अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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आयु॒र्यत्ते॒ अति॑हितं परा॒चैर॑पा॒नः प्रा॒णः पुन॒रा तावि॑ताम्। अ॒ग्निष्टदाहा॒र्निरृ॑तेरु॒पस्था॒त्तदा॒त्मनि॒ पुन॒रा वे॑शयामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठआयु॑: । यत् । ते॒ । अति॑ऽहितम् । प॒रा॒चै: । अ॒पा॒न: । प्रा॒ण: । पुन॑: । आ । तौ । इ॒ता॒म् । अ॒ग्नि: । तत् । आ । अ॒हा॒: । नि:ऽऋ॑ते : । उ॒पऽस्था॑त् । तत् । आ॒त्मनि॑ । पुन॑: । आ । वे॒श॒या॒मि॒ । ते॒ ॥५५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्यत्ते अतिहितं पराचैरपानः प्राणः पुनरा ताविताम्। अग्निष्टदाहार्निरृतेरुपस्थात्तदात्मनि पुनरा वेशयामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठआयु: । यत् । ते । अतिऽहितम् । पराचै: । अपान: । प्राण: । पुन: । आ । तौ । इताम् । अग्नि: । तत् । आ । अहा: । नि:ऽऋते : । उपऽस्थात् । तत् । आत्मनि । पुन: । आ । वेशयामि । ते ॥५५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (यत्) जो (ते) तेरा (आयुः) जीवनसामर्थ्य (पराचैः) पराङ्मुख होकर (अतिहितम्) घट गया है, (तौ) वे दोनों (प्राणः) प्राण और (अपानः) अपान (पुनः) फिर (आ इताम्) आवें। (अग्निः) वैद्य वा शरीराग्नि (तत्) उस [आयु] को (निर्ऋतेः) महा विपत्ति के (उपस्थात्) पास से (आ अहाः) लाया है, (तत्) उसको (ते) तेरे (आत्मनि) शरीर में (पुनः) फिर (आ वेशयामि) प्रविष्ट करता हूँ ॥३॥
भावार्थ
जो रोग आदि के कारण शरीरबल में हानि हो जावे, मनुष्य वैद्यों की सम्मति से जाठराग्नि की समता से स्वस्थ रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−(आयुः) जीवनबलम् (यत्) (ते) तव (अतिहितम्) धा-क्त। हानिं गतम् (पराचैः) पराङ्मुखम् (अपानः)-म० २ (प्राणः) (पुनः) (तौ) (आ इताम्) इण् गतौ-लोट्। आगच्छताम् (अग्निः) वैद्यः शरीराग्निर्वा (तत्) आयुः (आ अहाः) अ० ६।१०३।२। हरतेर्लुङ्। अहार्षीत्। आनीतवान् (निर्ऋतेः) अ० २।१०।१। अलक्ष्म्याः। कृच्छ्रापत्तेः (उपस्थात्) समीपात् (तत्) आयुः (आत्मनि) शरीरे (पुनः) (आवेशयामि) प्रवेशयामि (ते) तव ॥
विषय
प्राणापान की अपराङ्मुखता
पदार्थ
१. हे आयुष्काम! (ते यत् आयु:) = तेरा जो जीवन (पराचैः अतिहितम्) = पराङ्मुख होकर चला गया है, (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (तत्) = उस जीवन को (नितेः उपस्थात्) = निकृष्टगमन [मृत्यु] की गोद से (आ अहा:) = आहत करे, वापस ले-आये। (तत्) = उस जीवन को (ते आत्मनि) = तेरे शरीर में (पुन: आवेशयमि) = फिर से स्थापित करता हूँ। २. (अपान:) = अपान और (प्राण:) = प्राण (तौ) = वे दोनों (पुन:) = फिर (आ इताम्) = यहाँ शरीर में चारों ओर गतिवाले हों। प्राणापान की क्रिया ठीक होकर ही दीर्घ जीवन प्राप्त होता है।
भावार्थ
प्राणापान की पराङ्मुखता में मृत्यु है और इनकी अनुकूलता मृत्यु से ऊपर उठाकर दीर्घजीवन प्राप्त कराती है।
भाषार्थ
(पराचैः) पराङ्मुख हो कर चली गई शारीरिक शक्तियों के कारण (यत्) जो (ते आयुः) तेरी आयु (अतिहितम्) तुझे अतिक्रान्त कर ली गई है, (तौ अपानः प्राणः) वे अपान-प्राण (पुनः) फिर (आ इताम्) उसे वापिस ले आएं। (अग्निः) अग्नि (तत्) उस आयुः को (निर्ऋतेः उप स्थात्) कृच्छ्रापत्ति की गोद से (आ अहाः) छीन लाई है, (तत्) उस आयु को (ते आत्मनि) तेरे शरीर में (पुनः) फिर (आवेशयामि) मैं प्रविष्ट करता हूं।
