अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 112/ मन्त्र 2
मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥
स्वर सहित पद पाठमु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥११७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥
स्वर रहित पद पाठमुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥११७.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
इन्द्रियों के जय का उपदेश।
पदार्थ
वे [व्यापनशील इन्द्रियाँ-म० १] (मा) मुझको (शपथ्यात्) शपथ सम्बन्धी (अथो) और (वरुण्यात्) श्रेष्ठों में हुए [अपराध] से (अथो) और (यमस्य) न्यायकारी राजा के (पड्वीशात्) बेड़ी डालने से (उत) और (विश्वस्मात्) सब (देवकिल्बिषात्) परमेश्वर के प्रति अपराध से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य प्रमाद छोड़कर इन्द्रियों को जीतकर सब प्रकार के दोषों से बचें ॥२॥ यह मन्त्र आ चुका है। अ० ६।९६।२ ॥
टिप्पणी
२−(मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (ताः) आपः-म० १। (देवकिल्बिषात्) परमेश्वरं प्रति दोषात्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ६।९६।२ ॥
विषय
शपथ्यात्, वरुण्यात्
पदार्थ
व्याख्या देखें-अथर्व० ६.९६.२ पर।
अपने को ज्ञानाग्नि में खूब ही परिपक्व करनेवाला 'भार्गव' अगले दो सूक्तों का ऋषि है -
भाषार्थ
[आपः (मन्त्र १), जल] (शपथ्यात्) शपथ लेने के दोष से, (उत) और (अथो) तत्पश्चात् (वरुण्यात्) वरुणसम्बन्धी जलोदर रोग से, (अथो) तत्पश्चात् (यमस्य) मृत्युसम्बन्धी (पड्वीशात्) पादबन्धन से, बेड़ी से तथा (विश्वस्मात्) सब (दवकिल्बिषात्) इन्द्रिय-दोषों से (मा) मुझे (मुञ्चन्तु) मुक्त करें, छुड़ा दें]।
टिप्पणी
[मन्त्र में जलचिकित्सा का वर्णन है। शपथें सदा झूठी होती हैं, जो कि मानसिक विकृति के कारण होती हैं, जलचिकित्सा से यह मानसिक विकृति ठीक हो जाती है। वरुण है अपामधिपति। यथा “वरुणोऽपामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।४)। जलोदर रोग जलसम्बन्धी है, अतः यह वरुण्य है। देव= इन्द्रियां यथा "देवा द्योतनात्मकाः चक्षुरादीन्द्रियाणि" (महीधर, यजु० ४०।४)। इन्द्रियों के किल्बिष१ अर्थात् दोष या रोग भी जल चिकित्सा द्वारा शान्त हो जाते हैं। जलचिकित्सा द्वारा शारीरिक मलों के नाश से मनुष्य पूर्ण आयु भोगता है, अतः वह मृत्यु सम्बन्धी पादबन्धन से रहित हो जाता है। पड्वीशः = "पदि विशतीति"]। [१. किल्विष= किल (निश्चित) + विष (दोष घौर रोग, जो कि इन्द्रियों के लिये विषरूप हैं)। उणादिकोष में किल्विष को “किल्बिष" मान कर "किल् + बुक् + रिषच्" द्वारा व्युत्पन्न माना है (१।५०), और निरुक्त में किल्बिषम् की निरुक्ति “किल्भिदम्” कही है (११।३।२३); किल्बिषम् = किल् बि (भि= भी) + षणु दाने; भयप्रदम्।]
विषय
पाप से मुक्त होने की प्रार्थना।
भावार्थ
व्याख्या देखो (का० ६ सू० ९६। २)। वे ही पूर्वोक्त दिव्य प्राणधाराएं (मा) मुझको (शपथ्यात्) परनिन्दा से उत्पन्न (अथो वारुण्यात्) और वरुण अर्थात् ईश्वर के प्रति दुर्विचार आदि से उत्पन्न पाप से (मुल्खन्तु) दूर करें, (अथो) और ये ही (यमस्य पड्वीशात्) मृत्यु की बेड़ियों से औौर (विश्वस्मात्) सब प्रकार के (देव किल्विषात्) विद्वानों के प्रति किये अपराध अथवा इन्द्रियों के बुरे आचरण से उत्पन्न पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आपः वरुणश्च देवताः। १ भुरिक्। २ अनुष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
May they save us from the hurt and affliction caused by censure and imprecation, from ailments caused by water, from the snares of Varuna, lord of natural justice, from the fear of untimely death, and from offence and violence against natural forces of the world. (This mantra is more a prayer for immunity by observance of discipline than for cure of the consequences of a breach of the discipline, or, let us say, a prayer for both prevention and cure.)
Translation
May they release me from the sins, committed by breaking of vow, or committed against the Lord of law (Varuna). May they release me from the fetters of death and from all the sins committed against the bounties of nature.(Also Yv, XII.70)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.117.2AS PER THE BOOK
Translation
Let these waters keep me away from the evil of disease brought out due to cursing others, or from that which is developed due to water from that evil of disease which is due to the fetters of time (the change of season etc.) and all those evils of diseases which are due to violation of nature’s law and hygienic rules.
Translation
May these organs save me from the sin arising from slandering others, or entertaining evil thoughts for God. May they free me from the fetters of Death, and from every sin committed towards the learned.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (ताः) आपः-म० १। (देवकिल्बिषात्) परमेश्वरं प्रति दोषात्। अन्यद् व्याख्यातम्-अ० ६।९६।२ ॥
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