अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
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प्र वि॑षतं प्राणापानावन॒ड्वाहा॑विव व्र॒जम्। अ॒यं ज॑रि॒म्णः शे॑व॒धिररि॑ष्ट इ॒ह व॑र्धताम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वि॒श॒त॒म् । प्रा॒णा॒पा॒नौ॒ । अ॒न॒ड्वाहौ॑ऽइव । व्र॒जम् । अ॒यम् । ज॒रि॒म्ण: । शे॒व॒ऽधि: । अरिष्ट॑: । इ॒ह । व॒र्ध॒ता॒म् ॥५५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र विषतं प्राणापानावनड्वाहाविव व्रजम्। अयं जरिम्णः शेवधिररिष्ट इह वर्धताम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । विशतम् । प्राणापानौ । अनड्वाहौऽइव । व्रजम् । अयम् । जरिम्ण: । शेवऽधि: । अरिष्ट: । इह । वर्धताम् ॥५५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(प्राणापानौ) हे प्राण और अपान ! तुम दोनों (प्र विशतम्) प्रवेश करते रहो, (इव) जैसे (अनड्वाहौ) रथ ले चलनेवाले दो बैल (व्रजम्) गोशाला में (अयम्) यह जीव (जरिम्णः) स्तुति का (शेवधिः) निधि, (अरिष्टः) दुःखरहित होकर (इह) यहाँ पर (वर्धताम्) बढ़ती करे ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य शारीरिक और आत्मिक बल बढ़ाकर संसार में उन्नति करें ॥५॥
टिप्पणी
५−(प्र विशतम्) प्रवेशं कुरुतम् (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (अनड्वाहौ) अ० ४।११।१। अनस्+वह प्रापणे-क्विप्, अनसो डश्च। शकट−वहनशक्तौ बलीवर्दौ (इव) यथा (व्रजम्) गोष्ठम् (अयम्) जीवः (जरिम्णः) अ० २।२८।१। जरा स्तुतिर्जरतेः, स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जरतेः-इमनिन्। स्तुत्यस्य कर्मणः (शेवधिः) अ० ५।२२।१४। निधिः-निरु० २।४। (अरिष्टः) अहिंसितः (इह) अस्मिँल्लोके (वर्धताम्) समृद्धो भवतु ॥
विषय
जरिम्णाः, शेवधिः, अरिष्टः
पदार्थ
१. हे (प्राणापानौ) = प्राण और अपान ! (प्रविशतम्) = इस आयुष्काम के शरीर में प्रवेश करो। इसप्रकार प्रवेश करो (इव) = जैसेकि (अनड्वाहौ) = दो बैल (ब्रजम्) = एक गोष्ठ में प्रवेश करते हैं। २. (अयम्) = यह आयुष्काम पुरुष (जरिम्ण: शेवधि:) = जरा का-पूर्ण वृद्धावस्था का कोश हो। (अरिष्ट:) = अहिंसित होता हुआ, मृत्यु की बाधा से रहित होता हुआ, सब इन्द्रियों से अहीन होता हुआ (इह वर्धताम्) = इस लोक में समृद्धि को प्राप्त हो।
भावार्थ
हमारे शरीर में प्राणापान अपने-अपने स्थान में ठीक प्रकार से स्थित हों। यह पुरुष दीर्घजीवी बने, सब अंगों में अहिंसित होता हुआ बढ़े।
भाषार्थ
(प्राणापानौ) हे प्राण-अपान (प्रविशतम्) तुम दोनों शरीर में प्रवेश करो, (इव) जैसे कि (अनड्वाहौ) शकटवहन-समर्थ दो बैल (व्रजम्) बैल-शाला में करते हैं। (अयम्) यह (जरिम्णः) जरा का (शेवधिः) निधि अर्थात् खजाना (अरिष्टः) अहिंसित हुआ (इह) इस शरीर या लोक में (वर्धताम्) बढ़े, समृद्ध हो।
टिप्पणी
[अनडवाहौ के दृष्टान्त द्वारा प्राण-अपान की सशक्तता तथा बलशालिता दर्शाई है]।
विषय
दीर्घायु की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (प्राणापानौ) प्राण और अपान ! तुम दोनों (व्रजम्) पशुशाला वा रथ में (अनड्वाहौ-इव) दो बैलों के समान इस देह में (प्रविशतम्) प्रवेश करो। (अयं) यह बालक (जरिम्णः) वार्धककाल का भी (निधि) पात्र, ख़ज़ाना, हो, अर्थात् वह बुढ़ापा भी लम्बा भोगे। और (अरिष्टः) बिना किसी प्राणबाधा के कुशलपूर्वक (इह) इस लोक में (वर्धताम्) वृद्धि को प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुष्यकारिणो बृहस्पतिरश्विनौ यमश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक्। ४ उष्णिग्गर्भा आर्षी पंक्ति:। ५ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Good Health and Age
Meaning
O prana and apana vitalities, enter this person with your energy and vitality like two chariot bulls taking to the road to conduct the master to his destination. This person is a living treasure-hold of health and age, which, on your entry, may grow and go on forward on life’s journey without hurt or damage here.
Translation
O out-breath and in-breath, may you enter him just as a pair of bullocks enters a stall. May this man, a treasure of old age, grow and prosper unharmed.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.55.5AS PER THE BOOK
Translation
Let these two breaths (Prana and Apana) like two bulls going to their stall enter him, let him wax in strength, uninjured and let him be the treasure of old age.
Translation
Enter the body, both ye breaths, like two draught-oxen entering their stall. Let this soul, the treasure of old age, still wax in strength, free from violence, in the world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(प्र विशतम्) प्रवेशं कुरुतम् (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (अनड्वाहौ) अ० ४।११।१। अनस्+वह प्रापणे-क्विप्, अनसो डश्च। शकट−वहनशक्तौ बलीवर्दौ (इव) यथा (व्रजम्) गोष्ठम् (अयम्) जीवः (जरिम्णः) अ० २।२८।१। जरा स्तुतिर्जरतेः, स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जरतेः-इमनिन्। स्तुत्यस्य कर्मणः (शेवधिः) अ० ५।२२।१४। निधिः-निरु० २।४। (अरिष्टः) अहिंसितः (इह) अस्मिँल्लोके (वर्धताम्) समृद्धो भवतु ॥
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