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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    1

    प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रति॒ अहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। प्रति॒ सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । प्रति॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । प्रति॑ । सूर्य॑स्य । पु॒रु॒ऽधा । च॒ । र॒श्मीन् । प्रति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । त॒ता॒न॒ ॥८७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रति अहानि प्रथमो जातवेदाः। प्रति सूर्यस्य पुरुधा च रश्मीन्प्रति द्यावापृथिवी आ ततान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । प्रति । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । प्रति । सूर्यस्य । पुरुऽधा । च । रश्मीन् । प्रति । द्यावापृथिवी इति । आ । ततान ॥८७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेद के विज्ञान का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकास को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, [उसी] (प्रथमः) सब से पहिले वर्त्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (च) और (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मीन्) व्यापक किरणों को (पुरुधा) अनेक प्रकार (प्रति) प्रत्यक्षरूप से, और (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी लोकों को (प्रति) प्रत्यक्षरूप से (आ) सब ओर (ततान) फैलाया है ॥५॥

    भावार्थ

    सब जगत् के उत्पादक और सर्वनियन्ता ईश्वर की महिमा को विचारकर मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(प्रति) प्रत्यक्षरूपेण (सूर्यस्य) आदित्यमण्डलस्य (पुरुधा) अनेकधा (च) (आ) समन्तात् (ततान) विस्तारयामास ॥अन्यत्पूर्ववत्-म० ४॥

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    विषय

    'ब्रह्माण्ड के विस्तारक' प्रभु

    पदार्थ

    १. (अग्नि:) = वे अग्रणी प्रभु (उषसाम् अग्रं प्रति अख्यत्) = उपाओं के अग्नभाग को प्रतिदिन प्रकाशित करते हैं। वे प्रभु ही (प्रथमः) = सबके आदिमूल व (जातवेदा:) = सर्वज्ञ है, (अहानि प्रति) [अख्यत्] = सब दिनों को प्रकाशित करते हैं। २. (सूर्यस्य रश्मीन्) = सूर्य की रश्मियों को (च) = भी पुरुधा-नाना प्रकार से [विविध वर्णयुक्त करके] प्रति[अख्यत्]-प्रकाशित करते हैं। (द्यावापृथिवी प्रति आततान) =  द्यावापृथिवी के प्रत्येक पदार्थ में आतत [व्यापक] हो रहे हैं-प्रत्येक पदार्थ में अपने प्रकाश को विस्तृत कर रहे हैं।

    भावार्थ

    वे प्रभु 'उषाओं को, दिनों को, सूर्यरश्मियों को व द्यावापृथिवी के प्रत्येक पदार्थ को' प्रकाशित कर रहे हैं।

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    भाषार्थ

    (अग्निः) परमेश्वराग्नि ने (प्रति) प्रत्यक्षरूप में (उषसाम्, अग्रम्) उषाओं के पूर्व के काल को (अख्यत्) प्रकाशित किया है, (प्रथमः जातवेदाः) अनादि, सर्वज्ञ१ ने (प्रति) प्रत्यक्षरूप में (अहानि) दिनों को [प्रकाशित किया है], (च) और (प्रति) प्रत्यक्षरूप में (पुरुधा) बहुत प्रकार की (सूर्यस्य रश्मीन्) सौर-रश्मियों को [प्रकाशित किया है], (प्रति) प्रत्यक्षरूप में, उसने (द्यावापृथिवी) द्यौः और पृथिवी को (आततान) फैलाया है।

    टिप्पणी

    [पुरुषा रश्मीन् = वेदानुसार सूर्यरश्मियां सप्तविध हैं, अतः पुरुधा हैं। परमयोगी को मन्त्रकथित तत्वों की प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है]। [१. जातवेदाः= जातानि वेद। जातानि वैनं विदुः। जाते जाते विद्यत इति वा‌। जातवित्तो वा जतधनः। जातविद्यो वा जातप्रज्ञानः (निरुक्त ७।५।१९)।]

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    विषय

    ईश्वर से बलों की याचना।

    भावार्थ

    (अग्निः) वही प्रकाशक प्रभु (उषसाम् अग्रम्) उषाओं के मुख भाग को (प्रति अख्यत्) प्रकाशित करता है। वही (प्रथमः) सब का आदिमूल (जातवेदाः) सर्वज्ञ (अहानि प्रति अख्यत्) सब दिनों को प्रकाशित करता है, (सूर्यस्य प्रति) सूर्य की (रश्मीन् च) रश्मियों को भी वही (पुरुधा) नाना प्रकार से (प्रति अख्यत्) प्रकाशित करता है। (द्यावापृथिवी प्रति आततान) और वही द्यु और पृथिवी अर्थात् आकाश और ज़मीन दोनों के प्रत्येक पदार्थ में व्यापक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ४, ५, ६ त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prayer to Agni

    Meaning

    Agni, first presence self-manifestive omniscient of all forms, potential and actual, exists before and pervades and watches as they come into existence, every one of the dawns, every one of the days, and many ways extends and pervades every sun, the radiating rays and heaven and earth as they expand.

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    Translation

    The adorable Lord shines towards the beginnings of the dawns; He the foremost and omniscient shines towards the days. He shines variously towards the sun’s rays and He spreads out to heaven and earth. (Also Av. VII.87 4)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.87.5AS PER THE BOOK

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    Translation

    This fire as an earliest pervading force of the worldly objects first shines in the dawns and then thereafter in daylight. This shines in the different rays of the sun and extends its essence in the heaven and earth.

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    Translation

    The same God explicitly illumines the fore-part of Dawns. The Primordial Omniscient God clearly brings to light the days. He sends the rays of the Sun in countless places. He extends the Heaven and Earth.

    Footnote

    Fifth verse is almost a repetition of the 4th for the sake of emphasis.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(प्रति) प्रत्यक्षरूपेण (सूर्यस्य) आदित्यमण्डलस्य (पुरुधा) अनेकधा (च) (आ) समन्तात् (ततान) विस्तारयामास ॥अन्यत्पूर्ववत्-म० ४॥

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