अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
ईडे॑ अ॒ग्निं स्वाव॑सुं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒क्तो वि च॑यत्कृ॒तं नः॑। रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वा॒जय॑द्भिः प्रदक्षि॒णं म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठईडे॑ । अ॒ग्निम् । स्वऽव॑सुम् । नम॑:ऽभि: । इ॒ह । प्र॒ऽस॒क्त: । वि । च॒य॒त् । कृ॒तम् । न॒: । रथै॑:ऽइव । प्र । भ॒रे॒ । वा॒जय॑त्ऽभि: । प्र॒ऽद॒क्षि॒णम् । म॒रुता॑म् । स्तोम॑म् । ऋ॒ध्या॒म् ॥५२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ईडे अग्निं स्वावसुं नमोभिरिह प्रसक्तो वि चयत्कृतं नः। रथैरिव प्र भरे वाजयद्भिः प्रदक्षिणं मरुतां स्तोममृध्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठईडे । अग्निम् । स्वऽवसुम् । नम:ऽभि: । इह । प्रऽसक्त: । वि । चयत् । कृतम् । न: । रथै:ऽइव । प्र । भरे । वाजयत्ऽभि: । प्रऽदक्षिणम् । मरुताम् । स्तोमम् । ऋध्याम् ॥५२.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(स्ववसुम्) बन्धुओं को धन देनेवाले (अग्निम्) विद्वान् राजा को (नमोभिः) सत्कारों के साथ (ईडे) मैं ढूँढ़ता हूँ, (प्रसक्तः) सन्तुष्ट वह (इह) यहाँ पर (नः) हमारे (कृतम्) कर्म का (वि चयत्) विवेचन करे। (प्रदक्षिणम्) उसकी प्रदक्षिणा [आदर से पूज्य को दाहिनी ओर रखकर घूमना] (प्र) अच्छे प्रकार (भरे) मैं धारण करता हूँ (इव) जैसे (वाजयद्भिः) शीघ्र चलनेवाले (रथैः) रथों से, [जिससे] (महताम्) शूरवीरों में (स्तोमम्) स्तुति को (ऋध्याम्) मैं बढ़ाऊँ ॥३॥
भावार्थ
प्रजागण विद्वानों के सत्कार करनेवाले विवेकी राजा के अधीन रह कर आदरपूर्वक उसकी आज्ञा मानकर शूरवीरों में अपना यश बढ़ावें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।६०।१ ॥
टिप्पणी
३−(ईडे) अन्विच्छामि। ईडिरध्येषणकर्मा पूजाकर्मा वा-निरु० ७।१५। (अग्निम्) विद्वांसं राजानम् (स्ववसुम्) स्वेभ्यो बन्धुभ्यो धनं यस्य तम् (नमोभिः) सत्कारैः (इह) अत्र (प्रसक्तः) षञ्ज सङ्गे-क्त। सन्तुष्टः (विचयत्) विचिनुयात्। विवेकेन प्राप्नुयात् (कृतम्) कर्म (नः) अस्माकम् (रथैः) (इव) यथा (प्र) प्रकर्षेण (भरे) धरामि (वाजयद्भिः) वाजशब्दात् करोत्यर्थे णिच्। वाजं वेगं कुर्वद्भिः (प्रदक्षिणम्) तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च। पा० २।१।१७। इत्यव्ययीभावसमासः। प्रगतं दक्षिणमिति। दक्षिणावर्त्तेन पूज्यमुद्दिश्य भ्रमणम् (मरुताम्) शूराणां मध्ये-अ० १।२०।१। (स्तोमम्) स्तुतिम् (ऋध्याम्) अर्धयेयम्। वर्धयेयम् ॥
विषय
'स्वावसु' प्रभु
पदार्थ
१. मैं (स्वावसुम्) = हमारे अन्दर ही निवास करनेवाले (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (नमोभिः) = नमस्कारों द्वारा (ईडे) = पूजित करता हूँ। (इह) = यहाँ हमारे जीवनों में (प्रसक्त:) = प्रकर्षेण सम्बद्ध हुआ-हुआ वह प्रभु (नः कृतं विचयत्) = हमारे पुरुषार्थ का वर्धन करे । प्रभु का निवास हमारे अन्दर ही है। वहाँ हृदय में हम प्रभु के साथ बैठने का यत्न करें, प्रभु हमारे पुरुषार्थ व पुण्य का वर्धन करेंगे। २. (वाजयद्धिः) = शक्तिशाली की भाँति आचरण करते हुए (रथैः) = रथों से (इव) = जिस प्रकार शत्रु पर आक्रमण किया जाता है, उसी प्रकार में प्रभरे शत्रुओं पर आक्रमण करता हूँ। इसप्रकार शत्रुओं का पराजय करता हुआ मैं (मरुतां स्तोमम्) = प्राणों के समूह को (प्रदक्षिणम) = अनुक्रमेण (ऋध्याम्) = बढ़ानेवाला बनूं। काम, क्रोध आदि शत्रुओं को पराजित करके मैं उपचित [बढ़ी हुई] प्राणशक्तिवाला बनूं।
भावार्थ
हम अन्त:स्थित प्रभु का हृदय-देश में ध्यान करें। प्रभु हमारे पौरुष को बढ़ाएँ। हम शत्रुओं को पराजित करें। इसप्रकार काम-क्रोध आदि को विनष्ट करके हम अपनी प्राणशक्ति का वर्धन करें।
भाषार्थ
(स्वावसुम्) समग्र सम्पत्ति जिस की अपनी है उस (अग्निम्) सर्वाग्रणी की (नमोभिः) नमस्कारों पूर्वक (ईडे) मैं स्तुति करता हूं, (इह) इस जीवन में (प्रसक्तः) संसर्गप्राप्त अर्थात् सम्बद्ध हुआ वह सर्वाग्रणी (नः) हमारी (कृतम्) कर्मशक्ति का (विचयत्) विशेष चयन करे। (वाजयद्भिः) अन्न संग्रह करने वाले (रथैः) रथों द्वारा (इव) जैसे (प्रभरे) मैं अन्न संग्रह करता हूं, वैसे सैन्यरथों द्वारा मैं (प्रदक्षिणम्) प्रवृद्ध, (मरुताम्, स्तोमम्) सैनिकों की धनराशि को (ऋध्याम्) और बढ़ाऊँ।
टिप्पणी
[बाजयद्भिः=वाजम् अन्नं कुर्वद्भिः, वाजशब्दात् करोत्यर्थे णिच् (सायण)। प्रदक्षिणम्= प्र + दक्ष वृद्धौ (भ्वादिः)। मरुताम्= म्रियते मारयति वा स मरुत् (उणा० १।९०), तथा “देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम्” (यजु० १७।४०) में मरुतः= सैनिकाः। स्तोमम = समूहम्, धनसमूहम्।]
