Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 40 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः देवता - सरस्वान् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सरस्वान् सूक्त
    1

    आ प्र॒त्यञ्चं॑ दा॒शुषे॑ दा॒श्वंसं॒ सर॑स्वन्तं पुष्ट॒पतिं॑ रयि॒ष्ठाम्। रा॒यस्पोषं॑ श्रव॒स्युं वसा॑ना इ॒ह हु॑वेम सद॑नं रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प्र॒त्यञ्च॑म् । दा॒शुषे॑ । दा॒श्वंस॑म् । सर॑स्वन्तम् । पु॒ष्ट॒ऽपति॑म् । र॒यि॒ऽस्थाम् । रा॒य: । पोष॑म् । श्र॒व॒स्युम् । वसा॑ना: । इ॒ह । हु॒वे॒म॒ । सद॑नम् । र॒यी॒णाम् ॥४१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ प्रत्यञ्चं दाशुषे दाश्वंसं सरस्वन्तं पुष्टपतिं रयिष्ठाम्। रायस्पोषं श्रवस्युं वसाना इह हुवेम सदनं रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । प्रत्यञ्चम् । दाशुषे । दाश्वंसम् । सरस्वन्तम् । पुष्टऽपतिम् । रयिऽस्थाम् । राय: । पोषम् । श्रवस्युम् । वसाना: । इह । हुवेम । सदनम् । रयीणाम् ॥४१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर के उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षव्यापक, (दाशुषे) आत्मदान करनेवाले [भक्त] को (दाश्वंसम्) सुख देनेवाले (पुष्टपतिम्) पोषण के स्वामी, (रयिष्ठाम्) धन में स्थितिवाले, (रायः) धन के (पोषम्) बढ़ानेवाले, (श्रवस्युम्) सुननेवाले, (रयीणाम्) अनेक धनों के (सदनम्) भण्डार (सरस्वन्तम्) बड़े ज्ञानवान् परमेश्वर को (वसानाः) स्वीकार करते हुए हम लोग (इह) यहाँ पर (आ) सब प्रकार (हुवेम) बुलावें ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्नपूर्वक परमेश्वर के अनन्त भण्डार से अनेक प्रकार के धन प्राप्त करके सुखी रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(आ) समन्तात् (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षव्यापकम् (दाशुषे) अ० ४।२४।१। आत्मानं दत्तवते (दाश्वंसम्) छान्दसो ह्रस्वः। दाश्वांसम्। सुखस्य दातारम् (सरस्वन्तम्)-म० १। पूर्णविज्ञानवन्तम् (पुष्टपतिम्) पोषणस्य स्वामिनम् (रयिष्ठम्) धने स्थितम् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष पुष्टौ पचाद्यच्। पोषकम् (श्रवस्युम्) अ० ६।९८।२। श्रवणशीलम् (वसानाः) वस स्वीकारे चुरादिः, शानचि छान्दसं रूपम्। स्वीकुर्वाणाः (इह) अस्मिन् संसारे (हुवेम) लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति ह्वेञ् आह्वाने-अङ्। बहुलं छन्दसि। पा० ६।१।३४। सम्प्रसारणम्। हूयास्म। आह्वयेम (सदनम्) गृहम् (रयीणाम्) धनानाम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दाशुषे दाश्वांसम्

