्यग्वातो वाति न्यक्तपति सूर्यः। नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न्यक् । वात: । वाति । न्यक् । तपति । सूर्य: । नीचीनम् । अघ्न्या । दुहे । न्यक् । भवतु । ते । रप: ॥९१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 91; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मिक दोष नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (वातः) वायु (न्यक्) नीचे की ओर (वाति) बहता है, (सूर्यः) सूर्य (न्यक्) नीचे की ओर (तपति) तपता है (अघ्न्या) न मारने योग्य गौ (नीचीनम्) नीचे को (दुहे=दुग्धे) दूध देती है, [हे मनुष्य !] (ते) तेरा (रपः) दोष (न्यक्) नीचे की ओर (भवतु) होवे ॥२॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार वायु आदि पदार्थ निर्दोष होकर उपकार करते हैं, वैसे ही मनुष्य दोषों का त्याग कर उपकारी हों ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(न्यक्) नि+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। निम्नम् (वातः) वायुः (वाति) गच्छति (न्यक्) (तपति) उपतापयति (सूर्यः) सरणशील आदित्यः (नीचीनम्) विभाषाञ्चेर०। पा० ५।४।८। इति न्यच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः (अघ्न्या) अहन्तव्या गौः−निघ० २।११। (दुहे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। दुग्धे दुग्धं ददाति (न्यक्) अधोमुखम् (भवतु) (ते) तव (रपः) पापम् ॥

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    विषय

    न्यग् भवतु ते रपः

    पदार्थ

    १. (वातः) = वाय (न्यक् वाति) = निम्न गति से चलता है, (सुर्य: न्यक् तपति) = सूर्य अवाङ्गमुख [नीचे] तपता है, (अघ्न्या) = अहन्तव्य गौ (नीचीनं दुहे) = दूध का अधोमुख दूहन करती है। २. जैसे ये वायु, सूर्य व अध्या न्यक्त्व धर्म से तपते हैं, उसी प्रकार हे व्याधित ! (ते रपः) = तेरा यह शरीर दोष (न्यक् भवतु) = अधोमुख हो, अर्थात् शान्त हो जाए।

    भावार्थ

    जैसे वायु, सूर्य व असील गौ का कार्य निम्न गति से होता है, इसीप्रकार तेरा यह शरीर-दोष भी निम्न गतिवाला हो।

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    भाषार्थ

    (न्यक्) नीचे को (वातः) झञ्झा वायु (वाति) बहती है, (न्यक्) नीचे की ओर (सूर्य) सूर्य (तपति) तपता है। (अघ्न्या) गौ (नीचिनम्) नीचे की ओर झुक कर (दुहे) दुही जाती है, (ते) तेरा (रपः) पाप भी (न्यक् भवतु) नीचे को ओर से पृथक् हो जाए।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में मनोबल द्वारा पापी के पाप को शान्त किया है। शरीर के उपरि भाग के पापों समेत नीचे की इन्द्रिय के पापों को पृथक् करने का निर्देश हुआ है।

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    भावार्थ

    हे पुरुष ! (वातः) प्राण वायु (न्यग्) शरीर के नीचे की ओर (वाति) गति करता है। (सूर्यः) साधक का चेतनामय सूर्य (न्यक्) नीचे के मूल भाग में भी (तपति) प्रकाशित होता है। (अघ्न्या) कभी न नाश होने वाली चेतना (नीचीनम्) नीचे के मूल भाग में विशेष रूप में प्रकट होती है, साथ ही (ते रपः) तेरा पाप भी (न्यग् भवतु) स्वयं दब कर दूर हो जाय। अथवा—जिस प्रकार (वातः न्यग् वाति) वायु नीचे की तरफ़ वेग से जाता है, (सूर्यः न्यक् तपति) सूर्य जिस प्रकार नीचे भूमि पर तपता है, जैसे (अघ्न्या नीचीनम् दुहे) गाय नीचे झुक कर दूध देती है उसी प्रकार तेरा (रपः) पाप भी (न्यग्) नीचे (भवतु) हो जाय।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘वातो अववाति’ इति ऋ०। तत्र बन्ध्वादयो गौपायना ऋषयः। सुबन्धोजीविताह्वानं देवता।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिराः ऋषिः। बहवो देवताः। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cure by Apah, ‘waters / karma’

    Meaning

    The wind, vayu, moves downward, solar heat and light radiates downward to earth, the inviolable cow is milked downward. So may your ailment be drained out downward.

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    Translation

    The wind blows downwards; downwards shines the sun; downwards the cow is milked; may your disease be expelled downwards.

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    Translation

    The celestial wind blows downwards from above the sun, sends its heat downward, the milk of milch-cow is drawn downward and thus, let your bodily disease go downward.

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    Translation

    Just as air breathes downward from above, and downward the sun sends his heat; downward is drawn the milch-cow's milk, so downward go thy malady, O patient!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(न्यक्) नि+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्। निम्नम् (वातः) वायुः (वाति) गच्छति (न्यक्) (तपति) उपतापयति (सूर्यः) सरणशील आदित्यः (नीचीनम्) विभाषाञ्चेर०। पा० ५।४।८। इति न्यच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः (अघ्न्या) अहन्तव्या गौः−निघ० २।११। (दुहे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। दुग्धे दुग्धं ददाति (न्यक्) अधोमुखम् (भवतु) (ते) तव (रपः) पापम् ॥

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