विषय
आत्म-संयम।
भावार्थ
मैं (अग्निं) प्रकाशस्वरूप, (स्व-वसुम्) स्व = अपने देह के या आत्मा के भी भीतर वसने वाले उस प्रभु की, (नमोभिः) नमस्कारों द्वारा (ईडे) स्तुति करता हूं। वह (इह) इस संसार में (प्र-सक्तः) अपनी उत्तम शक्ति से सर्वत्र व्यापक रहकर (नः) हमारा (कृतं) किया पुरुषार्थ हमें ही (वि चयत्) नाना प्रकार से प्रदान करता है। संग्राम में (वाजयद्भिः) बल पकड़ते हुए या वेग से जाते हुए (रथैः-इव) रथों से जिस प्रकार नाना देशों को जाता हूं और उन को वश करता हूं उसी प्रकार मैं आत्मा का साधक योगी (प्र-दक्षिणं) स्वयं अति उत्कृष्ट बलशाली (स्तोमं) समूह अर्थात् इन्द्रियगण को (ऋध्याम्) अपने वश करूँ। और उन की शक्ति को बढ़ाऊँ। विजयशील सेनापति के पक्ष में भी उपमा के बल से लगता है। मन्त्र तेत्तिरीय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता में भी आता है वहां कहीं भी इस मन्त्र का द्यूतक्रीड़ा से सम्बन्ध नहीं है। इसलिये जूए के पक्ष में सायणकृत अर्थ असंगत है।
टिप्पणी
ऋग्वेदे श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः। (द्वि०) ‘इह प्रसत्तो’ ‘प्रदक्षिणिन् मरुताम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कितववधनकामोंगिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १, २, ५, ९ अनुष्टुप्। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, जगती। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory by Karma
Meaning
I adore Agni, Ruler and leader, who holds and controls the nation’s own wealth without any debt. Let him, concentrated on the commonwealth, take stock of our actions and achievements in the field of wealth and production. As I raise the wealth and honour of the nation as with chariots laden with wealth and victory, so do I receive as well as promote the honour and prestige of our vibrant people and our forces. I adore Agni, Ruler and leader, who holds and controls the nation’s own wealth without any debt. Let him, concentrated on the commonwealth, take stock of our actions and achievements in the field of wealth and production. As I raise the wealth and honour of the nation as with chariots laden with wealth and victory, so do I receive as well as promote the honour and prestige of our vibrant people and our forces.
Translation
I praise the adorable Lord, the master of great treasures. Inclined towards me by my homages, may He divide (vi-ci) here what we have won. As if with booty-winning chariots in a battle, may I further praise of the brave soldiers (maruts) with my skill.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.52.3AS PER THE BOOK
Translation
I praise the mighty ruler of the kingdom who gives his wealth to his kinsfold, may he, engaged in his state-affairs, carefully pool together our industry and diligence, let us bring our presents in the way as these are carried by the cars racing in the battle and let us receive the laudation of Maruts, the army men.
Translation
I praise with reverence the Resplendent God, Who resides within the soul. He, pervading in the universe watches our actions. Just as I with swift conveyances visit distant places and control them, so may I, the master of the soul, subdue the powerful organs.
Footnote
Sayana has applied the verses of this hymn on gambling, which is unfair.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(ईडे) अन्विच्छामि। ईडिरध्येषणकर्मा पूजाकर्मा वा-निरु० ७।१५। (अग्निम्) विद्वांसं राजानम् (स्ववसुम्) स्वेभ्यो बन्धुभ्यो धनं यस्य तम् (नमोभिः) सत्कारैः (इह) अत्र (प्रसक्तः) षञ्ज सङ्गे-क्त। सन्तुष्टः (विचयत्) विचिनुयात्। विवेकेन प्राप्नुयात् (कृतम्) कर्म (नः) अस्माकम् (रथैः) (इव) यथा (प्र) प्रकर्षेण (भरे) धरामि (वाजयद्भिः) वाजशब्दात् करोत्यर्थे णिच्। वाजं वेगं कुर्वद्भिः (प्रदक्षिणम्) तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च। पा० २।१।१७। इत्यव्ययीभावसमासः। प्रगतं दक्षिणमिति। दक्षिणावर्त्तेन पूज्यमुद्दिश्य भ्रमणम् (मरुताम्) शूराणां मध्ये-अ० १।२०।१। (स्तोमम्) स्तुतिम् (ऋध्याम्) अर्धयेयम्। वर्धयेयम् ॥
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