    पदार्थ

    १. हम (इह) = इस जीवन में (वसाना:) = हवि आदि से प्रभु की परिचर्या करते हुए [विवासति: परिचरणकर्मा] उस प्रभु को (आ हुवेम) = पुकारते हैं जो (प्रत्यञ्चम्) = हम सबके अन्दर गति करनेवाले हैं, (दाशुषे दाश्वासम्) = अपना अर्पण करनेवाले के लिए सब-कुछ देनेवाले हैं, (सरस्वन्तम्) = ज्ञान के प्रवाहवाले व (पुष्टपतिम्) = सब पोषणों के स्वामी हैं, (रयिष्ठाम्) = सब ऐश्वयों के अधिष्ठाता हैं, २. (रायस्पोषम्) = सब धनों का पोषण करनेवाले, (श्रवस्युम्) = सब अन्नों को प्राप्त करानेवाले [श्रवः अन्नम्] तथा (रयीणां सदनम्) = ऐश्वयों के निवासस्थान हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु की आराधना करें। प्रभु ही सब-कुछ देनेवाले व सबका पोषण करनेवाले हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (प्रत्यञ्चम्) प्रतिपदार्थ में प्राप्त (दाशुषे) आत्मसमर्पक के लिये (दाश्वांसम्) सद्गुणों के प्रदाता, (सरस्वन्तम्) विज्ञान१ धन, (पुष्टपति) परिपुष्ट पूषा [सूर्य] के पति, (रयिष्ठाम्) ऐश्वर्यों में स्थित अर्थात् ऐश्वर्यशाली, (रायस्पोषम्) भक्तों की सद्गुणरूपी सम्पत्ति के पोषक, (श्रवस्युम्) भक्तों की प्रार्थना को सुनना चाहते हुए, (रयीणाम्) सद्गुणरूपी सम्पत्तियों की (सदनम्) आगार परमेश्वर को (वसानाः) निज जीवनों में बसाते हुए, (इह) यहां निज जीवनों या इस पृथिवी पर (आहुवेम) हम उसका आह्वान करते हैं]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    रससागर ईश्वर का स्मरण।

    भावार्थ

    (इह) इस संसार में और इस मानव-देह में (वसानाः) रहते हुए हम (प्रत्यञ्चः) प्रत्येक पदार्थ में व्यापक (दाशुषे दाश्वंसं) अपने को उसके अधीन समर्पण करने वाले साधक को बल, ज्ञान, प्रदान करते हुए, (सरस्वन्तं) शक्ति, क्रिया और ज्ञान के सागर (पुष्टपतिम्) सब पुष्टियों के स्वामी, सबके पोषक, (रयि स्थाम्) रयि बल और प्राणों में अधिष्ठाता रूप से स्थित (रायः स्पोषं) धनों और प्राणों के पोषक, (श्रवस्युम्) देहधारियों को अन्न प्रदान करने हारे (रयीणां सदनं) तथा समस्त ऐश्वर्यों और बलों के आश्रयस्थान में परम आत्मा को हम सदा (आ हुवेम) स्मरण करें और उसको पुकारें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः। सरस्वान् देवता। १ भुरिक्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lord of Nectar Sweets

    Meaning

    Loving, dedicated and abiding here in divine law, we invoke the innermost presence of divine Sarasvan, Lord of the showers of light and life, direct giver of fulfilment to the generous self-sacrificer, giver of refulgence to the sun, promoter of life, treasure-hold of all wealth, promoter of the world’s wealth of nourishment for nature and humanity, and the ultimate seed and seat of all wealth, honour and excellence. The Lord is Shravasyu, He listens, we invoke and adore.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We, living here in plenty of riches, call Him, the Lord of vitality, a bestower coming towards a sacrificer, the Lord of nourishment, standing amid riches, granter of glory, and abode of riches.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.41.2AS PER THE BOOK

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    We, accepting His glory pray God who is ultimate primal ground of Vedic speech, the seat of riches, glorious, increaser of the wealth, the rich possessor, the Lord of fullness and who gives to him who gives his wealth to others.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Abiding here, let us invoke God, the Ocean of knowledge and strength, All-pervading, the Giver of knowledge and wealth to the worshipper, the Rich possessor, the Lord of Fullness, Wealth-Increaser, the Giver of food, and the seat of riches.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(आ) समन्तात् (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यक्षव्यापकम् (दाशुषे) अ० ४।२४।१। आत्मानं दत्तवते (दाश्वंसम्) छान्दसो ह्रस्वः। दाश्वांसम्। सुखस्य दातारम् (सरस्वन्तम्)-म० १। पूर्णविज्ञानवन्तम् (पुष्टपतिम्) पोषणस्य स्वामिनम् (रयिष्ठम्) धने स्थितम् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष पुष्टौ पचाद्यच्। पोषकम् (श्रवस्युम्) अ० ६।९८।२। श्रवणशीलम् (वसानाः) वस स्वीकारे चुरादिः, शानचि छान्दसं रूपम्। स्वीकुर्वाणाः (इह) अस्मिन् संसारे (हुवेम) लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति ह्वेञ् आह्वाने-अङ्। बहुलं छन्दसि। पा० ६।१।३४। सम्प्रसारणम्। हूयास्म। आह्वयेम (सदनम्) गृहम् (रयीणाम्) धनानाम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top