टिप्पणी
[मन्त्रप्रवक्ता है बृहस्पति। अग्नि (मन्त्र २) के सदृश। अतिहितम्= अति + हि (गतौ, स्वादिः)। आहाः= आ, अहा: (आ + अट् + हृ हरणे), लुङ्। आहाः= आहार्षीत्]।
विषय
दीर्घायु की प्रार्थना।
भावार्थ
हे बालक ! (ते) तेरा (यत्) यदि (आयुः) जीवनकाल (पचैः) दूर भी (अति-हितं) कर दिया हो तो भी (प्राणः अपानः) प्राण और अपान (तौ) दोनों (पुनः) फिर भी (आइताम्) इस देह में आजावें। (अग्निः) मुख्य प्राण-रूप जीवन की अग्नि ही (निर्ऋतेः) अति कष्टमय मृत्यु के (उप-स्थात्) समीप से (तत्) उस आयु को (पुनः) फिर (आहाः) ले आता है। (तत्) उस आयु को (ते) तेरे (आत्मनि) देह में (पुनः) फिर भी (आवेशयामि) प्रवेश करा दूं। यदि शरीर में से प्राण-अपान के रुकजाने से जीवन की आशा दूर भी होजाय तो भी प्राण और अपान, श्वास और उच्छ्वास दोनों की गति ठीक कर देने पर जीवन पुनः अपने को सम्भाल ले सकता है। देह में इस प्रकार योग्य प्राणाचार्य पुनः जीवन प्रवेश करा सकता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुष्यकारिणो बृहस्पतिरश्विनौ यमश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक्। ४ उष्णिग्गर्भा आर्षी पंक्ति:। ५ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Good Health and Age
Meaning
O man, if your life’s vitality is run out for any reason, internal or external, let the two, prana and apana energies, come back again. Agni, life’s living vitality, would bring you back from the clutches of calamity. That living vitality, life energy, I restore into your body, mind and soul.
Translation
Your life, which has fled far away (life-span, which has been obstructed due to improper living) and your in-breath and out-breath, may both of them come here again. That firedivine has brought you back from the lap of perdition (nirrti); that I infuse again into your self.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.55.3AS PER THE BOOK
Translation
O man! I, the physician return your life which has got vanished in the distance, let two breaths (Prana and Apana) return to you again, I introduce unto yourself again this life which the bodily heat has snatched from the bosom of destruction.
Translation
Let Prana and Apana bring back thy life, that hath vanished through misdeeds. A physician has snatched it from the bosom of Death: Into thyself again I introduce it.
Footnote
It* refers to life, ‘I’ refers to a learned physician.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(आयुः) जीवनबलम् (यत्) (ते) तव (अतिहितम्) धा-क्त। हानिं गतम् (पराचैः) पराङ्मुखम् (अपानः)-म० २ (प्राणः) (पुनः) (तौ) (आ इताम्) इण् गतौ-लोट्। आगच्छताम् (अग्निः) वैद्यः शरीराग्निर्वा (तत्) आयुः (आ अहाः) अ० ६।१०३।२। हरतेर्लुङ्। अहार्षीत्। आनीतवान् (निर्ऋतेः) अ० २।१०।१। अलक्ष्म्याः। कृच्छ्रापत्तेः (उपस्थात्) समीपात् (तत्) आयुः (आत्मनि) शरीरे (पुनः) (आवेशयामि) प्रवेशयामि (ते) तव ॥
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